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गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट

अमृत के घूँट

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :185
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5984
आईएसबीएन :81-293-0130-X

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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....

भोग और लोभ-बुराइयोंके ये दो मूल है। इन्हें रोकनेसे आप सुखी रहेंगे। एकको ठगेंगे तो दूसरा आपको ठगेगा, तीसरा उसे ठगेगा। इस प्रकार ठगी और बेईमानी सर्वत्र फैल जायगी। यदि आप ईमानदारीको अपना ध्येय बनायेंगे तो वही सर्वत्र फैलेगी। बेईमानी सब प्रकारके विकासको नष्ट करती आ रही है। यह एक सस्ती चीज है, जो मनुष्यकी शक्तियोंको कुण्ठित कर देती है। बेईमानीसे सब उद्योग-धंधोंका और व्यापारोंका नाश होता है। छल-कपट अधिक दिन टिकनेवाले नहीं हैं।

बेईमानीके कारण सच्चे व्यक्ति जो विश्वासपात्र है, उनपरसे भी विश्वास उठ गया है। मानवको मानवपर विश्वास करना कठिन हो रहा है। जनताको नेताका, नेताको जनताका, पिताको पुत्रका, पुत्रको पिताका, पतिको पत्नीका, पत्नीको पतिका विश्वास नहीं है। समाजके सब संगठन बेईमानीके कारण टूट-फूट गये है। रोगीको डाक्टरपर विश्वास नहीं है। वह समझता है कि जो दवा उसे दी जा रही है, वह केवल रंगा हुआ जलमात्र हो सकता है। जनता समझती है कि नेता उसे पथ-भ्रष्ट कर रहे हैं। यदि हम बेईमानीके विरुद्ध कड़ा कदम उठा लें तो एक ऐसा केन्द्र उपस्थित कर सकते है, जहाँसे सत्य, न्याय और प्रेमकी

किरणें विकेन्द्रित हो सकती है। ये ही किरणें सर्वत्र व्याप्त होकर दूषित वातावरण को शुद्ध कर सकती है।

बेईमानी आपके जीवनका कोई अंग नहीं बननी चाहिये। बेईमानी अप्राकृतिक है। उसे व्यवहारमें लानेसे हमें अपनी आत्माका हनन करना पड़ता है। हम झिझकते रहते है कि कहीं हमारा झूठ-फरेब प्रकट न हो जाय, हमास रहस्य प्रकट न हो जाय, हमें लोग बुरा-भला न कहें। बेईमानी हमारे गुप्त मनमें दुराव-छिपावकी भावना-ग्रन्थि उत्पन्न करती है और सदा किसी-न-किसी प्रकार प्रभावित किया करती है।

बेईमानी अन्धकार है, तो ईमानदारी शुभ प्रकाश है। ईमानदारीमें मनुष्य धनहीन और अभावग्रस्त रह सकता है; किंतु उसके मनमें शान्ति और संतुलन रहता है। उसका चरित्र-निर्माण दृढ़ पृष्ठभूमिपर रहता है। उसे यह झिझक या शंका नहीं रहती कि कोई किसी दिन आकर उसकी बेईमानीको पकड़ लेगा या उसकी अप्रतिष्ठा होगी, उसकी नौकरी जायगी या मुकदमें चलेंगे। ईमानदारीसे रहना सचाईसे रहना है। ईमानदारीकी कमाई दीर्घकालतक चलनेवाली होती है।

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    अनुक्रम

  1. निवेदन
  2. आपकी विचारधारा की सही दिशा यह है
  3. हित-प्रेरक संकल्प
  4. सुख और स्वास्थ के लिये धन अनिवार्य नहीं है
  5. रुपये से क्या मिलता है और क्या नहीं
  6. चिन्ता एक मूर्खतापूर्वक आदत
  7. जीवन का यह सूनापन!
  8. नये ढंग से जीवन व्यतीत कीजिये
  9. अवकाश-प्राप्त जीवन भी दिलचस्प बन सकता है
  10. जीवन मृदु कैसे बने?
  11. मानव-हृदय में सत्-असत् का यह अनवरत युद्ध
  12. अपने विवेकको जागरूक रखिये
  13. कौन-सा मार्ग ग्रहण करें?
  14. बेईमानी एक मूर्खता है
  15. डायरी लिखने से दोष दूर होते हैं
  16. भगवदर्पण करें
  17. प्रायश्चित्त कैसे करें?
  18. हिंदू गृहस्थ के लिये पाँच महायज्ञ
  19. मनुष्यत्व को जीवित रखनेका उपाय-अर्थशौच
  20. पाठ का दैवी प्रभाव
  21. भूल को स्वीकार करने से पाप-नाश
  22. दूसरों की भूलें देखने की प्रवृत्ति
  23. एक मानसिक व्यथा-निराकरण के उपाय
  24. सुख किसमें है?
  25. कामभाव का कल्याणकारी प्रकाश
  26. समस्त उलझनों का एक हल
  27. असीम शक्तियोंकी प्रतीक हमारी ये देवमूर्तियाँ
  28. हिंदू-देवताओंके विचित्र वाहन, देश और चरित्र
  29. भोजनकी सात्त्विकता से मनकी पवित्रता आती है!
  30. भोजन का आध्यात्मिक उद्देश्य
  31. सात्त्विक आहार क्या है?
  32. मन को विकृत करनेवाला राजसी आहार क्या है?
  33. तामसी आहार क्या है?
  34. स्थायी सुख की प्राप्ति
  35. मध्यवर्ग सुख से दूर
  36. इन वस्तुओं में केवल सुखाभास है
  37. जीवन का स्थायी सुख
  38. आन्तरिक सुख
  39. सन्तोषामृत पिया करें
  40. प्राप्त का आदर करना सीखिये
  41. ज्ञान के नेत्र
  42. शान्ति की गोद में
  43. शान्ति आन्तरिक है
  44. सबसे बड़ा पुण्य-परमार्थ
  45. आत्मनिर्माण कैसे हो?
  46. परमार्थ के पथपर
  47. सदुपदेशों को ध्यानपूर्वक सुनिये
  48. गुप्त सामर्थ्य
  49. आनन्द प्राप्त करनेके अचूक उपाय
  50. अपने दिव्य सामर्थ्यों को विकसित कीजिये
  51. पाप से छूटने के उपाय
  52. पापसे कैसे बचें?
  53. पापों के प्रतीकार के लिये झींके नहीं, सत्कर्म करे!
  54. जीवन का सर्वोपरि लाभ
  55. वैराग्यपूर्ण स्थिति
  56. अपने-आपको आत्मा मानिये
  57. ईश्वरत्व बोलता है
  58. सुखद भविष्य में विश्वास करें
  59. मृत्यु का सौन्दर्य

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