संस्मरण >> जालक जालकशिवानी
|
1 पाठकों को प्रिय 444 पाठक हैं |
शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...
छत्तीस
गत 30 अक्तूबर को सूचना विभाग ने रवीन्द्रालय में बेगम अख्तर की प्रथम
पुण्यतिथि पर एक संगीत-अनुष्ठान का आयोजन किया था। बेगम को श्रद्धांजलि
अर्पित की थी-तीन कंठस्वरों ने-शीला धर, शान्ति हीरानन्द एवं गिरिजा देवी।
इस अनुष्ठान के साथ ही, मुझे गत वर्ष के एक अनुष्ठान की स्मृति हो आई, जो संगीत की गरिमा में इससे अधिक गरिमामय था। उस द्विदिवसीय आयोजन में एक क्षण भी व्यर्थ नहीं गया था, जहाँ तक मुझे स्मरण है, दूसरे दिन की सभा का समापन हुआ था भोर की भैरवी के मीठे स्वरों से। परिवेशना थी गिरिजा देवी की।
इस बार के आयोजन के आरम्भ में ही एक त्रुटि मुझे खटकी थी। बेगम का जो लौंग प्लेइंग रिकार्ड आरम्भ में ही लगा दिया गया था, वह उनके सर्वश्रेष्ठ परिवेष्टित संगीत का टुकड़ा नहीं था। यद्यपि उस दिव्यकंठ की वेदना की गुनगुनाहट मात्र ही श्रोताओं को झुमा देने में समर्थ है, किन्तु सुदीर्घ अवधि तक बज रहे उस रिकार्ड की वह खनक उस दिन कुछ थकानप्रद-सी लगने लगी थी।
परिमिति-बोध गायक का विशेष गुण होता है। फिर प्रत्येक श्रोता का स्तर एक-सा नहीं होता। मैं देख रही थी कि स्टेज पर माला-विभूषित बेगम के चित्र को साक्षी रख आयोजक एक वही रिकार्ड बजाते चले जा रहे थे और अधीर श्रोता संगीत के परिवेश से दूर छिटक आपस में अभद्र स्वर में बतियाने लगे थे। इसी बीच मुख्य अतिथि का आगमन हुआ, साथ ही दरबारियों का जत्थे का जत्था वेग से आकर प्रथम पंक्ति में धरी कुर्सियों पर सिमट गया। मुख्य अतिथि द्वारा बेगम का परिचय एवं उनके संगीत, उनकी ख्याति के उल्लेख की भाषा, आयोजन के अनुरूप थी। इसके पश्चात् दिल्ली की शीला धर ने दो गजलें प्रस्तुत की। दोनों ही गालिब की प्रसिद्ध गजलें थीं, 'अगर ये रंग रहेगा तो जिन्दगी कम है...' और 'हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पै दम निकले...'। शीला धर के गायन में यद्यपि द्युति एवं स्वास्थ्य दोनों का ही प्रकाश था, कथावस्तु का आवेग, गायिका के मांसल कंठ में स्पष्ट रूप से अनावृत हुआ था, फिर भी मुझे बराबर लग रहा था कि इस कंठस्वर के सम्मुख से यदि माइक हटा लिया जाता तो शायद स्वर आरोह में इतना तीखा नहीं लगता।
यदि मैं इस अनुष्ठान की आयोजना करती तो इस कंठस्वर की परिवेशना कार्यक्रम के मध्य में करती, आरम्भ में नहीं। इस स्वर में व्याकरण के नेपथ्य में छिपी प्रच्छन्नता भले ही स्पष्ट हुई हो, वेदना का स्वर मुखर नहीं हो पाया था। फिर आई थी बेगम की सुयोग्य शिष्या शांति हीरानन्द। शांति हीरानंद ने अपने गुरु के गंडे को कसकर बाँधा है, इसी से न कंठ कभी स्तिमित होता है न जिहाआडष्ट। स्वच्छन्द चहक रही बुलबुल के से इस अद्भुत कंठ में बेगम की गायकी रह-रह श्रोताओं को विह्वल कर रही थी। शांति ने गुरु की एक-एक गमक को बड़े यत्न से अपने कंठ में साधा है। विशेषकर उनकी परिवेशित दूसरी गजल में 