गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट अमृत के घूँटरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....
मैं साधारण हैसियतका व्यक्ति, भला बम्बई या विलायत जानेकी स्वप्न में भी क्या आशा कर सकता था? जो कुछ जहाँ मिला खाया, डाक्टरोंसे बहुत दवाई करायी। अन्ततः निराश, निरुपाय, थका-हारा अपने घर नजीबाबाद लौट आया। मैं कमजोर होते-होते ऐसा हो गया था कि चारपाईपर ही शौचादिसे निवृत होता था। एक-एक दिन मृत्युकी प्रतीक्षा कर रहा था। जीवन-दीप टिमटिमा रहा था। एक डाक्टर साहबने तो यहाँतक भविष्यवाणी की कि यह सावन आप न देख सकेंगे। यह आषाढ़ के महीनेकी बात है।
'मैने सोचा, जब मरना ही है के परहेज भी क्यों किया जाय। सब इच्छाएँ पूर्ण करूँ। जिस चीजको मन करे, खाऊँ।' अतः सब कुछ छोड़ अन्तिम दिनकी प्रतीक्षा होने लगी।
'एक दिन देवीके मन्दिरमें गया। बैठकर जीवन-मरणपर विचार कर रहा था। मृत्यु क्या है? कैसी है? आत्माका स्वरूप क्या है? अनेक छोटे-बड़े प्रश्र मनमें तूफान मचा रहे थे। इतनेमें क्या देखता हूँ कि एक साधु-महात्मा मन्दिर में प्रविष्ट हो इधर आ रहे है।'
'उन्होंने मुझसे चिन्ताका कारण पूछा। मैंने अपनी बीमारीकी सम्पूर्ण कहानी आदिसे अन्ततक सच-सच कह सुनायी। वे दयार्द्र हो उठे।'
बोले, 'सब कुछ तुम कर बैठे, पर एक डाक्टरकी दवा शेष रह गयी है। उसका भी इलाज कर देखो। बड़ा चमत्कारी डाक्टर है। ऐसे-ऐसे आश्चर्यजनक कार्य करता है कि असाध्य रोगतक ठीक हो जाते हैं। उस डाक्टरकी प्रसिद्धि सर्वत्र फैल रही है।'
'मैंने का, 'वह कौन डाक्टर है?'
उन्होंने कहा, वह डाक्टर है भगवान्। भगवान्का इलाज भी कर देखो।'
मेरे पास कोई उत्तर न था? मैंने सिर झुका दिया।
'उन्होंने चिकित्सा-विधि बतलायी, 'जलके स्थानपर प्रत्येक बार गंगाजलका ही सेवन कीजिये। जब प्यास लगे, गंगाजल लीजिये और उसके साथ तीन माशे पिसी हुई सोंठ खाते रहिये। २१ दिनतक कोई भोजन न खाइये। आपका भोजन केवल सोंठ और गंजाजल ही है।'
'यह कहकर वे चले गये। मैं मन्दिरसे बाहर आ चबूतरे पर बैठ गया। विचार निरन्तर एक-दूसरेसे टकरा रहे थे। सोचा कि अवश्य यह दवा करूँगा, अन्तिम बार इसे भी आजमा देखूँ।'
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