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गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट

अमृत के घूँट

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :185
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5984
आईएसबीएन :81-293-0130-X

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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....


इस प्रकार अधिक सुख और शान्तिके लिये प्रत्येक सद्गृहस्थको उपर्युक्त पाँच कर्म अवश्य करने चाहिये। हमारा जीवन ऐसा हो, जिससे अधिक-से-अधिक लोगोंकी भलाई और उन्नति हो सके। समस्त समाजमें हमारी अपनी ही आत्माका विस्तार दिखायी दे रहा है। एक ही ईश्वरका नाना रूपोंमें प्रकाश है। इस दृष्टिसे यह सब हमारा ही एक परिवार है। सब हमारे बन्धु-बान्धव ही हैं। हमारा सबके साथ एक रक्त का सम्बन्ध है। यदि हम किसीका बुरा करते है या उसे ठगनेकी चेष्टा करते है तो वास्तवमें हम अपना ही बुरा करते है और अपने-आपको ही ठगते है।

रहो और रहने दो!

मनुष्यो! तुम संसारमें आनन्द और शान्तिसे जीवन व्यतीत करनेके लिये आये हो। तुम्हारे मन, वचन और कर्ममें वे शुभ शक्तियाँ रखी गयी है, जो संसारभरके लिए कल्याणकारी है। तुम्हारे स्वयंके कार्योंकी संसारके सुख-शान्तिपर प्रतिक्रिया होती है। यदि तुम्हारे संकल्प अच्छे है और कार्य उत्तम भावोंसे होते है, तो निश्चय ही तुम संसारकी सुखवृद्धि कर सकोगे।

तुम संसारमें आनन्दपूर्वक रहना चाहते हो तो दूसरोंको आनन्दपूर्वक रहने दो। तुम यदि समझते हो कि दूसरोंको सतानेसे तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ता तो यह तुम्हारा भ्रम है। वास्तवमें तुम्हारी ठगी, धोखेबाजी, अत्याचार स्वयं तुम्हें ही नष्ट करते हैं। तुम अपनी ही आत्माका हनन करते हो।

समाजमें कोई भी अलग नहीं है। सब एक बड़े शरीरके अंग है। पूरा समाज एक विशाल शरीर है। क्या तुम यह पसंद करोगे कि तुम्हारे शरीरका एक हाथ दूसरे हाथको काट डाले; एक पाँव दूसरे पाँवको चोट पहुँचाये, दाँत खुद तुम्हारी जीभको काट डालें, हाथ सिरको तोड़ डालें। नहीं, तुम यह कदापि पसंद नहीं करोगे। इससे तुम्हारा अस्तित्व ही नष्ट हो जायगा।

इस मानव समाज के भिन्न-भिन्न व्यक्ति भी इसी प्रकार तुम्हारे सामाजिक शरीरके अंग-प्रत्यंग है। कोई व्यक्ति हाथकी तरह है, कोई आदमी पाँवोंकी तरह; कोई नेत्र है तो कोई कान, नाक, मुँह, हृदय, जिगर और फेफड़ोंकी जगह है। सबके परस्पर मिलकर चलनेसे ही समाज विकसित होता है, आगे बढ़ता है और पनपता है।

यदि तुम किसी व्यक्तिपर हिंसा, बलात्कार, झूठ, कपट या अत्याचार करते हो तो वास्तवमें स्वयं अपने-आपको ही घायल करते हो। यदि तुम रहनेका अधिकार माँगते हो तो दूसरोंको स्वतन्त्रतापूर्वक आनन्द और निर्भयतासे जीते रहने दो।

तुम दूसरोंको अधिक दिन धोखेमें न रख सकोगे। एक-न-एक दिन तुम्हारा पाप प्रकट हो जायगा। फिर तुम्हें जो अपमान सहन करना पड़ेगा, उसकी पीड़ा सहस्त्रों बिच्छुयोंके डंक मारने-जैसी होगी। पापपर अधिक दिनतक पर्दा नहीं डाला जा सकता।

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    अनुक्रम

  1. निवेदन
  2. आपकी विचारधारा की सही दिशा यह है
  3. हित-प्रेरक संकल्प
  4. सुख और स्वास्थ के लिये धन अनिवार्य नहीं है
  5. रुपये से क्या मिलता है और क्या नहीं
  6. चिन्ता एक मूर्खतापूर्वक आदत
  7. जीवन का यह सूनापन!
  8. नये ढंग से जीवन व्यतीत कीजिये
  9. अवकाश-प्राप्त जीवन भी दिलचस्प बन सकता है
  10. जीवन मृदु कैसे बने?
  11. मानव-हृदय में सत्-असत् का यह अनवरत युद्ध
  12. अपने विवेकको जागरूक रखिये
  13. कौन-सा मार्ग ग्रहण करें?
  14. बेईमानी एक मूर्खता है
  15. डायरी लिखने से दोष दूर होते हैं
  16. भगवदर्पण करें
  17. प्रायश्चित्त कैसे करें?
  18. हिंदू गृहस्थ के लिये पाँच महायज्ञ
  19. मनुष्यत्व को जीवित रखनेका उपाय-अर्थशौच
  20. पाठ का दैवी प्रभाव
  21. भूल को स्वीकार करने से पाप-नाश
  22. दूसरों की भूलें देखने की प्रवृत्ति
  23. एक मानसिक व्यथा-निराकरण के उपाय
  24. सुख किसमें है?
  25. कामभाव का कल्याणकारी प्रकाश
  26. समस्त उलझनों का एक हल
  27. असीम शक्तियोंकी प्रतीक हमारी ये देवमूर्तियाँ
  28. हिंदू-देवताओंके विचित्र वाहन, देश और चरित्र
  29. भोजनकी सात्त्विकता से मनकी पवित्रता आती है!
  30. भोजन का आध्यात्मिक उद्देश्य
  31. सात्त्विक आहार क्या है?
  32. मन को विकृत करनेवाला राजसी आहार क्या है?
  33. तामसी आहार क्या है?
  34. स्थायी सुख की प्राप्ति
  35. मध्यवर्ग सुख से दूर
  36. इन वस्तुओं में केवल सुखाभास है
  37. जीवन का स्थायी सुख
  38. आन्तरिक सुख
  39. सन्तोषामृत पिया करें
  40. प्राप्त का आदर करना सीखिये
  41. ज्ञान के नेत्र
  42. शान्ति की गोद में
  43. शान्ति आन्तरिक है
  44. सबसे बड़ा पुण्य-परमार्थ
  45. आत्मनिर्माण कैसे हो?
  46. परमार्थ के पथपर
  47. सदुपदेशों को ध्यानपूर्वक सुनिये
  48. गुप्त सामर्थ्य
  49. आनन्द प्राप्त करनेके अचूक उपाय
  50. अपने दिव्य सामर्थ्यों को विकसित कीजिये
  51. पाप से छूटने के उपाय
  52. पापसे कैसे बचें?
  53. पापों के प्रतीकार के लिये झींके नहीं, सत्कर्म करे!
  54. जीवन का सर्वोपरि लाभ
  55. वैराग्यपूर्ण स्थिति
  56. अपने-आपको आत्मा मानिये
  57. ईश्वरत्व बोलता है
  58. सुखद भविष्य में विश्वास करें
  59. मृत्यु का सौन्दर्य

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