'कब तक दिल की खैर मनाएँ, कब तक याद न आओगे।' तबले पर मुन्ने खाँ की दक्ष अँगुलियों की परिचित थाप, जो अतीत में बेगम के कंठ की गायकी से कदम से कदम मिलाकर श्रोताओं को झुमाती थी, उस दिन भी वैसी ही मिठास से उन्हें झुमा रही थी। शान्ति ने फैज की इस गजल को प्रगाढ़ अनुभूति के स्पर्श से निःसन्देह रसोज्ज्वल कर दिया था। उससे श्रोताओं ने बेगम द्वारा अहमदाबाद की संगीत सभा में गाई गई उस अन्तिम गजल को गाने का अनुरोध किया, जिसकी मधुर गूंज प्रायः ही आकाशवाणी के औदार्य से श्रोताओं को मिलती रहती है, किन्तु शान्ति हीरानंद ने अपनी असमर्थता प्रकट की। स्पष्ट था कि ऐसे प्रदर्शन को वह अपनी धृष्टता ही समझ रही थी।
आयोजन का समापन हुआ था गिरिजा देवी के गायन से। वह सरलस्निग्ध व्यक्तित्व जब प्रायः एक वर्ष के पश्चात् सनम्र अभिवादन के साथ दर्शकों के सम्मुख आया तो एक धक्का लगा। गत वर्ष इसी आयोजन में उनका कैसा रूप देखा था! ललाट पर चमकती बड़ी-सी बिन्दी, अधरों पर मगही पान की लालिमा, हाथ-भर चूड़ियाँ और कानों में जगमगाते हीरे जिनकी धुति भी बीच-बीच में उनके कंठ के द्युतिमान हीरे की झलमलाहट के सम्मुख फीकी पड़ जाती थी। एक वर्ष में ही वैधव्य ने उनके सारे हीरे उतार दिए, भव्य चेहरा श्रीहीन बन गया किन्तु विधाता-प्रदत्त उनके कंठ के हीरे को क्रूर काल भी नहीं छीन सका।
उनके पति के देहान्त के पश्चात् उनका एक मार्मिक पत्र मुझे मिला था। आज उसकी कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रही हूँ, "बहन, अश्रु के सागर में नेत्र की ज्योति अन्धकार में विलीन हो गई है। मेरे हाथ की चूड़ियाँ, भर माँग सिन्दूर, लाल बिन्दी अब तुम कभी नहीं देख पाओगी। मेरा ताल शून्य पर पड़ने लगा, स्वर बिना शब्द के हो गए..." किन्तु, उस दिन जब उन्हें सुना तो लगा उन्हें बाँहों में भरकर कहूँ, 'बहन, तुम्हारा ताल कभी शून्य पर नहीं पड़ सकता। तुम्हारे स्वर कभी अनाथ नहीं हो सकते, स्वयं ब्रह्मा के नाभिकुंड के अमृत के अलभ्य छींटे तुम्हारे स्वर के कण-कण में अन्त तक रिसे-बसे रहेंगे और अमृत की वही फहार तुम्हारे श्रोताओं को सदा रससिक्त करती रहेंगी...।' मिश्र पीलू से आरम्भ कर जब श्रोताओं ने उनसे चैती दादरा की फरमाइश की तो वह गम्भीर हो गईं। इसके पूर्व वह 'सोच-समझ नादान' परिवेशित कर चुकी थीं, बेगम ने भी इसी ठुमरी को कई बार गाया है। श्रोताओं के आग्रह पर ही बड़ी अनिच्छा से गिरिजा देवी इसे सुनाने को प्रस्तुत हुई थीं, किन्तु अब वह किसी भी फरमाइश को पूरी करने के मूड में नहीं थीं। 'दादरा चैती अन्त में गाऊँगी, पहले सुनाऊँगी एक मीरा का भजन।' सारंगी पर श्री बैजनाथ मिश्र की वयः भारनमित मूर्ति और तबले पर वयस का विरोधाभास साकार कर रहे तरुण हँसमुख तपन सिन्हा। क्या अपूर्व संगम था! निराभरणा गिरिजा देवी ने वेदना-विधुर चेहरे, सफेद साड़ी, अश्रुसिक्त कंठ से स्वयं उद्घोषणा की, "मैं एक भजन में मीरा की अनुनयविनय, हठ-दृढ़ संकल्प सबकुछ मुखर करने की चेष्टा करूँगी..."
