संस्मरण >> जालक जालकशिवानी
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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...
पैंतीस
अभी इसी सप्ताह उन्नाव के निकट एक ग्राम में अनेक ग्रामवासियों के पक्षाघात
के प्रसंग ने प्रदेश को आतंकित कर दिया है। उस पक्षाघात के मूल में दूषित जल
था या खेसरी दाल, यह प्रश्न अभी विवादास्पद है।
राज्यपाल महोदय ने निष्क्रिय अफसरों को दंडित करने का भी स्पष्ट आश्वासन दिया। साथ ही ग्रामवासियों की चिकित्सा, रक्तजाँच का भी प्रबन्ध किया गया।
इसी बीच बंगला की पत्रिका 'देश' में एक ऐसे ही विवादास्पद प्रसंग को लेकर आंतर्जातिक ख्यातिलब्ध, प्रसिद्ध वैज्ञानिक भारत सरकार के प्राक्तन प्रतिरक्षा विषयक उपदेष्टा श्री वासंती दुलाल नाग चौधरी से एक साक्षात्कार सम्बन्धी लेख को पढ़कर अनेक नई बातें ज्ञात हुईं। उनकी विवेचना मूलतः सुन्दरवन को लेकर ही आधारित थी। सुन्दरवन की क्रमशः घट रही विलुप्ति के साथ-साथ उन्होंने परिवेश-संरक्षण, परिवेशदूषण को लेकर भी विशद आलोचना की। उनके मतानुसार केवल एक स्तरीय जाँच कमीशन के गठन से ही, यह समस्या नहीं सुलझ सकती। इस गवेषण में पदार्थ-विज्ञानी, रसायनविद्, जीवविज्ञानी से लेकर, आब-हवा-विज्ञानी का भी होना अनिवार्य है।
अनेक भारतीय फसलों के लिए, जैसे ककड़ी पर हमें प्रचुर मात्रा में कीटविनाशक रसायनों का प्रयोग करना पड़ता है, नदी एवं वर्षा के जल के साथ इस कीटनाशक औषधि की धोवन, सुन्दरवन के तट पर भी जमा जाती है। फिर यही जहर मछलियों एवं सब्जियों के खाद्य माध्यम से मनुष्य के शरीर में पहुँचता है। ऐसी जाँच में प्राणी-जटिलता सुलझाने के लिए जुऑलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, एवं उद्भिद् दोष ढूँढ़ने के लिए बोटेनिकल सर्वे ऑफ इंडिया का योगदान आवश्यक है।
डॉ. नाग चौधरी ने इस विषय को लेकर एक महत्त्वपूर्ण बात कही, जो सम्प्रति हमारे प्रदेश के इस नए आतंक को भी कुछ अंश में घटाती है। उन्होंने कहा कि परिवेश-दूषण एक प्राकृतिक घटना है। जब उद्योगों का सर्वथा अभाव था तब भी पृथ्वी समय-समय पर इस परिवेश-दूषण से आतंकित हुई थी। यदि किसी अंचल की भूमि में सीसा, जस्ता, ताँबा या अन्य खनिज लवण पदार्थ पाया जाता है तो जल-प्रवाह उसे इधर-उधर फैला सकता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि जलवायु, उद्भिद् या प्राणीजगत् पर इसका प्रभाव अवश्य पड़ता है, पर यह बात भी उतनी ही सच है कि दूषित परिवेश में कभी-कभी प्रकृति स्वयं सब ठीक-ठाक कर लेती है। इसी से, केवल स्तरीय जाँच के आधार पर मनुष्य किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकता। जैसा जापान के मिनामाटा अंचल में किसी कार्पोरेशन द्वारा फैलाए गए मयूंरिक क्लोराइड ने भयानक आतंक फैला दिया था। वहाँ की मछली खाकर अंचल स्थित ग्रामवासियों के अधिकांश बच्चे, बूढ़े, स्त्रियाँ, पंगु होकर घिसटने लगे थे।
मैंने स्वयं एक बार 'लाइफ' पत्रिका में उनकी तस्वीरें देखी थीं और मानव का मानव द्वारा ही बना दिया गया वह विकृत रूप देखकर जापान के उद्योगों की आश्चर्यजनक उन्नति के लिए मेरी प्रशंसा का उत्स स्वयं ही सूख गया था। जापान, लाख तरक्की करे, यह भी कैसी तरक्की जिसके लिए उसे स्वयं अपने ही देशवासियों को जीवित मुर्दा बनाना पड़े!
