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गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट

अमृत के घूँट

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :185
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5984
आईएसबीएन :81-293-0130-X

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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....

कबीरदासने सत्य ही लिखा है-

पानी केरा बुदबुदा, अस मानसकी जात।
एक दिना छिप जायेंगे, तारे ज्यों परभात।।

'मनुष्य-जीवन एक पानीके बुलबुले-समान क्षणिक है। जैसे प्रभात होते ही तारे स्वतः छिप जाते हैं, वैसे ही क्षणमात्रमें जीवनका अन्त हो सकता है।'

झूठे सुखकी सुख कहैं, मानत हैं मन मोद।
खलक चबेना कालका, कछु मुखमें कछु गोद।।
मालिन आवत देखकर कलियाँ करें पुकार।
फूले फूले चुनि लिये, काल्हि हमारी बार।।

आगे कबीर कहते है-

कबीर यह जग कछु नहीं, छन खारा छन मीठ।
कालि जु बैठी माँड़िया आज मसाणाँ दीठ।।
मरता मरता जग मुआ, औसर मुआ न कोइ।
कबिरा ऐसे मरि मुआ, जों बहुरि न मरना होइ।।
वैद मुआ, रोगी मुआ, मुआ सकल संसार।
एक कबीरा ना मुआ, जिसका राम अधार।।

मृत्यु कोई ऐसी वस्तु नहीं जो औरों पर न आयी हो और केवल मात्र हमींपर आ पड़नेवाली हो। वैद्य-रोगी, यति-ज्ञानी, महात्मा, विद्वान्-मूर्ख-सभी मृत्युके मार्गसे गये है। धन इत्यादि कुछ भी साथ नहीं गया-

कौड़ी कौड़ी जोरि कै, जोरे लाख करोर।
चलती बार न कछु मिल्यो लई लँगोटी तोर।।
हाड़ जरै ज्यों लाकड़ी, केस जरै ज्यों घास।
सब जग जलता देखि कै, भयो कबीर उदास।।

जब मृत्युका बुलावा आता है, तब कोई भी उसे नहीं रोक सकता-

कबिरा जंत्र न खाजई, टूटि गये सब तार।
जंत्र बिचारा क्या करे, चले बजावनहार।।

तात्पर्य यह है कि नश्वर शरीरके लिये रोना वृथा है। यह तो हाड़, मांस, रक्त, मज्जा इत्यादि निर्जीव पदार्थोका बना हुआ एक ढाँचामात्र है। मरनेके बाद भी शरीररूपी मिट्टी ज्यों-की-त्यों पड़ी रहती है। कोई चाहे तो शरीरको मसालोंमें लपेटकर दीर्घकालतक अपने पास रख सकता है, पर देह तो जड है। वास्तविक वस्तु तो आत्मा है। आत्मा अजर-अमर है। उसका नाश नहीं होता। हम जिसे 'हम' कहते है, वह वस्तुत: शरीर नहीं, यह अजर-अमर आत्मा ही है और वह आत्मा शरीर छोड़ देनेके पक्षात् भी ज्यों-का-त्यों जीवित रहता है। फिर जो जीवित है, उसके लिये शोक करनेसे क्या प्रयोजन?

भगवान् ने गीतामें कहा है-
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्वाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।
(२। २२)
अर्थात् जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रोंको त्यागकर दूसरे नये वस्त्रोंको ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरको त्यागकर दूसरे नये शरीरोंको प्राप्त होता है।

अतएव मृत्युसे डरनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। मरनेके बाद भी आत्माका अस्तित्व रहता है, परलोक और पुनर्जन्म भी है। जीव इस शरीरको त्यागकर दूसरे शरीरमें चला जाता है। गीतामें भगवान् ने कहा है-

देहिनोऽस्मिन् यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।।
(२। १३) 
'जैसे जीवात्माकी इस देहमें बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीरकी प्राप्ति होती है। उस विषयमें धीर पुरुष मोहित नहीं होता।' 

 

* * *

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    अनुक्रम

  1. निवेदन
  2. आपकी विचारधारा की सही दिशा यह है
  3. हित-प्रेरक संकल्प
  4. सुख और स्वास्थ के लिये धन अनिवार्य नहीं है
  5. रुपये से क्या मिलता है और क्या नहीं
  6. चिन्ता एक मूर्खतापूर्वक आदत
  7. जीवन का यह सूनापन!
  8. नये ढंग से जीवन व्यतीत कीजिये
  9. अवकाश-प्राप्त जीवन भी दिलचस्प बन सकता है
  10. जीवन मृदु कैसे बने?
  11. मानव-हृदय में सत्-असत् का यह अनवरत युद्ध
  12. अपने विवेकको जागरूक रखिये
  13. कौन-सा मार्ग ग्रहण करें?
  14. बेईमानी एक मूर्खता है
  15. डायरी लिखने से दोष दूर होते हैं
  16. भगवदर्पण करें
  17. प्रायश्चित्त कैसे करें?
  18. हिंदू गृहस्थ के लिये पाँच महायज्ञ
  19. मनुष्यत्व को जीवित रखनेका उपाय-अर्थशौच
  20. पाठ का दैवी प्रभाव
  21. भूल को स्वीकार करने से पाप-नाश
  22. दूसरों की भूलें देखने की प्रवृत्ति
  23. एक मानसिक व्यथा-निराकरण के उपाय
  24. सुख किसमें है?
  25. कामभाव का कल्याणकारी प्रकाश
  26. समस्त उलझनों का एक हल
  27. असीम शक्तियोंकी प्रतीक हमारी ये देवमूर्तियाँ
  28. हिंदू-देवताओंके विचित्र वाहन, देश और चरित्र
  29. भोजनकी सात्त्विकता से मनकी पवित्रता आती है!
  30. भोजन का आध्यात्मिक उद्देश्य
  31. सात्त्विक आहार क्या है?
  32. मन को विकृत करनेवाला राजसी आहार क्या है?
  33. तामसी आहार क्या है?
  34. स्थायी सुख की प्राप्ति
  35. मध्यवर्ग सुख से दूर
  36. इन वस्तुओं में केवल सुखाभास है
  37. जीवन का स्थायी सुख
  38. आन्तरिक सुख
  39. सन्तोषामृत पिया करें
  40. प्राप्त का आदर करना सीखिये
  41. ज्ञान के नेत्र
  42. शान्ति की गोद में
  43. शान्ति आन्तरिक है
  44. सबसे बड़ा पुण्य-परमार्थ
  45. आत्मनिर्माण कैसे हो?
  46. परमार्थ के पथपर
  47. सदुपदेशों को ध्यानपूर्वक सुनिये
  48. गुप्त सामर्थ्य
  49. आनन्द प्राप्त करनेके अचूक उपाय
  50. अपने दिव्य सामर्थ्यों को विकसित कीजिये
  51. पाप से छूटने के उपाय
  52. पापसे कैसे बचें?
  53. पापों के प्रतीकार के लिये झींके नहीं, सत्कर्म करे!
  54. जीवन का सर्वोपरि लाभ
  55. वैराग्यपूर्ण स्थिति
  56. अपने-आपको आत्मा मानिये
  57. ईश्वरत्व बोलता है
  58. सुखद भविष्य में विश्वास करें
  59. मृत्यु का सौन्दर्य

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