संस्मरण >> जालक जालकशिवानी
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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...
सैंतीस
पिछले कुछ वर्षों से, भारत के विभिन्न दूरदर्शन केन्द्र, कटु आलोचना से शरबिद्ध होते रहे हैं। हमारे अभावग्रस्त देश में उनके संचालकों को कितनी ही छोटी-मोटी बाधाओं का सामना क्यों न करना पड़ा हो, एक औसत दर्शक अपने अवकाश के क्षणों में जीवन-संघर्ष की तीव्रता की खाज मिटाने ही दूरदर्शन से आकृष्ट है।
धीरे-धीरे भले ही सांस्कृतिक प्रक्रिया की सद्भावनाएँ उत्पन्न हों, इसमें कोई सन्देह नहीं कि संस्कृति आज भी मनोरंजन की गतिविधियों से अभिन्न रूप से जुड़ी हुई है।
काव्य, साहित्य, चित्रकला, संगीत, सभी रचनात्मक अभिव्यक्तियाँ एक ओर समाज के आदर्शों का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करती हैं, वहीं दूसरी ओर सामुदायिक मनोरंजन का भी परिष्कृत एवं समृद्ध साधन होती है। हमारे दूरदर्शन केन्द्र इस कलात्मक अभिव्यक्ति द्वारा कैसे वांछनीय और सुसंस्कृत अनुरंजन कर सकते हैं, यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है।
संस्कृति के सामूहिक-सामुदायिक पक्ष की दृष्टि से दूरदर्शन एक सशक्त साधन है-हमारे दूरदर्शन केन्द्रों का प्रमुख दौर्बल्य शायद यह भी है कि वे जो सामग्री प्रस्तुत करते हैं, वह सर्वोन्नत-सर्वोत्कृष्ट व्यक्ति के अनुरंजन के लिए ही रहती है। वह अमूर्त दर्शक, जो दर्शक वर्ग में सबसे कम विकसित है, उसमें ढूँढ़ने पर भी आनन्द की क्षीण रेखा भी नहीं पाता।
जब तक हमारे संयोजक एक औसत दर्शक वर्ग की आत्मा को, उसके मर्म को छूने में असमर्थ रहेंगे दीर्घकालीन ख्याति अर्जित कर पाना उनके लिए सम्भव नहीं हो पाएगा।
आज यह हमारा कुछ स्वभाव ही बन गया है कि ऊपरी टीमटाम और क्षणिक महत्त्व की समस्याओं में उलझ हम समाज की गहरी संवेदनाओं, अनुभूतियों को भूल उसका सतही मनोरंजन करना चाहते हैं। आकाशवाणी से विपरीत, दूरदर्शन अपनी रचना-प्रक्रिया और निष्पत्ति, दोनों ही में दर्शक वर्ग से अविभाज्य रूप से जुड़ा है। इसी से यह आवश्यक है कि समय-समय पर, हमें दर्शकों की प्रतिक्रिया भी ज्ञात होती रहे।
इधर प्रायः ही सम्पादक के नाम पत्रों में, एक बात बार-बार दर्शकों द्वारा दोहराई गई है, इस पर हमें विशेष ध्यान देना चाहिए।
लखनऊ आरम्भ से ही अपनी विशिष्ट संस्कृति के लिए प्रसिद्ध रहा है। उस संस्कृति की दो मुख्य विशेषताएँ हैं--उसकी नजाकत और नफासत। दुर्भाग्य से हमें दूरदर्शन पर इन दो विशेषताओं में से एक भी देखने को नहीं मिलती।
अभी-अभी मेरी एक परिचिता ने फोन किया, "कल ही पहली बार लखनऊ टेलीविजन देखा। आप तो वहाँ जाती रहती हैं, उनके कार्यक्रमों में भाग भी लेती रहती हैं, उनसे कहिए भगवान के लिए कुछ ताजे खूबसूरत चेहरे तो जुटाएँ।"
लखनऊ वाजिद अली शाह की 'इंदर सभा' का अखाड़ा रह चुका है। वहाँ की जोगिनी बेगमें अपने जोगिया लिबास से भी वैराग्य को लाठी लेकर दूर भगा देती थीं। आश्चर्य होता है कि आज उसी सौन्दर्यगढ़ी में, जीवन-संघर्ष से ऊबी-थकी, दूरदर्शन-दर्शकों की आँखें सुन्दर चेहरे और सुगम देहयष्टि देखने को तरस रही हैं!
उद्घोषक हो या उद्घोषिका हो, या दूरदर्शन से वाद-विवाद प्रस्तुत कर रही कोई संयोजिका, जब तक उनकी वाणी सरल, स्पष्ट, सहज न हो, चेहरा ऐसा सर्वथा निर्विशिष्ट न हो कि कोई छाप ही मन पर न पड़े, दूसरी ओर प्रस्तुतीकरण भी मनोरंजक एवं उलझावरहित हो, ऐसा कि समझने में तनिक भी कठिनाई न हो, तब तक एक औसत दर्शक कभी सन्तुष्ट नहीं हो सकता। यह तब ही सम्भव है. जब ऐसे पदों की नियक्ति के पर्व निर्णायक अपने चयन पर अडिग स्थिरता से अड़े रहें। प्रत्येक परीक्षार्थी के व्यक्तित्व को उसकी शिक्षा से अधिक महत्त्व दिया जाना अभीष्ट है।
व्यक्तित्व से मेरा अभिप्राय केवल रंग या चेहरे की बनावट से ही नहीं है, उसकी गति में छन्द हो, जैसा कहा भी गया है कि वह भी क्या वनिता और वह भी क्या कविता जिसकी गति में छन्द ही न हो।
स्क्रीन टेस्ट लेने में परीक्षार्थियों के मुँह के मुँहासे या किसी तरुणी के अधरों की अस्वाभाविक मूंछों की रेखा भी निर्णायकों की दृष्टि से बचने न पाए। सर्वोपरि कठिन परीक्षा को रौंदता ऊँची सिफारिश के उड़नखटोले पर सवार कोई सर्वथा अनाकर्षक चेहरा सफलता का सेहरा जबरन बँधवाकर बेहयायी से दूरदर्शन पट पर न मुस्कराने पाए। क्योंकि ये ही वे चेहरे हैं, जो धुतिमान तारों के बीच नकली सैटेलाइट की भौंडी चमक से, समृद्ध गगनांग की महिमा को भी म्लान कर देते हैं।
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