विवेकानन्द साहित्य >> ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँस्वामी विवेकानन्द
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प्रस्तुत है पुस्तक ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ।
यह सब तो लीला है
यह सब कौतुक है... सर्वशक्तिमान ईश्वर लीला करता है। बस... तुम सर्वशक्तिमान ईश्वर लीला कर रहे हो। यदि तुम पार्श्व अभिनय करना चाहते हो और किसी भिक्षुक की भूमिका अदा करना चाहते हो, तो अपने उस चयन के लिए किसी अन्य को दोष नहीं दे सकते। भिक्षुक बनने में तुमको रस मिल रहा है। तुम अपने वास्तविक स्वभाव को जानते हो कि तुम दिव्य हो। तुम ही तो राजा हो और स्वांग रचते हो भिखमंगे का। यह सब खिलवाड़ है। इसे जानो और लीला करो। इसका बस यही मर्म है। तब इसे आचरण में लाओ। सारा जगत् विराट खेल है। सब कुछ अच्छा है, क्योंकि सब लीला है। (९.१४३-१४४)
जब मैं बालक था, तो मुझसे किसीने कहा कि भगवान् सब कुछ देखता है। मैं बिस्तरे पर सोया तो ऊपर निहारने लगा और इस आशा में था कि कमरे की छत खुलेगी। हुआ कुछ नहीं। हमारे अलावा दूसरा कोई हमें नहीं देख रहा है। अपनी आत्मा के अतिरिक्त और कोई प्रभु नहीं। दुःखी न हो ! पश्चात्ताप न करो! जो हो गया, सो हो गया। यदि तुम अपने को जलाओगे तो उसका फल भोगोगे।
समझदार बनो। हम भूल करते हैं, इससे क्या? यह सब तो खिलवाड़ में है। अपने पूर्वकृत पापों पर वे पागल से होकर कराहते हैं, रोते हैं और क्या क्या करते हैं। पश्चात्ताप मत करो! काम कर लेने के बाद उसे ध्यान में मत लाओ। बढ़े चलो! रुको मत। पीछे मुड़कर मत देखो! पीछे देखने से लाभ क्या होगा? (९.१४४)
जो अपने को मुक्त जानता है, वह मुक्त है, जो अपने को बंधन में समझता है, वह बंधन में है। जीवन का अन्त और उद्देश्य क्या है? कुछ नहीं, क्योंकि मैं जानता हूँ कि मैं अनन्त हूँ। यदि तुम भिक्षुक हो, तो तुम्हारे उद्देश्य हो सकते हैं। मेरा कोई उद्देश्य नहीं, कोई चाह नहीं, कोई अभिप्राय नहीं। मैं तुम्हारे देश में आता हूँ, व्याख्यान देता हूँ - केवल कौतुकवश। (९.१४५)
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