गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट अमृत के घूँटरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....
मानव-हृदय में सत्-असत् का यह अनवरत युद्ध
मनुष्य का हृदय दो प्रकारकी भावनाओंका रंग-स्थल है। ये है सत् और असत्की अच्छी-बुरी भावनाएँ। यह आश्चर्यका विषय है कि एक ही मनमें शुभ तथा अशुभ दोनों वर्गोंकी भावनाएँ रहती है, जिनमें निरन्तर संघर्ष चलता रहता है। अच्छे-सें-अच्छे व्यक्ति के मनमें कभी-कभी दानवी दुष्प्रवृत्तियाँ जाग्रत् हो उठती है और उसे पतनकी ओर खींचती है। वह जानता-बूझता पतनकी ओर चलता जाता है और प्रायः उसके मनमें पश्चात्तापका उदय तब होता है, जब पतन पूरी तरह हो चुकता है। पतित व्यक्तिका अन्तःकरण फिर जोर मारता है, आत्मग्लानिसे फिर सत्वृत्तियोंकी ओर बढ़नेका अवसर मिलता है और धीरे-धीरे सद्गुणोंका विकास होकर दुष्ट, पतित और अधम मनुष्य सर्वोच्च मान, पद या प्रतिष्ठा का पद प्राप्त करता है।
आप भी मनुष्य है और अन्य मनुष्योंकी भांति अनेक अवसरों पर आपकी मनोवृत्तियों में भी उपर्युक्त संघर्ष चलता रहता है। कभी आप सोचते है, 'मैं ऊँचा रहूँगा। मजबूत मर्द बनूँगा, जब तक ध्येय प्राप्त न हो जायगा, तबतक रुकूँगा नहीं। स्वार्थमय कार्योंको तिलाञ्जलि देकर सत्य के मार्गपर-परमार्थ के पदपर आरूढ़ रहूँगा। जो सत्य है, वही दूर दृष्टि से हितकर है, श्रेष्ठ है। उसीको ग्रहण करूँगा।'
कभी आप इन भावोंको भूलकर वासनाके मोहक मादक जालमें फँस जाते है, पाप-पंकमें धँस जाते है। आमोद-प्रमोदोंमें बहक जाते है। नारी के मायाजाल में बँध जाते है। आपके सब नियम टूट जाते है। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि नारी के मोहक जाल में फँसे और स्वछन्द जीवन में विवेक नष्ट कर बैठे। उनके त्याग, तप, सत्य, सिद्धान्त सब क्षणभरमें नष्ट हो गये। इन्द्रियाँ बड़ी ही चपल है। तनिक-सी ढीली पड़नेपर संतोष और वैराग्यसे असंतोष पाकर ये सांसारिक माया जालमें बहक जाती है। जिस प्रकार अग्रिमें घृत डालनेसे वह अधिकाधिक उद्दीप्त होती है, उसी प्रकार कामनाएँ तथा वासनाएँ उपभोग से और बढ़ जाती है। वासना से क्रोध, क्रोधसे सम्मोह, सम्मोहसे स्मृति-भ्रम, स्मृति-भ्रमसे बुद्धिनाश और बुद्धिनाशसे सर्वनाश हो जाता है।
'यह करूँ या वह?' जब आपके मनमें सत्-असत्में द्वन्द्व हो, तब आपको सावधान हो जाना चाहिये और वह पथ पकड़ना चाहिये जिसके साथ आपकी आत्मा हो; क्योंकि वही देवत्वका मार्ग है।
जब वासनाएँ आपको पापकी ओर आकृष्ट करें, कुत्सित आमोद-प्रमोदकी ओर आपकी प्रवृत्ति हो तो आप सँभल जाइये; क्योंकि तब आपका दानवत्व जाग रहा है।
दानवत्व आपको गिराता है, देवत्व मनकी दुर्बलतापर विजय प्राप्त कराता है। देवत्व आपके शुभ विचार है। देवत्व मनमें आत्माके द्वारा श्रेष्ठ प्रेरणा देता है; अतः ऐसा प्रयत्न कीजिये कि आपमें जो शुभ है, वही आप पर हावी रहे। आपके अन्दर परम देव जाग्रत् और चैतन्य होकर बैठे है। ये आपके आत्मा है। आत्मामें स्थिर होकर आप अपने प्राण और मनका निग्रह कर सकते है। आत्माके साथ एकराग हो जाने पर शरीर के सब विकार नष्ट हो जाते है।
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