किन्तु डॉ. नाग चौधरी के कथनानुसार उसी जापान के एक अन्य अंचल में भी जल में प्रचुर मात्रा में पारा पाया गया। अनुसन्धान करने पर पता लगा कि उस क्षेत्र में, एक भी उद्योग न होने पर भी पारे की उत्स-भूमि थीसमुद्र-स्थित एक अवसन्न ज्वालामुखी। वहाँ भी, लोगों का मुख्य आहार मछली ही है, किन्तु वहाँ अभी तक मछली-भक्षण ने किसी को पंगु नहीं बनाया। पारा तो दोनों ही स्थानों पर एक-सा पाया गया।
ऐसे ही, जर्मनी के एक अंचल में सीसा बिखर गया है। मनुष्य के लिए यह सबसे अधिक घातक है किन्तु वहाँ के निवासी उस दूषित जल को पीने पर भी पूर्ण रूप से स्वस्थ हैं। इसी से, डॉ. नाग चौधरी के मतानुसार, परिवेश में जहाँ एक ओर क्षतिकर सामग्री है, वहीं दूसरी ओर प्रकृति, जीव-जगत् को उसे बिना क्षति उठाए पचाने में भी स्वयं समर्थ बना देती है।
मनुष्य, स्वयं इस क्षतिकर सामग्री को बढ़ा रहा है, यह तथ्य तो हमें स्वीकारना ही होगा। किन्तु प्रश्न उठता है कि प्रकृति किस मात्रा तक अपनी मौलिक पद्धति में इस दोष को स्वयं दूर कर देती है एवं निवासियों में उद्भव सहनशीलता किस मात्रा तक बढ़ सकती है, इस कार्य के लिए विशेषज्ञों द्वारा व्यापक अभियान चलाना होगा। केवल डॉक्टरों को ही जाँच कमेटी का गठन या स्वयं में हमारा आतंक, क्रोध या खीझ इस समस्या को सलझाने में सहायक नहीं हो सकते।
उन्नाव के उस ग्राम का दुर्भाग्य, केवल अफसरों की ही उदासीनता है या उद्योगों द्वारा परिवेश दूषित हुआ है या स्वयं प्रकृति का ही कोप है, इसे जानने के लिए हमें ऐसा ही अभियान चलाना होगा। दंड देने के पूर्व अपराधी के साथ-साथ पुष्ट प्रमाण को भी पकड़ना उतना ही आवश्यक है। अन्धेर नगरी का वह युग, जब बकरी दबानेवाली दीवार को ही पकड़कर अदालत में पेश करने का शाही आदेश दिया जाता था, इस युग में हास्यास्पद लगता है।
डॉ. नाग चौधरी एक अनुभवी रसायनविद्, उद्भट एवं प्रख्यात पदार्थ वैज्ञानिक हैं। उनके मतानुसार हमारे देश के परिवेश-दूषण की समस्या अन्य देशों की तुलना में ऐसी चिन्ताजनक नहीं है, पर इसमें कोई सन्देह नहीं कि भविष्य के लिए हमें सतर्क होना होगा। साथ ही वैज्ञानिकों को अधिक तत्पर एवं जनसाधारण को स्वयं भी सचेतन रहना होगा।
राज्यपाल महोदय ने निष्क्रिय अफसरों को दंडित करने का भी स्पष्ट आश्वासन दिया। साथ ही ग्रामवासियों की चिकित्सा, रक्तजाँच का भी प्रबन्ध किया गया।
इसी बीच बंगला की पत्रिका 'देश' में एक ऐसे ही विवादास्पद प्रसंग को लेकर आंतर्जातिक ख्यातिलब्ध, प्रसिद्ध वैज्ञानिक भारत सरकार के प्राक्तन प्रतिरक्षा विषयक उपदेष्टा श्री वासंती दुलाल नाग चौधरी से एक साक्षात्कार सम्बन्धी लेख को पढ़कर अनेक नई बातें ज्ञात हुईं। उनकी विवेचना मूलतः सुन्दरवन को लेकर ही आधारित थी। सुन्दरवन की क्रमशः घट रही विलुप्ति के साथ-साथ उन्होंने परिवेश-संरक्षण, परिवेशदूषण को लेकर भी विशद आलोचना की। उनके मतानुसार केवल एक स्तरीय जाँच कमीशन के गठन से ही, यह समस्या नहीं सुलझ सकती। इस गवेषण में पदार्थ-विज्ञानी, रसायनविद्, जीवविज्ञानी से लेकर, आब-हवा-विज्ञानी का भी होना अनिवार्य है।
अनेक भारतीय फसलों के लिए, जैसे ककड़ी पर हमें प्रचुर मात्रा में कीटविनाशक रसायनों का प्रयोग करना पड़ता है, नदी एवं वर्षा के जल के साथ इस कीटनाशक औषधि की धोवन, सुन्दरवन के तट पर भी जमा जाती है। फिर यही जहर मछलियों एवं सब्जियों के खाद्य माध्यम से मनुष्य के शरीर में पहुँचता है। ऐसी जाँच में प्राणी-जटिलता सुलझाने के लिए जुऑलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, एवं उद्भिद् दोष ढूँढ़ने के लिए बोटेनिकल सर्वे ऑफ इंडिया का योगदान आवश्यक है।