"राणा मैं वैरागिन हूँगी..." एक पल को लगा मेवाड़ के दबंग राणा के सम्मुख वैरागिनी मीरा अपनी भव्य ग्रीवा सतर कर गा रही है, 'मैं वैरागिन हूँगी...' न जाने कब तक वह गाती रहीं और कब तक मन्त्रमुग्ध श्रोता सम्मोहित नाग से झूमते रहे। फिर सहसा उन्होंने हाथ की घड़ी देखी, विश्वनाथ एक्सप्रेस से ही उन्हें पटना जाना था। समय हो चुका था, ध्वनि के साथ-साथ जातीय जीवन का महत्त्व, वीरत्व एवं आत्मत्याग कैसे श्रोताओं को अपने जादू से बाँध सकता है, इसका प्रत्यक्ष अनुभव हुआ। भावाविष्ट विह्वल श्रोता जब उठे तो अनेक कानों में यही गूंज, गूंज रही थी, “राणा मैं वैरागिन हूँगी...।"
इस अनुष्ठान के साथ ही, मुझे गत वर्ष के एक अनुष्ठान की स्मृति हो आई, जो संगीत की गरिमा में इससे अधिक गरिमामय था। उस द्विदिवसीय आयोजन में एक क्षण भी व्यर्थ नहीं गया था, जहाँ तक मुझे स्मरण है, दूसरे दिन की सभा का समापन हुआ था भोर की भैरवी के मीठे स्वरों से। परिवेशना थी गिरिजा देवी की।
इस बार के आयोजन के आरम्भ में ही एक त्रुटि मुझे खटकी थी। बेगम का जो लौंग प्लेइंग रिकार्ड आरम्भ में ही लगा दिया गया था, वह उनके सर्वश्रेष्ठ परिवेष्टित संगीत का टुकड़ा नहीं था। यद्यपि उस दिव्यकंठ की वेदना की गुनगुनाहट मात्र ही श्रोताओं को झुमा देने में समर्थ है, किन्तु सुदीर्घ अवधि तक बज रहे उस रिकार्ड की वह खनक उस दिन कुछ थकानप्रद-सी लगने लगी थी।
परिमिति-बोध गायक का विशेष गुण होता है। फिर प्रत्येक श्रोता का स्तर एक-सा नहीं होता। मैं देख रही थी कि स्टेज पर माला-विभूषित बेगम के चित्र को साक्षी रख आयोजक एक वही रिकार्ड बजाते चले जा रहे थे और अधीर श्रोता संगीत के परिवेश से दूर छिटक आपस में अभद्र स्वर में बतियाने लगे थे। इसी बीच मुख्य अतिथि का आगमन हुआ, साथ ही दरबारियों का जत्थे का जत्था वेग से आकर प्रथम पंक्ति में धरी कुर्सियों पर सिमट गया। मुख्य अतिथि द्वारा बेगम का परिचय एवं उनके संगीत, उनकी ख्याति के उल्लेख की भाषा, आयोजन के अनुरूप थी। इसके पश्चात् दिल्ली की शीला धर ने दो गजलें प्रस्तुत की। दोनों ही गालिब की प्रसिद्ध गजलें थीं, 'अगर ये रंग रहेगा तो जिन्दगी कम है...' और 'हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पै दम निकले...'। शीला धर के गायन में यद्यपि द्युति एवं स्वास्थ्य दोनों का ही प्रकाश था, कथावस्तु का आवेग, गायिका के मांसल कंठ में स्पष्ट रूप से अनावृत हुआ था, फिर भी मुझे बराबर लग रहा था कि इस कंठस्वर के सम्मुख से यदि माइक हटा लिया जाता तो शायद स्वर आरोह में इतना तीखा नहीं लगता।
यदि मैं इस अनुष्ठान की आयोजना करती तो इस कंठस्वर की परिवेशना कार्यक्रम के मध्य में करती, आरम्भ में नहीं। इस स्वर में व्याकरण के नेपथ्य में छिपी प्रच्छन्नता भले ही स्पष्ट हुई हो, वेदना का स्वर मुखर नहीं हो पाया था। फिर आई थी बेगम की सुयोग्य शिष्या शांति हीरानन्द। शांति हीरानंद ने अपने गुरु के गंडे को कसकर बाँधा है, इसी से न कंठ कभी स्तिमित होता है न जिहाआडष्ट। स्वच्छन्द चहक रही बुलबुल के से इस अद्भुत कंठ में बेगम की गायकी रह-रह श्रोताओं को विह्वल कर रही थी। शांति ने गुरु की एक-एक गमक को बड़े यत्न से अपने कंठ में साधा है। विशेषकर उनकी परिवेशित दूसरी गजल में 'कब तक दिल की खैर मनाएँ, कब तक याद न आओगे।' तबले पर मुन्ने खाँ की दक्ष अँगुलियों की परिचित थाप, जो अतीत में बेगम के कंठ की गायकी से कदम से कदम मिलाकर श्रोताओं को झुमाती थी, उस दिन भी वैसी ही मिठास से उन्हें झुमा रही थी। शान्ति ने फैज की इस गजल को प्रगाढ़ अनुभूति के स्पर्श से निःसन्देह रसोज्ज्वल कर दिया था। उससे श्रोताओं ने बेगम द्वारा अहमदाबाद की संगीत सभा में गाई गई उस अन्तिम गजल को गाने का अनुरोध किया, जिसकी मधुर गूंज प्रायः ही आकाशवाणी के औदार्य से श्रोताओं को मिलती रहती है, किन्तु शान्ति हीरानंद ने अपनी असमर्थता प्रकट की। स्पष्ट था कि ऐसे प्रदर्शन को वह अपनी धृष्टता ही समझ रही थी।
