गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट अमृत के घूँटरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....
इस प्रकार अधिक सुख और शान्तिके लिये प्रत्येक सद्गृहस्थको उपर्युक्त पाँच कर्म अवश्य करने चाहिये। हमारा जीवन ऐसा हो, जिससे अधिक-से-अधिक लोगोंकी भलाई और उन्नति हो सके। समस्त समाजमें हमारी अपनी ही आत्माका विस्तार दिखायी दे रहा है। एक ही ईश्वरका नाना रूपोंमें प्रकाश है। इस दृष्टिसे यह सब हमारा ही एक परिवार है। सब हमारे बन्धु-बान्धव ही हैं। हमारा सबके साथ एक रक्त का सम्बन्ध है। यदि हम किसीका बुरा करते है या उसे ठगनेकी चेष्टा करते है तो वास्तवमें हम अपना ही बुरा करते है और अपने-आपको ही ठगते है।
रहो और रहने दो!
मनुष्यो! तुम संसारमें आनन्द और शान्तिसे जीवन व्यतीत करनेके लिये आये हो। तुम्हारे मन, वचन और कर्ममें वे शुभ शक्तियाँ रखी गयी है, जो संसारभरके लिए कल्याणकारी है। तुम्हारे स्वयंके कार्योंकी संसारके सुख-शान्तिपर प्रतिक्रिया होती है। यदि तुम्हारे संकल्प अच्छे है और कार्य उत्तम भावोंसे होते है, तो निश्चय ही तुम संसारकी सुखवृद्धि कर सकोगे।
तुम संसारमें आनन्दपूर्वक रहना चाहते हो तो दूसरोंको आनन्दपूर्वक रहने दो। तुम यदि समझते हो कि दूसरोंको सतानेसे तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ता तो यह तुम्हारा भ्रम है। वास्तवमें तुम्हारी ठगी, धोखेबाजी, अत्याचार स्वयं तुम्हें ही नष्ट करते हैं। तुम अपनी ही आत्माका हनन करते हो।
समाजमें कोई भी अलग नहीं है। सब एक बड़े शरीरके अंग है। पूरा समाज एक विशाल शरीर है। क्या तुम यह पसंद करोगे कि तुम्हारे शरीरका एक हाथ दूसरे हाथको काट डाले; एक पाँव दूसरे पाँवको चोट पहुँचाये, दाँत खुद तुम्हारी जीभको काट डालें, हाथ सिरको तोड़ डालें। नहीं, तुम यह कदापि पसंद नहीं करोगे। इससे तुम्हारा अस्तित्व ही नष्ट हो जायगा।
इस मानव समाज के भिन्न-भिन्न व्यक्ति भी इसी प्रकार तुम्हारे सामाजिक शरीरके अंग-प्रत्यंग है। कोई व्यक्ति हाथकी तरह है, कोई आदमी पाँवोंकी तरह; कोई नेत्र है तो कोई कान, नाक, मुँह, हृदय, जिगर और फेफड़ोंकी जगह है। सबके परस्पर मिलकर चलनेसे ही समाज विकसित होता है, आगे बढ़ता है और पनपता है।
यदि तुम किसी व्यक्तिपर हिंसा, बलात्कार, झूठ, कपट या अत्याचार करते हो तो वास्तवमें स्वयं अपने-आपको ही घायल करते हो। यदि तुम रहनेका अधिकार माँगते हो तो दूसरोंको स्वतन्त्रतापूर्वक आनन्द और निर्भयतासे जीते रहने दो।
तुम दूसरोंको अधिक दिन धोखेमें न रख सकोगे। एक-न-एक दिन तुम्हारा पाप प्रकट हो जायगा। फिर तुम्हें जो अपमान सहन करना पड़ेगा, उसकी पीड़ा सहस्त्रों बिच्छुयोंके डंक मारने-जैसी होगी। पापपर अधिक दिनतक पर्दा नहीं डाला जा सकता।
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