गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट अमृत के घूँटरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....
ईमानदारीके एक पैसेमें बेईमानीके लाख रुपयेसे अधिक बल है; क्योंकि वह स्थायी है। उस पैसेके साथ सत्कर्मका गौरव जुड़ा हुआ है।
आप सत्यके यात्री है। सत्यस्वरूप आत्मा हैं। झूठ और मिथ्याचारके सुहावने दीखनेवाले भयानक जंगलोंमें मत भटकिये। ईमानदारीकी सूखी तेटियाँखाते रहिये तो स्वस्थ रहेंगे। बेईमानीकी हलुआ-पूरी आपका स्वास्थ्य नष्ट कर देगी। अधर्मसे धन जमा करके सम्पत्तिशाली बननेकी अपेक्षा यही अच्छा है कि मनुष्य सत्य आचरण करता हुआ गरीब बना रहे। जो पैसा दूसरोंको रुलाते हुए हड़प लिया जाता है, वह लेनेवालों को नष्ट करके ही विदा होता है।
सत्यता और ईमानदारी धर्मात्मा मनुष्यके भूषण है। ये ईश्वरकी सत्ताके द्योतक है। प्राणान्त होनेपर भी इन दिव्य गुणोंका हास मत होने दीजिये। यदि हमारी आजीविका झूठ, अन्याय, छल, कपटसे कमायी हुई है तो उसपर पलनेवाली हमारी संतान भी उसका उपयोग करनेपर अधिकाधिक अन्याय, झूठ और धूर्त्तताकी ओर प्रवृत्त होती जायगी और हमारी आनेवाली पीढ़ीको भी दुःखी बना डालेगी। अतएव सत्य आचरण और खरे पसीनेकी कमाईसे ही शुद्ध भोजन प्राप्त होता है। जिसे कमाते और खाते दुनियाके किसी व्यक्तिके सामने आँखें नीची न करनी पड़ें, वही ईमानदारीकी कमाई है। यह हमें आत्मनिर्भर रहना सिखाती है और स्वाभिमानकी वृद्धि करती है।
एक विद्वान् ने ये वचन सदा स्मरण रखनेयोग्य हैं-'तुम्हारा मन जब ईमानदारीको छोड़कर बेईमानीकी ओर चलने लगे, तब समझना चाहिये कि अब तुम्हारा सर्वनाश निकट आनेवाला है। बेईमानीसे पैसा मिल सकता है,
पर देखो, सावधान रहना। उस पैसेको छूना मत! क्योंकि वह आगकी तरह चमकीला तो है पर छूनेपर जलाये बिना नहीं रहता। ईमानदारीसे चाहे थोड़ी ही सम्पत्ति भले ही कमायी जाय, पर वह पीढ़ियोंतक कायम रहेगी और बढ़ती रहेगी, जब कि बेईमानीके विशाल वृक्ष एक ही झोंके में उखड़कर गिर जाते है। एक दिन वह अवश्य ही उन्नति करेगा, जो दूसरोंके लाभको अपने ही लाभकी तरह देखेगा। यह मत समझो कि ईमानदारको भोंदू और अर्क्मण्य समझा जायगा। मूर्ख ही ऐसा खयाल कर सकते है। विवेकवानोंकी दृष्टिमें न्यायशील और ईमानदार अहमी ही बड़ा समझा जायगा, फिर चाहे वह गरीब ही क्यों न हो।'
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