गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट अमृत के घूँटरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....
हमने पूछा-'हजार रुपये कमानेवाला गिरता-गिरता भी दो-चार सौसे कम क्या कमायेगा? यह सब क्या क्यों कैसे हुआ रे?' वह पुनः बोला, 'मैंने एक छोटी-सी रकमसे काम शुरू किया था। दूकानपर एक नौकर था। कुछ पैसे जमा किये; फिर अकेले अपनी दूकान चलायी। उसमें साधारणतः अच्छी रोटी मिलने लगी। तृष्णाएँ बढ़ चलीं। तृष्णाका वेग बड़ा बलवान् है। आरम्भमें यह लक्षित नहीं होती, किंतु धीरे-धीर भीतर-ही-भीतर बढ़ती जाती है और अन्तमें तो इतनी बढ़ जाती है कि मनुष्यको अंधा कर देती है। मुझे सट्टेका शौक लगा। मेरा संग एक ऐसे व्यक्तिसे हुआ जो सट्टेसे धनिक बन गया था। मैंने भी वही प्रारम्भ किया, आय अनाप-शनाप बढ़ती गयी। बढ़ते-बढ़ते मेरी आय हजार रुपये महीने तक हो गयी। धनकी लालसा फिर भी बढ़ती गयी। धन ही मेरा साध्य बन गया। मैं अपने सामने किसीको कुछ भी न समझता था। एक दिन जब मैं अपनी प्रतिष्ठाके सर्वोच्च शिखरपर था, पासा यकायक पलटा। एक ही दाँव में मैं सब हार गया। वरं कुछ ऋण भी हो गया। उसे अपनी चीज और घरवालीका जेवर बेचकर चुकाना पड़ा। जैसे वह धन आया था, वैसे ही पलक मारते चला गया और मुझे पहलेसे कहीं दीन-हीन छोड़ गया। अब मैं फिर अपनी पुरानी दूकानपर वैसे ही थोड़ा-बहुत कमाकर निर्वाह करता हूँ।'
धनसे मोक्षके अनेक साधन इकट्ठे किये जा सकते है, पर संसारके सभी पदार्थ गुण-दोषमय होते हैं। धन भी ऐसा ही है। समझदार मनुष्यका यह काम है कि वह पदार्थोंका इस रीतिसे उपयमो क्ये, जिससे उसको गुणोंका लाभ मिले, दोष दूर ही रहें। धनको यदि ईमानदारी और धर्मसे न कमाया जाय तो उसमें विष-जैसा असर आ जाता है, वेश्याएँ जितना धन कमाती है, उसका अनुमान भी नहीं किया जा सकता। चोर-डाकू लूट-मार करके बहुत-सा धन कमाते है न कभी वेश्याको किसीने फूलते-फलते देखा है, न चोरकी झोपड़ीपर फूँस रहा है। रुपयेसे वदी रहनेवाली वेश्याकी अन्तगति भयंकर यातनाओंसे भरी होती है। कोई उसे कफन भी देनेवाला नहीं मिलता। नगर-पालिकाके अनाथ फण्डसे भंगी उसका शरीर फूँकते है। इसी प्रकार डकैत या तो पुलिसकी गोलीका शिकार बनते है अथवा सड़-सड़कर जेलके सीखचोंमें मरते है। यह है पापकी कमाईका विष, जो अन्त समयतक दण्ड देता रहता है।
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- परमार्थ के पथपर
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- जीवन का सर्वोपरि लाभ
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- ईश्वरत्व बोलता है
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