गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट अमृत के घूँटरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....
दुर्योधन समझता था कि भरी सभामें द्रौपदीकी मानहानि करके वह कोई पापकर्म नहीं कर रहा है। कंस समझता था कि देवकीके पुत्रोंकी हत्या करनेमें कुछ अनुचित नहीं है। रावण समझता था कि महासती सीताका अपहरण कर लंका ले जानेमें कुछ भी बुराई नहीं है। बाली स्वयं अपने भाईकी सम्पत्ति हड़पने और सतानेमें दुर्व्यवहार नहीं मानता था।
किंतु पाप तो सिरपर चढ़कर बोलता है। पापीको नष्ट कर देता है। दुर्योधन, कंस, रावण, बाली आदि सबके पाप ही उन्हें खा गये, सदाके लिये श्मशानमें जलकर वे राख हो गये और छोड़ गये अपने पापोंकी काली छाया! पाप अथवा दुराचार चाहे कैसे भी क्यों न हो, मनुष्यका सपरिवार नाश कर देता है।
पाप कभी-न-कभी, देर-सबेर अवश्य प्रकट होता है और सर्वनाशका कारण बनता है।
तुम्हारी ईमानदारी, सज्जनता, सचाई, निष्पक्षता आदिका बच्चोंपर, आनेवाली नयी पीढ़ीपर बड़ा प्रभाव पड़ता है। जैसे स्वयं माता-पिता होते है, वैसे ही उनके पुत्र-पुत्री आदि होते हैं। पापाचारके वातावरणमें पले हुए बच्चे स्वभावतः दुष्ट हो जाते हैं।
सद्गृहस्थीमें हमारे मनोविकार स्वच्छ होते रहते है, उनका विष दूर होता रहता है। बच्चों और धर्मपत्नीके सुखद सम्पर्कमें लोभ, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष आदि मनोविकारोंका शोध होता है। इसलिये ईमानदारीका जीवन ही हर प्रकारसे वरणीय है, पूरे समाजका हित करनेवाला है।
अत्याचार, अन्याय, हिंसा, झूठ, कपट, व्यभिचार तुम्हारी आत्माके गुण नहीं है। इनसे तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं है। इन्द्रियाँ तुम्हें गुलाम नहीं बना सकतीं।
तुम तो निर्विकार सत्-चित्-आनन्द आत्मा हो। पूर्ण शान्त आत्मा हो। स्वतन्त्र हो। स्वच्छ हो। न्यायकारी हो। मानसिक संतुलनसे पूर्ण हो। परमात्मा सर्वव्यापी और न्यायकारी है। आत्माके रूपमें वह तुम्हारे अन्दर विराजमान है। विवेकको सर्वोपरि मानना, दिव्यशक्तियों का विकास करना, मानवता को ऊँचा उठाना-इन सत्यप्रवृत्तियोंमें ही तुम्हारी महत्ता संनिहित है।
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