विवेकानन्द साहित्य >> ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँस्वामी विवेकानन्द
|
127 पाठक हैं |
प्रस्तुत है पुस्तक ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ।
मेरे मित्र, तुम रोते क्यों हो?
'हे सखे, तुम क्यों रोते हो? तुम्हारे लिये न तो जन्म है न मरण। क्यों रोते हो? तुम्हें रोग-शोक कुछ भी नहीं है, तुम तो अनन्त आकाश के समान हो; उस पर नाना प्रकार के मेघ आते हैं और कुछ देर खेलकर न जाने कहाँ अन्तर्हित हो जाते हैं; पर वह आकाश जैसा पहले नीला था, वैसा ही नीला रह जाता है।' इसी प्रकार के ज्ञान का अभ्यास करना होगा।
हम संसार में पाप-ताप क्यों देखते हैं? किसी मार्ग में एक ठूंठ खड़ा था। एक चोर उधर से आ रहा था, उसने कहा, 'वह पुलिसवाला है।' अपनी प्रेमिका की बाट जोहनेवाले प्रेमी ने समझा कि वह उसकी प्रेमिका है। जिस बच्चे को भूत की कहानियाँ सुनायी गयी थीं वह उसे भूत समझकर डर के मारे चिल्लाने लगा। इस प्रकार भिन्न भिन्न व्यक्तियों ने यद्यपि उसे भिन्न भिन्न रूपों में देखा, तथापि वह एक ठूंठ के अतिरिक्त और कुछ भी न था। हम स्वयं जैसे होते हैं, जगत् को भी वैसा ही देखते है। (२.१९)
संसार की बुराई की बात मन में न लाओ, पर रोओ कि जगत में अब भी तुम बुराई देखने को मजबूर हो, रोओ कि अब भी तुम सर्वत्र पाप देखने को बाध्य हो और यदि तुम जगत् का उपकार करना चाहते हो, तो जगत् पर दोषारोपण करना छोड़ दो। उसे और भी दुर्बल मत करो। आखिर ये सब पाप, दुःख आदि क्या है? ये सब दुर्बलता के ही फल हैं। इस प्रकार की शिक्षा से संसार दिन पर दिन दुर्बल होता जा रहा है। लोग बचपन से ही शिक्षा पाते है कि वे दुर्बल है, पापी हैं। उनको सिखाओ कि वे सब उसी अमृत की सन्तान है - और तो और, जिसके भीतर आत्मा की अभिव्यक्ति क्षीणतम है, उसे भी यही शिक्षा दो। बचपन से ही उनके मस्तिष्क में इस प्रकार के विचार प्रविष्ट हो जायें, जिनसे उनकी यथार्थ सहायता हो सके, जो उनको सबल बना दे, जिनसे उनका कुछ यथार्थ हित हो। (२.१९-२० )
|