विवेकानन्द साहित्य >> ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँस्वामी विवेकानन्द
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प्रस्तुत है पुस्तक ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ।
भावनाएँ और ध्यान
स्वामीजी - प्रतिदिन अकेले ध्यान करना, सब रहस्य स्वयं ही खुल जायगा। भावप्रवणता को ध्यान के समय एकदम दबा देना। वही बड़ा भय है। जो लोग अधिक भावप्रवण हैं, उनकी कुण्डलिनी फड़फड़ाती हुई ऊपर तो उठ जाती है। परन्तु वह जितने शीघ्र ऊपर जाती है, उतने ही शीघ्र नीचे भी उतर जाती है। जब उतरती है तो साधक को एकदम गर्त में ले जाकर छोड़ती है। भाव-साधना के सहायक कीर्तन आदि में यही एक बड़ा दोष है। नाच-कूदकर सामयिक उत्तेजना से उस शक्ति की ऊर्ध्वगति अवश्य हो जाती है। परन्तु स्थायी नहीं होती। निम्नगामी होते समय जीव में प्रबल काम-प्रवृत्ति की वृद्धि होती है। मेरे अमेरिका के भाषण सुनकर सामयिक उत्तेजना से स्त्री-पुरुषों में अनेक का यही भाव हुआ करता था। कोई तो जड़ की तरह बन जाते थे। मैंने पीछे पता लगाया था, उस स्थिति के बाद ही कई लोगों की काम-प्रवृत्ति की अधिकता होती थी। स्थिर ध्यान-धारणा का अभ्यास न होने के कारण ही वैसा होता है।
शिष्य - महाराज, ये सब गुप्त साधन-रहस्य किसी शास्त्र में मैंने नहीं पढ़े। आज नयी बात सुनी।
स्वामीजी - सभी साधन-रहस्य क्या शास्त्र में हैं! वे सब गुप्तभाव से गुरु-शिष्य परम्परागत चले आ रहे हैं। एक दिन भी क्रम न तोड़ना। काम-काज का झंझट रहे तो कम से कम पन्द्रह मिनट तो अवश्य ही कर लेना। एकनिष्ठ न रहने से कुछ नहीं होता। (६.२२२-२२३)
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