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गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट

अमृत के घूँट

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :185
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5984
आईएसबीएन :81-293-0130-X

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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....

हमने पूछा-'हजार रुपये कमानेवाला गिरता-गिरता भी दो-चार सौसे कम क्या कमायेगा? यह सब क्या क्यों कैसे हुआ रे?' वह पुनः बोला, 'मैंने एक छोटी-सी रकमसे काम शुरू किया था। दूकानपर एक नौकर था। कुछ पैसे जमा किये; फिर अकेले अपनी दूकान चलायी। उसमें साधारणतः अच्छी रोटी मिलने लगी। तृष्णाएँ बढ़ चलीं। तृष्णाका वेग बड़ा बलवान् है। आरम्भमें यह लक्षित नहीं होती, किंतु धीरे-धीर भीतर-ही-भीतर बढ़ती जाती है और अन्तमें तो इतनी बढ़ जाती है कि मनुष्यको अंधा कर देती है। मुझे सट्टेका शौक लगा। मेरा संग एक ऐसे व्यक्तिसे हुआ जो सट्टेसे धनिक बन गया था। मैंने भी वही प्रारम्भ किया, आय अनाप-शनाप बढ़ती गयी। बढ़ते-बढ़ते मेरी आय हजार रुपये महीने तक हो गयी। धनकी लालसा फिर भी बढ़ती गयी। धन ही मेरा साध्य बन गया। मैं अपने सामने किसीको कुछ भी न समझता था। एक दिन जब मैं अपनी प्रतिष्ठाके सर्वोच्च शिखरपर था, पासा यकायक पलटा। एक ही दाँव में मैं सब हार गया। वरं कुछ ऋण भी हो गया। उसे अपनी चीज और घरवालीका जेवर बेचकर चुकाना पड़ा। जैसे वह धन आया था, वैसे ही पलक मारते चला गया और मुझे पहलेसे कहीं दीन-हीन छोड़ गया। अब मैं फिर अपनी पुरानी दूकानपर वैसे ही थोड़ा-बहुत कमाकर निर्वाह करता हूँ।'

धनसे मोक्षके अनेक साधन इकट्ठे किये जा सकते है, पर संसारके सभी पदार्थ गुण-दोषमय होते हैं। धन भी ऐसा ही है। समझदार मनुष्यका यह काम है कि वह पदार्थोंका इस रीतिसे उपयमो क्ये, जिससे उसको गुणोंका लाभ मिले, दोष दूर ही रहें। धनको यदि ईमानदारी और धर्मसे न कमाया जाय तो उसमें विष-जैसा असर आ जाता है, वेश्याएँ जितना धन कमाती है, उसका अनुमान भी नहीं किया जा सकता। चोर-डाकू लूट-मार करके बहुत-सा धन कमाते है न कभी वेश्याको किसीने फूलते-फलते देखा है, न चोरकी झोपड़ीपर फूँस रहा है। रुपयेसे वदी रहनेवाली वेश्याकी अन्तगति भयंकर यातनाओंसे भरी होती है। कोई उसे कफन भी देनेवाला नहीं मिलता। नगर-पालिकाके अनाथ फण्डसे भंगी उसका शरीर फूँकते है। इसी प्रकार डकैत या तो पुलिसकी गोलीका शिकार बनते है अथवा सड़-सड़कर जेलके सीखचोंमें मरते है। यह है पापकी कमाईका विष, जो अन्त समयतक दण्ड देता रहता है।

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    अनुक्रम

  1. निवेदन
  2. आपकी विचारधारा की सही दिशा यह है
  3. हित-प्रेरक संकल्प
  4. सुख और स्वास्थ के लिये धन अनिवार्य नहीं है
  5. रुपये से क्या मिलता है और क्या नहीं
  6. चिन्ता एक मूर्खतापूर्वक आदत
  7. जीवन का यह सूनापन!
  8. नये ढंग से जीवन व्यतीत कीजिये
  9. अवकाश-प्राप्त जीवन भी दिलचस्प बन सकता है
  10. जीवन मृदु कैसे बने?
  11. मानव-हृदय में सत्-असत् का यह अनवरत युद्ध
  12. अपने विवेकको जागरूक रखिये
  13. कौन-सा मार्ग ग्रहण करें?
  14. बेईमानी एक मूर्खता है
  15. डायरी लिखने से दोष दूर होते हैं
  16. भगवदर्पण करें
  17. प्रायश्चित्त कैसे करें?
  18. हिंदू गृहस्थ के लिये पाँच महायज्ञ
  19. मनुष्यत्व को जीवित रखनेका उपाय-अर्थशौच
  20. पाठ का दैवी प्रभाव
  21. भूल को स्वीकार करने से पाप-नाश
  22. दूसरों की भूलें देखने की प्रवृत्ति
  23. एक मानसिक व्यथा-निराकरण के उपाय
  24. सुख किसमें है?
  25. कामभाव का कल्याणकारी प्रकाश
  26. समस्त उलझनों का एक हल
  27. असीम शक्तियोंकी प्रतीक हमारी ये देवमूर्तियाँ
  28. हिंदू-देवताओंके विचित्र वाहन, देश और चरित्र
  29. भोजनकी सात्त्विकता से मनकी पवित्रता आती है!
  30. भोजन का आध्यात्मिक उद्देश्य
  31. सात्त्विक आहार क्या है?
  32. मन को विकृत करनेवाला राजसी आहार क्या है?
  33. तामसी आहार क्या है?
  34. स्थायी सुख की प्राप्ति
  35. मध्यवर्ग सुख से दूर
  36. इन वस्तुओं में केवल सुखाभास है
  37. जीवन का स्थायी सुख
  38. आन्तरिक सुख
  39. सन्तोषामृत पिया करें
  40. प्राप्त का आदर करना सीखिये
  41. ज्ञान के नेत्र
  42. शान्ति की गोद में
  43. शान्ति आन्तरिक है
  44. सबसे बड़ा पुण्य-परमार्थ
  45. आत्मनिर्माण कैसे हो?
  46. परमार्थ के पथपर
  47. सदुपदेशों को ध्यानपूर्वक सुनिये
  48. गुप्त सामर्थ्य
  49. आनन्द प्राप्त करनेके अचूक उपाय
  50. अपने दिव्य सामर्थ्यों को विकसित कीजिये
  51. पाप से छूटने के उपाय
  52. पापसे कैसे बचें?
  53. पापों के प्रतीकार के लिये झींके नहीं, सत्कर्म करे!
  54. जीवन का सर्वोपरि लाभ
  55. वैराग्यपूर्ण स्थिति
  56. अपने-आपको आत्मा मानिये
  57. ईश्वरत्व बोलता है
  58. सुखद भविष्य में विश्वास करें
  59. मृत्यु का सौन्दर्य

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