आयोजन का समापन हुआ था गिरिजा देवी के गायन से। वह सरलस्निग्ध व्यक्तित्व जब प्रायः एक वर्ष के पश्चात् सनम्र अभिवादन के साथ दर्शकों के सम्मुख आया तो एक धक्का लगा। गत वर्ष इसी आयोजन में उनका कैसा रूप देखा था! ललाट पर चमकती बड़ी-सी बिन्दी, अधरों पर मगही पान की लालिमा, हाथ-भर चूड़ियाँ और कानों में जगमगाते हीरे जिनकी धुति भी बीच-बीच में उनके कंठ के द्युतिमान हीरे की झलमलाहट के सम्मुख फीकी पड़ जाती थी। एक वर्ष में ही वैधव्य ने उनके सारे हीरे उतार दिए, भव्य चेहरा श्रीहीन बन गया किन्तु विधाता-प्रदत्त उनके कंठ के हीरे को क्रूर काल भी नहीं छीन सका।
उनके पति के देहान्त के पश्चात् उनका एक मार्मिक पत्र मुझे मिला था। आज उसकी कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रही हूँ, "बहन, अश्रु के सागर में नेत्र की ज्योति अन्धकार में विलीन हो गई है। मेरे हाथ की चूड़ियाँ, भर माँग सिन्दूर, लाल बिन्दी अब तुम कभी नहीं देख पाओगी। मेरा ताल शून्य पर पड़ने लगा, स्वर बिना शब्द के हो गए..." किन्तु, उस दिन जब उन्हें सुना तो लगा उन्हें बाँहों में भरकर कहूँ, 'बहन, तुम्हारा ताल कभी शून्य पर नहीं पड़ सकता। तुम्हारे स्वर कभी अनाथ नहीं हो सकते, स्वयं ब्रह्मा के नाभिकुंड के अमृत के अलभ्य छींटे तुम्हारे स्वर के कण-कण में अन्त तक रिसे-बसे रहेंगे और अमृत की वही फहार तुम्हारे श्रोताओं को सदा रससिक्त करती रहेंगी...।' मिश्र पीलू से आरम्भ कर जब श्रोताओं ने उनसे चैती दादरा की फरमाइश की तो वह गम्भीर हो गईं। इसके पूर्व वह 'सोच-समझ नादान' परिवेशित कर चुकी थीं, बेगम ने भी इसी ठुमरी को कई बार गाया है। श्रोताओं के आग्रह पर ही बड़ी अनिच्छा से गिरिजा देवी इसे सुनाने को प्रस्तुत हुई थीं, किन्तु अब वह किसी भी फरमाइश को पूरी करने के मूड में नहीं थीं। 'दादरा चैती अन्त में गाऊँगी, पहले सुनाऊँगी एक मीरा का भजन।' सारंगी पर श्री बैजनाथ मिश्र की वयः भारनमित मूर्ति और तबले पर वयस का विरोधाभास साकार कर रहे तरुण हँसमुख तपन सिन्हा। क्या अपूर्व संगम था! निराभरणा गिरिजा देवी ने वेदना-विधुर चेहरे, सफेद साड़ी, अश्रुसिक्त कंठ से स्वयं उद्घोषणा की, "मैं एक भजन में मीरा की अनुनयविनय, हठ-दृढ़ संकल्प सबकुछ मुखर करने की चेष्टा करूँगी..."
"राणा मैं वैरागिन हूँगी..." एक पल को लगा मेवाड़ के दबंग राणा के सम्मुख वैरागिनी मीरा अपनी भव्य ग्रीवा सतर कर गा रही है, 'मैं वैरागिन हूँगी...' न जाने कब तक वह गाती रहीं और कब तक मन्त्रमुग्ध श्रोता सम्मोहित नाग से झूमते रहे। फिर सहसा उन्होंने हाथ की घड़ी देखी, विश्वनाथ एक्सप्रेस से ही उन्हें पटना जाना था। समय हो चुका था, ध्वनि के साथ-साथ जातीय जीवन का महत्त्व, वीरत्व एवं आत्मत्याग कैसे श्रोताओं को अपने जादू से बाँध सकता है, इसका प्रत्यक्ष अनुभव हुआ। भावाविष्ट विह्वल श्रोता जब उठे तो अनेक कानों में यही गूंज, गूंज रही थी, “राणा मैं वैरागिन हूँगी...।"
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book