गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट अमृत के घूँटरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....
ज्ञान के नेत्र
गोस्वामी तुलसीदासजी अपनी पत्नी से बड़ा प्रेम करते थे। दिनभर उससे वार्तालाप और साहचर्य करनेपर भी उनकी उस नारीके प्रति बड़ी आसक्ति थी। नारी-सुखके अतिरिक्त उन्हें अन्य किसी सुखकी इच्छा न थी। वे शरीरको सुख भोगने का ही प्रधान साधन मानते थे। वासना तथा इन्द्रियों के माया-जालने उन्हें बाँध रखा था। जितना ही वे इन्द्रिय-सुखके इस मार्गपर बढ़ते गये, उतनी ही उन्हें इसकी आवश्यकता अधिकाधिक प्रतीत होती गयी। आसक्ति उनकी प्रधान संगिनी थी।
एक दिन उसी नारी ने उनके ज्ञानके नेत्र खोल दिये। उसने कहा-'मेरे इस हाड़-मासके नश्वर शरीरके प्रति जो मोह आपको है, यदि वही कहीं ईश्वरके प्रति होता तो आपकी मुक्ति हो जाती।'
तुलसीदास देरतक उपर्युक्त कथनको सोचते रहे। चिन्तन करते रहे। चिन्तन करते-करते वे अन्तमें इस परिणामपर पहुँचे कि वास्तवमें नारीका कथन सत्य है। आसक्तिसे बढ़कर संसारमें कोई दूसरा दुःख नहीं है। इन्द्रियोंके विषयोंमें फँसे रहनेसे मनुष्य दुःखी रहता है।
उनके ज्ञानके नेत्र खुल गये। अब दूसरा ही दृश्य था। उन्होंने देखा, संसार भोगोंकी ओर तीव्रतासे दौड़ रहा है। तृष्णाकी पीड़ा उनके दुःखोंका बड़ा भारी कारण है। वासना मनुष्यको पागल बना रही है। मनुष्य मनसे ही संसारसे बँधता है।
वे संसारसे विरक्त हो गये। नारीके प्रति उनका प्रेम अपने आराध्य रामके प्रति मुड़ गया। अब वे वासना-तृप्तिके पीछे न भाग रामकी लीलाएँ कवितामें गाने लगे। उन्होंने भक्ति-रसकी अजस्त्र धारा संसारमें प्रवाहित की और शान्तिका सुधा-संदेश दिया।
भक्त सूरदासका भी कुछ ऐसा ही अनुभव रहा। वे भी रमणीके अनुरागमें फँसे रहे। नारी सुन्दर थी, अतीव सुन्दर और आकर्षक। उससे तिरस्कृत और अपमानित होकर उन्हें प्रतीत हुआ कि संसारके भोगोंमें वास्तवमें स्थायी सुख नहीं, सुखाभास है। मनुष्य उन्हींके प्रति आसक्त होकर इधर-उधर भागता है। इन्द्रियाँ उसे मायाजालमें डालती हैं। सूरको अपने प्रति किये गये अपमानके प्रति बड़ी आत्मग्लानि हुई। उन्होंने उस नारीसे तो बेलके तीखे काँटे लानेको कहा। जब वे काँटे आ गये तो शरीरके नेत्रोंमें ठूँस दिये। सूरके पार्थिव नेत्र बंद हो गये। पर इस तिरस्कारसे ज्ञानके नेत्र खुल गये। उनका अनुभव था ''तैः (इन्द्रियैः) एव नियतैः सुखी'' इन्द्रियोंको अपने वशमें रखनेसे ही मानव सुखी हो सकता है।
भक्त मीराँबाईके ज्ञानके नेत्र इतनी जल्दी खुले थे कि उन्हें अपने विवाह तथा दाम्पत्य जीवन के प्रति कुछ भी मोह न हुआ। उनके सम्मुख नाना प्रकारके प्रलोभन और भयंकर यातनाएँ आयीं, किंतु वे सभी को ज्ञान के नेत्रों से निरखती रहीं। सांसारिकता के असत्य व्यवहारको त्यागकर उन्होंने भक्तिका वह मार्ग अपनाया जो शक्ति देनेवाला था। उन्हें ज्ञानके नेत्रोंसे यह दिखायी दिया कि कुविचार और कुकर्म ही दुःख और अतृप्तिका मूल है।
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