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गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट

अमृत के घूँट

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :185
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5984
आईएसबीएन :81-293-0130-X

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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....

ज्ञान के नेत्र

गोस्वामी तुलसीदासजी अपनी पत्नी से बड़ा प्रेम करते थे। दिनभर उससे वार्तालाप और साहचर्य करनेपर भी उनकी उस नारीके प्रति बड़ी आसक्ति थी। नारी-सुखके अतिरिक्त उन्हें अन्य किसी सुखकी इच्छा न थी। वे शरीरको सुख भोगने का ही प्रधान साधन मानते थे। वासना तथा इन्द्रियों के माया-जालने उन्हें बाँध रखा था। जितना ही वे इन्द्रिय-सुखके इस मार्गपर बढ़ते गये, उतनी ही उन्हें इसकी आवश्यकता अधिकाधिक प्रतीत होती गयी। आसक्ति उनकी प्रधान संगिनी थी।

एक दिन उसी नारी ने उनके ज्ञानके नेत्र खोल दिये। उसने कहा-'मेरे इस हाड़-मासके नश्वर शरीरके प्रति जो मोह आपको है, यदि वही कहीं ईश्वरके प्रति होता तो आपकी मुक्ति हो जाती।'

तुलसीदास देरतक उपर्युक्त कथनको सोचते रहे। चिन्तन करते रहे। चिन्तन करते-करते वे अन्तमें इस परिणामपर पहुँचे कि वास्तवमें नारीका कथन सत्य है। आसक्तिसे बढ़कर संसारमें कोई दूसरा दुःख नहीं है। इन्द्रियोंके विषयोंमें फँसे रहनेसे मनुष्य दुःखी रहता है।

उनके ज्ञानके नेत्र खुल गये। अब दूसरा ही दृश्य था। उन्होंने देखा, संसार भोगोंकी ओर तीव्रतासे दौड़ रहा है। तृष्णाकी पीड़ा उनके दुःखोंका बड़ा भारी कारण है। वासना मनुष्यको पागल बना रही है। मनुष्य मनसे ही संसारसे बँधता है।

वे संसारसे विरक्त हो गये। नारीके प्रति उनका प्रेम अपने आराध्य रामके प्रति मुड़ गया। अब वे वासना-तृप्तिके पीछे न भाग रामकी लीलाएँ कवितामें गाने लगे। उन्होंने भक्ति-रसकी अजस्त्र धारा संसारमें प्रवाहित की और शान्तिका सुधा-संदेश दिया।

भक्त सूरदासका भी कुछ ऐसा ही अनुभव रहा। वे भी रमणीके अनुरागमें फँसे रहे। नारी सुन्दर थी, अतीव सुन्दर और आकर्षक। उससे तिरस्कृत और अपमानित होकर उन्हें प्रतीत हुआ कि संसारके भोगोंमें वास्तवमें स्थायी सुख नहीं, सुखाभास है। मनुष्य उन्हींके प्रति आसक्त होकर इधर-उधर भागता है। इन्द्रियाँ उसे मायाजालमें डालती हैं। सूरको अपने प्रति किये गये अपमानके प्रति बड़ी आत्मग्लानि हुई। उन्होंने उस नारीसे तो बेलके तीखे काँटे लानेको कहा। जब वे काँटे आ गये तो शरीरके नेत्रोंमें ठूँस दिये। सूरके पार्थिव नेत्र बंद हो गये। पर इस तिरस्कारसे ज्ञानके नेत्र खुल गये। उनका अनुभव था ''तैः (इन्द्रियैः) एव नियतैः सुखी'' इन्द्रियोंको अपने वशमें रखनेसे ही मानव सुखी हो सकता है।

