विवेकानन्द साहित्य >> ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँस्वामी विवेकानन्द
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प्रस्तुत है पुस्तक ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ।
विसम्मोहन
सभी धर्मों ने ध्यान पर जोर दिया है। योगियों का कहना है कि ध्यानस्थ अवस्था मन की उच्चतम संभव अवस्था है। जब मन किसी बाह्य वस्तु का अध्ययन करता है, तब वह उससे अपना तादात्म्य स्थापित कर लेता है और स्वयं लुप्त हो जाता है। प्राचीन भारतीय दार्शनिकों द्वारा दी गयी उपमा का प्रयोग करें तो - मनुष्य की आत्मा स्फटिक के एक खंड के समान है, जो अपने निकट की वस्तु का रंग ग्रहण कर लेता है। आत्मा जिस वस्तु का स्पर्श करती है... उसीका रंग उसे लेना पड़ता है। यही कठिनाई है। वह बंधन बन जाता है। रंग इतना प्रबल है कि स्फटिक अपने को भूल जाता है और उसी रंग से अपना तादात्म्य स्थापित कर लेता है। मान लो कि स्फटिक के निकट एक लाल फूल है और स्फटिक वह लाल रंग ग्रहण कर लेता है तथा अपने को भूल जाता है एवं समझता है कि वह लाल है। हम लोगों ने शरीर का रंग ग्रहण कर लिया है और भूल गये है कि हम क्या हैं। बाद में जो कठिनाइयाँ आती है, वे सब केवल एक निर्जीव शरीरजन्य हैं। हमारे समस्त भय, परेशानियाँ, चिन्ताएँ, कष्ट, भूलें, दुर्बलताएँ, बुराइयाँ केवल एक इस भारी भूल के कारण हैं - कि हम शरीर है।
ध्यान का अभ्यास नियमित रूप से किया जाता है। स्फटिक जान जाता है कि वह क्या है, वह अपने रंग में आ जाता है। अन्य किसी वस्तु की अपेक्षा ध्यान हमें सत्य के अधिक समीप लाता है। (४.१३१)
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