गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट अमृत के घूँटरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....
मानसिक पापोंका परित्याग करो। मनकी जमी हुई वासना ही दुष्कर्म कराती है। पापका प्रधान कारण आत्मज्ञानका अभाव ही है। हम प्रायः मोह और आलस्यकी निद्रामें पड़े रहते हैं। आलस्यमें पड़े हुए हमें सुख मिलता तो दिखायी देता है, परंतु उसका फल हमेशा दुःख होता है। हमें अपनी कमजोरियोंका ज्ञान नहीं होता। जो आदमी गलती करता है, उस अल्पज्ञको यह ज्ञात नहीं होता कि वह गलत राहपर है। अन्धकार-ही-अन्धकारमें वह न जाने कहाँ-से-कहाँ पहुँच जाता है। अन्तमें किसी कठोर भावशिलापर टकराकर उसे अपनी गलती या दुर्बलता का ज्ञान होता है। उसके ज्ञान-चक्षु एकाएक खुल जाते हैं। यहींसे वास्तविक आत्मिक उन्नतिका सुप्रभात प्रारम्भ होता है।
ज्ञानके नेत्र हमें अपनी दुर्बलतासे परिचित कराने आते हैं। जबतक इन्द्रियोंमें सुख दीखता है, तबतक आँखोंपर पर्दा पड़ा हुआ मानना चाहिये।
जो अपनी दुर्बलतासे परिचित हो जाता है, उसके लिये वह सच्चा पश्चात्ताप कर उसे दूर करनेकी इच्छा और सतत उद्योग प्रारम्भ करता है। उसकी उन्नति का आधा काम तो बन गया मानना चाहिये।
दुर्बलता ही पापका मूल है। इसका कारण अज्ञान है। जब ज्ञानके नेत्र खुलते हैं, तब मनुष्यको अपनी दुर्बलताके दर्शन हो जाते हैं। यजुर्वेदका वचन है-
अप तस्य हतं तमो व्यावृत्तः स पाप्नना। (यजु० ३२)
'जिसका अज्ञान दूर होगा वही पापसे छूटेगा। पापका प्रधान कारण आत्मज्ञानका अभाव है।'
इदमहमनृतात् सत्यमुपैमि। (यजु० १। ५)
'असत्यको त्यागकर सत्य ही ग्रहण करना चाहिये। जो सत्यको त्यागकर असत्य अपनाते हैं, उन्हें अपयश ही मिलता है।'
ज्ञानके नेत्रोंके प्रकाशमें हम उन विचारोंको त्याग देते हैं, जो आत्माको कष्ट देनेवाले हैं, धर्मके शत्रु हैं या अशान्ति उत्पन्न करनेवाले हैं। शक्तियोंका मूल स्रोत आत्मा है। दुर्बलताका ज्ञान सच्ची आत्मग्लानि, फिर उस दुर्बलताको हटानेकी सच्ची साधना-यही हमारी उन्नतिके सूत्र हैं। जब मन गलत राहसे हटकर सन्मार्गपर आरूढ़ हो जाता है, तभी आध्यात्मिक सिद्धियाँ मिलनी प्रारम्भ हो जाती हैं।
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