विवेकानन्द साहित्य >> ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँस्वामी विवेकानन्द
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प्रस्तुत है पुस्तक ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ।
ध्यान क्या है?
ध्यान क्या है? ध्यान वह बल है, जो हमें इस सब (प्रकृति के प्रति हमारी दासता) का प्रतिरोध करने का सामर्थ्य देता है। प्रकृति हमसे कह सकती है, “देखो, वहाँ एक सुन्दर वस्तु है।" मैं नहीं देखता। अब वह कहती है, “यह गंध सुहावनी है, इसे सूँघो।" मैं अपनी नाक से कहता हूँ, “इसे मत सूँघ।” और नाक नहीं सूँघती। “आँखो देखो मत!” प्रकृति ऐसा जघन्य कार्य करती है - मेरे एक बच्चे को मार डालती है, और कहती है, “अब, बदमाश, बैठ और रो! गर्त में गिर!” मैं कहता हूँ, "मुझे न रोना है, न गिरना है।” मैं उछल पड़ता हूँ। मुझे मुक्त होना ही चाहिए। कभी इसे करके देखो ध्यान में, एक क्षण के लिए, तुम इस प्रकृति को बदल सकते हो। अब, यदि तुममें यह शक्ति आ जाती है, तो क्या वह स्वर्ग या मुक्ति नहीं होगी? यही ध्यान की शक्ति है।
इसे कैसे प्राप्त किया जाय? दर्जनों विभिन्न रीतियों से। प्रत्येक स्वभाव का अपना मार्ग है। पर सामान्य सिद्धान्त यह है कि मन को पकड़ो। मन एक झील के समान है, और उसमें गिरनेवाला हर पत्थर तरंगे उठाता है। ये तरंगे हमें देखने नहीं देतीं कि हम क्या हैं। झील के पानी में पूर्ण चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब पड़ता है, पर उसकी सतह इतनी आन्दोलित है कि वह प्रतिबिम्ब हमें स्पष्ट रूप से दिखायी नहीं देता। इसे शान्त होने दो। प्रकृति की तरंगें मत उठाने दो। शांत रहो, और तब कुछ समय बाद वह तुम्हें छोड़ देगी। तब हम जान सकेंगे कि हम क्या हैं। ईश्वर वहाँ पहले से है, पर मन बहुत चंचल है, सदा इन्द्रियों के पीछे दौड़ता रहता है। तुम इन्द्रियों को रोकते हो और (फिर भी) बार बार भ्रमित होते हो। अभी, इस क्षण मैं सोचता हूँ कि मैं ठीक हूँ और मैं ईश्वर में ध्यान लगाऊँगा और तब एक मिनट में मेरा मन लंदन पहुँच जाता है। और यदि मैं उसे वहाँ से खींचता हूँ तो वह न्यूयार्क चला जाता है, और मेरे द्वारा वहाँ अतीत में किये गये क्रिया- कलापों के बारे में सोचने लगता है। इन तरंगों को ध्यान की शक्ति से रोकना है। (३.१८०)
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