गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट अमृत के घूँटरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....
मनुष्यत्व को जीवित रखनेका उपाय-अर्थशौच
मनुजी का कथन है-
सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं परं स्मृतम्।
योऽर्थे शुचिर्हि स शचिर्न मृद्वारिशचिः रुचिः।।
आज मानव-समाजमें जो अशान्ति दिखायी दे रही है, उसका एक महान् कारण अर्थशौचका अभाव है। हमारा जीविकोपार्जन शुचि अर्थात् पवित्र तरीकोंकोंसे नहीं हो रहा है। 'अर्थशौच' का अर्थ है कि हम जो धन कमाये, वह पवित्रता, सचाई, ईमानदारी और परिश्रमसे ही कमायें। धनका उपार्जन धार्मिक दृष्टिसे ही हो। उसमें अनुचित उपायोंका अवलम्बन न किया जाय। सद्गृहस्थको यह ध्यान रखना चाहिये कि कहीं उसकी कमाईमें कोई अधर्मका पैसा न आ जाय। अधर्मकी कमाई ही दुःखोंकी जड़ है। अधर्मका पैसा एक प्रकारकी अग्नि है, जो ईमानदारीकी कमाईको भी नष्ट कर देती है।
एक बारकी बात है, एक दूधवाला दूधमें पानी मिलाकर बेचा करता था। आधा दूध तो आधा पानी। उसे सच्चा समझकर लोग उसका दूध खरीदते थे। दों-एक बार किसीको संदेह भी हुआ; उसे सावधान भी किया गया; किंतु वह न माना। उसकी कपड़ेकी थैली रुपयोंसे भरती गयी। उसे देख-देखकर वह बड़ा प्रसन्न होता। प्रायः चुपचाप अपने रुपयोंको गिना करता। एक दिन संयोगवश थैलीको एक बंदर उठा भागा और एक वृक्षपर जा बैठा। वृक्ष एक नदीके किनारे लगा हुआ था। दूधवाला बहुत चीखा-चिल्लाया, भागा-दौड़ा। बंदरको बहुत-से प्रलोभन दिये गये, पर वह न माना। एक मुट्ठी रुपये ग्वालेकी ओर फेंक देता, दूसरी मुट्ठी नदीमें फेंक देता। यह क्रम बहुत देरतक यों ही चलता रहा। ग्वाला नदी-किनारे खड़ा-खड़ा रोता रहा। अन्तमें सारी थैली खाली हो गयी। ग्वाले के पास आधी रकम ही शेष रही। यह उसकी वह कमाई थी जो वास्तवमें उसे मिलनी चाहिये थी। धर्मकी कमाई ही बचती है।
हमें एक परचून के दूकानदारने अपनी आर्थिक हालतके बारेमें सुनाते हुए कहा था-'आजकल मेरी यह छोटी-सी दूकान आप देखते है, किंतु मैंने अपने जीवनमें बड़े-बड़े उतार-चढ़ाव देखे है। हजार-हजार रुपये कमाये और खर्च किये हैं।'
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- सुख किसमें है?
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- भोजन का आध्यात्मिक उद्देश्य
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- शान्ति की गोद में
- शान्ति आन्तरिक है
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