गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट अमृत के घूँटरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....
ऐसा प्रतीत होता है, जैसे अब इन्द्रियलोलुपता, स्वार्थ और आसुरी प्रवृत्तियोंकी चरम सीमा आ गयी है। मनुष्य जड विज्ञानकी नास्तिकतासे ऊबकर अब देवत्वकी ओर अग्रसर हो रहा है। मनुष्य राजनीतिके और विज्ञानके दुष्ट प्रयोगोंसे घबराकर सत्यता और न्यायकी ओर मुड़ चला है। अपने देवत्वके प्रकाशमें ही उसे सच्चीखी शान्ति और अक्षय सुख प्राप्त हो सकता है। वह अब पाप, युद्ध, स्वार्थके बहकावेमें नहीं आयेगा, वरं सत्य, प्रेम, न्यायके सुमधुर फल चखेगा।
सत्ययुग आ रहा है, हमें स्वागतके लिये तैयार हो जाना चाहिये। यह स्वागत तब हो सकता है, जब हममेंसे प्रत्येक मनुष्य अपने देवत्व (अर्थात् सद्गुणों) को अपने कार्यों और व्यवहारों में स्पष्ट करना प्रारम्भ कर दे। सत्य, प्रेम और न्यायको फैलाने में दत्तचित्त हो जाय। अच्छाई को फैलाने में हम मिलकर चलें, मिलकर बोलें। वेदों में ईश्वरत्व, शिवत्व, दिव्यत्व को फैलाने में मिलकर चलनेका उपदेश दिया गया है-
सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूवेर् संजानाना उपासते।।
(ऋ० १०। १९१। २)
'हे मनुष्यो! मिलकर चलो, मिलकर बोलो। तुम्हारे मनोंके भाव समान हों। जैसे तुम्हारे पूर्वज विद्वान्के समान ज्ञान रखते हुए काम करते थे, वैसे ही तुम भी करो।'
ज्यायस्वन्तश्चित्तिनो मा वि यौष्ट संराधयन्तः ससुराश्चरन्त।
अन्यो अन्यस्मै वल्गु वदन्तु एत सध्रीचीनान् वः सं मनसस्कृणोमि।।
(अथर्ववेद ३। ३०। ५)
अर्थात् गुणोंमें बड़े बनते हुए, ज्ञानको बढ़ाते हुए, एक-दूसरेको प्रसन्न करते हुए, मिलकर कार्यभार उठाते हुए, एक-दूसरेको मीठी बाणी बोलते हुए चलो। मैं तुम्हें (सत्य, न्याय प्रेमको फैलानेके लिये) आपसे मित्रता करने, मिलकर बैठने और एक मनसे रहनेका उपदेश करता हूँ।
साथियो! सत्पथपर कदम बढ़ाओ। सत्यकी शोकनिवारक, शान्तिदायक, प्रेम-प्रसारक सम्पत्तियाँ सनातन है। सत्य वचन, सत्य व्यवहार, सत्य कार्य करना पापों और वर्जनीय वस्तुओंका नाश करना है। दीप्तिमान् आकाशके सत्यको जगानेवाली ज्योतिवाणीको सांसारिक प्रपंच्चोंमें फँसे हुए मनुष्य भी सुन लेते हैं।
वेदभगवान् आदेश करते है, 'हे मनुष्यो! असत्यकी ओर नहीं, सत्यकी ओर ही चलो। झूठ, मायाचार, स्वार्थके अन्धकारमें मत भटको। सत्यके प्रकाशमें आओ। अपनी वास्तविकताका निरीक्षण करो। तुच्छ विषय-वासना, इन्द्रियलिप्सा और तृष्णाकी ओस चाटनेसे तृप्ति नहीं मिल सकेगी, दुःख-दुर्भाग्यकी ज्वाला जलती रहेगी और तिल-तिल करके तुमको जलाती रहेगी। उस जलनेमें झुलसते हुए हर घड़ी रोना, पछताना, कुद्ध होना, झुँझलाना और सिर धुनना होगा। भवसागरमें अनेक दुःखोंका भण्डार भरा हुआ दिखायी देता है। उसका कारण यह है कि हम सत्यकी शीतल सरिताका किनारा छोड़कर असत्यके रेगिस्तानमें जा पहुँचते है और उस तवे-सी जलती हुई बालूमें पाँव डालनेसे कष्ट होता है। उसे सहते हुए ऐसा खयाल करते है कि संसारमें ऐसी जलती हुई रेत भरी हुई है। अतः वेद आपको असत्यसे हटाकर सत्यकी ओर चलनेका आदेश देते है-'असतो मा सद्गमय'। पाठको! अन्धकारकी ओर नहीं, प्रकाशकी ओर चलो। भविष्य सुखद बन जायगा।
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