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गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट

अमृत के घूँट

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :185
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5984
आईएसबीएन :81-293-0130-X

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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....

ऐसा प्रतीत होता है, जैसे अब इन्द्रियलोलुपता, स्वार्थ और आसुरी प्रवृत्तियोंकी चरम सीमा आ गयी है। मनुष्य जड विज्ञानकी नास्तिकतासे ऊबकर अब देवत्वकी ओर अग्रसर हो रहा है। मनुष्य राजनीतिके और विज्ञानके दुष्ट प्रयोगोंसे घबराकर सत्यता और न्यायकी ओर मुड़ चला है। अपने देवत्वके प्रकाशमें ही उसे सच्चीखी शान्ति और अक्षय सुख प्राप्त हो सकता है। वह अब पाप, युद्ध, स्वार्थके बहकावेमें नहीं आयेगा, वरं सत्य, प्रेम, न्यायके सुमधुर फल चखेगा।

सत्ययुग आ रहा है, हमें स्वागतके लिये तैयार हो जाना चाहिये। यह स्वागत तब हो सकता है, जब हममेंसे प्रत्येक मनुष्य अपने देवत्व (अर्थात् सद्गुणों) को अपने कार्यों और व्यवहारों में स्पष्ट करना प्रारम्भ कर दे। सत्य, प्रेम और न्यायको फैलाने में दत्तचित्त हो जाय। अच्छाई को फैलाने में हम मिलकर चलें, मिलकर बोलें। वेदों में ईश्वरत्व, शिवत्व, दिव्यत्व को फैलाने में मिलकर चलनेका उपदेश दिया गया है-

सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूवेर् संजानाना उपासते।।

(ऋ० १०। १९१। २)
'हे मनुष्यो! मिलकर चलो, मिलकर बोलो। तुम्हारे मनोंके भाव समान हों। जैसे तुम्हारे पूर्वज विद्वान्के समान ज्ञान रखते हुए काम करते थे, वैसे ही तुम भी करो।'

ज्यायस्वन्तश्चित्तिनो मा वि यौष्ट संराधयन्तः ससुराश्चरन्त।
अन्यो अन्यस्मै वल्गु वदन्तु एत सध्रीचीनान् वः सं मनसस्कृणोमि।।

(अथर्ववेद ३। ३०। ५)
अर्थात् गुणोंमें बड़े बनते हुए, ज्ञानको बढ़ाते हुए, एक-दूसरेको प्रसन्न करते हुए, मिलकर कार्यभार उठाते हुए, एक-दूसरेको मीठी बाणी बोलते हुए चलो। मैं तुम्हें (सत्य, न्याय प्रेमको फैलानेके लिये) आपसे मित्रता करने, मिलकर बैठने और एक मनसे रहनेका उपदेश करता हूँ।

साथियो! सत्पथपर कदम बढ़ाओ। सत्यकी शोकनिवारक, शान्तिदायक, प्रेम-प्रसारक सम्पत्तियाँ सनातन है। सत्य वचन, सत्य व्यवहार, सत्य कार्य करना पापों और वर्जनीय वस्तुओंका नाश करना है। दीप्तिमान् आकाशके सत्यको जगानेवाली ज्योतिवाणीको सांसारिक प्रपंच्चोंमें फँसे हुए मनुष्य भी सुन लेते हैं।

वेदभगवान् आदेश करते है, 'हे मनुष्यो! असत्यकी ओर नहीं, सत्यकी ओर ही चलो। झूठ, मायाचार, स्वार्थके अन्धकारमें मत भटको। सत्यके प्रकाशमें आओ। अपनी वास्तविकताका निरीक्षण करो। तुच्छ विषय-वासना, इन्द्रियलिप्सा और तृष्णाकी ओस चाटनेसे तृप्ति नहीं मिल सकेगी, दुःख-दुर्भाग्यकी ज्वाला जलती रहेगी और तिल-तिल करके तुमको जलाती रहेगी। उस जलनेमें झुलसते हुए हर घड़ी रोना, पछताना, कुद्ध होना, झुँझलाना और सिर धुनना होगा। भवसागरमें अनेक दुःखोंका भण्डार भरा हुआ दिखायी देता है। उसका कारण यह है कि हम सत्यकी शीतल सरिताका किनारा छोड़कर असत्यके रेगिस्तानमें जा पहुँचते है और उस तवे-सी जलती हुई बालूमें पाँव डालनेसे कष्ट होता है। उसे सहते हुए ऐसा खयाल करते है कि संसारमें ऐसी जलती हुई रेत भरी हुई है। अतः वेद आपको असत्यसे हटाकर सत्यकी ओर चलनेका आदेश देते है-'असतो मा सद्गमय'। पाठको! अन्धकारकी ओर नहीं, प्रकाशकी ओर चलो। भविष्य सुखद बन जायगा।