डॉ. नाग चौधरी ने इस विषय को लेकर एक महत्त्वपूर्ण बात कही, जो सम्प्रति हमारे प्रदेश के इस नए आतंक को भी कुछ अंश में घटाती है। उन्होंने कहा कि परिवेश-दूषण एक प्राकृतिक घटना है। जब उद्योगों का सर्वथा अभाव था तब भी पृथ्वी समय-समय पर इस परिवेश-दूषण से आतंकित हुई थी। यदि किसी अंचल की भूमि में सीसा, जस्ता, ताँबा या अन्य खनिज लवण पदार्थ पाया जाता है तो जल-प्रवाह उसे इधर-उधर फैला सकता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि जलवायु, उद्भिद् या प्राणीजगत् पर इसका प्रभाव अवश्य पड़ता है, पर यह बात भी उतनी ही सच है कि दूषित परिवेश में कभी-कभी प्रकृति स्वयं सब ठीक-ठाक कर लेती है। इसी से, केवल स्तरीय जाँच के आधार पर मनुष्य किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकता। जैसा जापान के मिनामाटा अंचल में किसी कार्पोरेशन द्वारा फैलाए गए मयूंरिक क्लोराइड ने भयानक आतंक फैला दिया था। वहाँ की मछली खाकर अंचल स्थित ग्रामवासियों के अधिकांश बच्चे, बूढ़े, स्त्रियाँ, पंगु होकर घिसटने लगे थे।
मैंने स्वयं एक बार 'लाइफ' पत्रिका में उनकी तस्वीरें देखी थीं और मानव का मानव द्वारा ही बना दिया गया वह विकृत रूप देखकर जापान के उद्योगों की आश्चर्यजनक उन्नति के लिए मेरी प्रशंसा का उत्स स्वयं ही सूख गया था। जापान, लाख तरक्की करे, यह भी कैसी तरक्की जिसके लिए उसे स्वयं अपने ही देशवासियों को जीवित मुर्दा बनाना पड़े!
किन्तु डॉ. नाग चौधरी के कथनानुसार उसी जापान के एक अन्य अंचल में भी जल में प्रचुर मात्रा में पारा पाया गया। अनुसन्धान करने पर पता लगा कि उस क्षेत्र में, एक भी उद्योग न होने पर भी पारे की उत्स-भूमि थीसमुद्र-स्थित एक अवसन्न ज्वालामुखी। वहाँ भी, लोगों का मुख्य आहार मछली ही है, किन्तु वहाँ अभी तक मछली-भक्षण ने किसी को पंगु नहीं बनाया। पारा तो दोनों ही स्थानों पर एक-सा पाया गया।
ऐसे ही, जर्मनी के एक अंचल में सीसा बिखर गया है। मनुष्य के लिए यह सबसे अधिक घातक है किन्तु वहाँ के निवासी उस दूषित जल को पीने पर भी पूर्ण रूप से स्वस्थ हैं। इसी से, डॉ. नाग चौधरी के मतानुसार, परिवेश में जहाँ एक ओर क्षतिकर सामग्री है, वहीं दूसरी ओर प्रकृति, जीव-जगत् को उसे बिना क्षति उठाए पचाने में भी स्वयं समर्थ बना देती है।
मनुष्य, स्वयं इस क्षतिकर सामग्री को बढ़ा रहा है, यह तथ्य तो हमें स्वीकारना ही होगा। किन्तु प्रश्न उठता है कि प्रकृति किस मात्रा तक अपनी मौलिक पद्धति में इस दोष को स्वयं दूर कर देती है एवं निवासियों में उद्भव सहनशीलता किस मात्रा तक बढ़ सकती है, इस कार्य के लिए विशेषज्ञों द्वारा व्यापक अभियान चलाना होगा। केवल डॉक्टरों को ही जाँच कमेटी का गठन या स्वयं में हमारा आतंक, क्रोध या खीझ इस समस्या को सलझाने में सहायक नहीं हो सकते।
उन्नाव के उस ग्राम का दुर्भाग्य, केवल अफसरों की ही उदासीनता है या उद्योगों द्वारा परिवेश दूषित हुआ है या स्वयं प्रकृति का ही कोप है, इसे जानने के लिए हमें ऐसा ही अभियान चलाना होगा। दंड देने के पूर्व अपराधी के साथ-साथ पुष्ट प्रमाण को भी पकड़ना उतना ही आवश्यक है। अन्धेर नगरी का वह युग, जब बकरी दबानेवाली दीवार को ही पकड़कर अदालत में पेश करने का शाही आदेश दिया जाता था, इस युग में हास्यास्पद लगता है।
डॉ. नाग चौधरी एक अनुभवी रसायनविद्, उद्भट एवं प्रख्यात पदार्थ वैज्ञानिक हैं। उनके मतानुसार हमारे देश के परिवेश-दूषण की समस्या अन्य देशों की तुलना में ऐसी चिन्ताजनक नहीं है, पर इसमें कोई सन्देह नहीं कि भविष्य के लिए हमें सतर्क होना होगा। साथ ही वैज्ञानिकों को अधिक तत्पर एवं जनसाधारण को स्वयं भी सचेतन रहना होगा।
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