भक्त मीराँबाईके ज्ञानके नेत्र इतनी जल्दी खुले थे कि उन्हें अपने विवाह तथा दाम्पत्य जीवन के प्रति कुछ भी मोह न हुआ। उनके सम्मुख नाना प्रकारके प्रलोभन और भयंकर यातनाएँ आयीं, किंतु वे सभी को ज्ञान के नेत्रों से निरखती रहीं। सांसारिकता के असत्य व्यवहारको त्यागकर उन्होंने भक्तिका वह मार्ग अपनाया जो शक्ति देनेवाला था। उन्हें ज्ञानके नेत्रोंसे यह दिखायी दिया कि कुविचार और कुकर्म ही दुःख और अतृप्तिका मूल है।

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    अनुक्रम

  1. निवेदन
  2. आपकी विचारधारा की सही दिशा यह है
  3. हित-प्रेरक संकल्प
  4. सुख और स्वास्थ के लिये धन अनिवार्य नहीं है
  5. रुपये से क्या मिलता है और क्या नहीं
  6. चिन्ता एक मूर्खतापूर्वक आदत
  7. जीवन का यह सूनापन!
  8. नये ढंग से जीवन व्यतीत कीजिये
  9. अवकाश-प्राप्त जीवन भी दिलचस्प बन सकता है
  10. जीवन मृदु कैसे बने?
  11. मानव-हृदय में सत्-असत् का यह अनवरत युद्ध
  12. अपने विवेकको जागरूक रखिये
  13. कौन-सा मार्ग ग्रहण करें?
  14. बेईमानी एक मूर्खता है
  15. डायरी लिखने से दोष दूर होते हैं
  16. भगवदर्पण करें
  17. प्रायश्चित्त कैसे करें?
  18. हिंदू गृहस्थ के लिये पाँच महायज्ञ
  19. मनुष्यत्व को जीवित रखनेका उपाय-अर्थशौच
  20. पाठ का दैवी प्रभाव
  21. भूल को स्वीकार करने से पाप-नाश
  22. दूसरों की भूलें देखने की प्रवृत्ति
  23. एक मानसिक व्यथा-निराकरण के उपाय
  24. सुख किसमें है?
  25. कामभाव का कल्याणकारी प्रकाश
  26. समस्त उलझनों का एक हल
  27. असीम शक्तियोंकी प्रतीक हमारी ये देवमूर्तियाँ
  28. हिंदू-देवताओंके विचित्र वाहन, देश और चरित्र
  29. भोजनकी सात्त्विकता से मनकी पवित्रता आती है!
  30. भोजन का आध्यात्मिक उद्देश्य
  31. सात्त्विक आहार क्या है?
  32. मन को विकृत करनेवाला राजसी आहार क्या है?
  33. तामसी आहार क्या है?
  34. स्थायी सुख की प्राप्ति
  35. मध्यवर्ग सुख से दूर
  36. इन वस्तुओं में केवल सुखाभास है
  37. जीवन का स्थायी सुख
  38. आन्तरिक सुख
  39. सन्तोषामृत पिया करें
  40. प्राप्त का आदर करना सीखिये
  41. ज्ञान के नेत्र
  42. शान्ति की गोद में
  43. शान्ति आन्तरिक है
  44. सबसे बड़ा पुण्य-परमार्थ
  45. आत्मनिर्माण कैसे हो?
  46. परमार्थ के पथपर
  47. सदुपदेशों को ध्यानपूर्वक सुनिये
  48. गुप्त सामर्थ्य
  49. आनन्द प्राप्त करनेके अचूक उपाय
  50. अपने दिव्य सामर्थ्यों को विकसित कीजिये
  51. पाप से छूटने के उपाय
  52. पापसे कैसे बचें?
  53. पापों के प्रतीकार के लिये झींके नहीं, सत्कर्म करे!
  54. जीवन का सर्वोपरि लाभ
  55. वैराग्यपूर्ण स्थिति
  56. अपने-आपको आत्मा मानिये
  57. ईश्वरत्व बोलता है
  58. सुखद भविष्य में विश्वास करें
  59. मृत्यु का सौन्दर्य

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