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    अनुक्रम

  1. निवेदन
  2. आपकी विचारधारा की सही दिशा यह है
  3. हित-प्रेरक संकल्प
  4. सुख और स्वास्थ के लिये धन अनिवार्य नहीं है
  5. रुपये से क्या मिलता है और क्या नहीं
  6. चिन्ता एक मूर्खतापूर्वक आदत
  7. जीवन का यह सूनापन!
  8. नये ढंग से जीवन व्यतीत कीजिये
  9. अवकाश-प्राप्त जीवन भी दिलचस्प बन सकता है
  10. जीवन मृदु कैसे बने?
  11. मानव-हृदय में सत्-असत् का यह अनवरत युद्ध
  12. अपने विवेकको जागरूक रखिये
  13. कौन-सा मार्ग ग्रहण करें?
  14. बेईमानी एक मूर्खता है
  15. डायरी लिखने से दोष दूर होते हैं
  16. भगवदर्पण करें
  17. प्रायश्चित्त कैसे करें?
  18. हिंदू गृहस्थ के लिये पाँच महायज्ञ
  19. मनुष्यत्व को जीवित रखनेका उपाय-अर्थशौच
  20. पाठ का दैवी प्रभाव
  21. भूल को स्वीकार करने से पाप-नाश
  22. दूसरों की भूलें देखने की प्रवृत्ति
  23. एक मानसिक व्यथा-निराकरण के उपाय
  24. सुख किसमें है?
  25. कामभाव का कल्याणकारी प्रकाश
  26. समस्त उलझनों का एक हल
  27. असीम शक्तियोंकी प्रतीक हमारी ये देवमूर्तियाँ
  28. हिंदू-देवताओंके विचित्र वाहन, देश और चरित्र
  29. भोजनकी सात्त्विकता से मनकी पवित्रता आती है!
  30. भोजन का आध्यात्मिक उद्देश्य
  31. सात्त्विक आहार क्या है?
  32. मन को विकृत करनेवाला राजसी आहार क्या है?
  33. तामसी आहार क्या है?
  34. स्थायी सुख की प्राप्ति
  35. मध्यवर्ग सुख से दूर
  36. इन वस्तुओं में केवल सुखाभास है
  37. जीवन का स्थायी सुख
  38. आन्तरिक सुख
  39. सन्तोषामृत पिया करें
  40. प्राप्त का आदर करना सीखिये
  41. ज्ञान के नेत्र
  42. शान्ति की गोद में
  43. शान्ति आन्तरिक है
  44. सबसे बड़ा पुण्य-परमार्थ
  45. आत्मनिर्माण कैसे हो?
  46. परमार्थ के पथपर
  47. सदुपदेशों को ध्यानपूर्वक सुनिये
  48. गुप्त सामर्थ्य
  49. आनन्द प्राप्त करनेके अचूक उपाय
  50. अपने दिव्य सामर्थ्यों को विकसित कीजिये
  51. पाप से छूटने के उपाय
  52. पापसे कैसे बचें?
  53. पापों के प्रतीकार के लिये झींके नहीं, सत्कर्म करे!
  54. जीवन का सर्वोपरि लाभ
  55. वैराग्यपूर्ण स्थिति
  56. अपने-आपको आत्मा मानिये
  57. ईश्वरत्व बोलता है
  58. सुखद भविष्य में विश्वास करें
  59. मृत्यु का सौन्दर्य

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