गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट अमृत के घूँटरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....
अवकाश-प्राप्त जीवन भी दिलचस्प बन सकता है
तीस वर्षकी नौकरी करनेके पश्चात् रिटायर होनेवाला व्यक्ति प्रायः सोचता है कि हम विश्राम करेंगे, कुछ कार्यभार न होगा, जिम्मेदारियाँ न होंगी, मनपर बोझ न रहेगा, अतएव हमारा जीवन सुख-शान्तिमय रहेगा। दूर-दूरसे अवकाश-प्राप्त जीवन अपना एक अजीब आकर्षण लिये हुए होता है। सम्पूर्ण जीवनका माधुर्य जैसे उसमें संचित हो उठी हो!
किंतु ये कल्पनाएँ शीघ्र ही नष्ट होने लगती है। अवकाश-प्राप्त व्यक्तिका जीवन शीघ्र ही आलस्य से भर जाता है। जो व्यक्ति तीस वर्षोंतक निरन्तर कार्यमें जुटा रहा है, उसके मनमें यह भावना आने लगती है, जैसे वह समाजका एक बेकार, आलसी, निकम्मा जीवन व्यतीत करनेवाला व्यक्ति है। जैसे उसके लिये, करनेके लिये कुछ भी शेष नहीं रहा है, उसका कार्य समाप्त हो गया है। लोग उससे मिलना-जुलना छोड़ देते है। अफसरोंको जो बड़प्पनकी भावना दूसरेके ऊपर शासन देती थी, वह शून्यमें विलीन हो जाती है। कोई भी उनकी मातहतीमें खड़ा नहीं होता; नौकरोंकी संख्या कम हो जाती है। दूसरोंपर शासनकी भावना मनुष्यके गर्व तथा 'अहम्' को फुलाये रखती है। वह उसके नशेमें छोटी-मोटी तकलीफों और असुविधाओंकी परवा नहीं करता। पेंशन पाते ही उसका शासन-विधान एक प्रकारसे समाप्त हो जाता है और वह भी एक साधारण व्यक्ति बन जाता है। गर्व चूर्ण होनेसे पेंशन पानेवालेको अपनी निर्बलता और दयनीयताका भास होने लगता है।
दूसरी भावना बेकारीकी है। मनुष्य केवल रोटीसे ही जीवित नहीं रहता, कार्यसे भी जीवित रहता है। उसके लिये कार्य उतना ही आवश्यक है, जितना कि भोजन, वस्त्र या मकान। चूँकि पेंशनरको अपना कार्य समाप्त हुआ दीखता है, उसमें अशक्तताकी भावना घर कर लेती है। निष्क्रियता, आलस्य, बेबसी तथा वृद्धावस्थाकी भावनाएँ उसके मानसिक संस्थानको निर्बलता और नैराश्यकी ओर खींचती हैं, फलतः उसकी मृत्यु निकट आ जाती है।
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- ईश्वरत्व बोलता है
- सुखद भविष्य में विश्वास करें
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