विवेकानन्द साहित्य >> ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँस्वामी विवेकानन्द
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प्रस्तुत है पुस्तक ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ।
ध्यान के समय
तेल की धार की तरह मन को एक ओर लगाये रखना चाहिए। जीव का मन अनेकानेक विषयों से विक्षिप्त हो रहा है। ध्यान के समय भी पहले-पहल मन विक्षिप्त होता है। मन में जो चाहे भाव उठे, उन्हें उस समय स्थिर हो बैठकर देखना चाहिए। देखते देखते मन स्थिर हो जाता है और फिर मन में चिन्तन की तरंगें नहीं रहतीं। वह तरंग-समूह ही है, मन की संकल्प-वृत्ति। इससे पूर्व जिन विषयों का तीव्र भाव से चिन्तन किया है, उनका अवचेतन तरङ्ग के रूप में परिवर्तित होकर एक मानसिक प्रवाह रहता है। इसीलिए वे विषय ध्यान के समय मन में उठते हैं। साधक का मन धीरे धीरे स्थिरता की ओर जा रहा है, उनका उठना या ध्यान के समय स्मरण होना ही उसका प्रमाण है कि मन कभी कभी किसी भाव को लेकर एकवृत्तिस्थ हो जाता है - उसीका नाम है सविकल्प ध्यान। और मन जिस समय सभी वृत्तियों से शून्य होकर निराधार एक अखण्ड बोधरूपी प्रत्यक् चैतन्य में लीन हो जाता है, उसका नाम है वृत्तिशून्य निर्विकल्प समाधि।
हमने श्रीरामकृष्ण में ये दोनों समाधियाँ बार बार देखी हैं। उन्हें ऐसी स्थितियों को प्रयत्न करके लाना नहीं पड़ता था। बल्कि अपने आप ही एकाएक वैसा हो जाया करता था। वह एक आश्चर्यजनक घटना होती थी! उन्हें देखकर ही तो यह सब ठीक समझ सका था। (६.२२१-२२२)
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