गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट अमृत के घूँटरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....
मनुष्यका यह स्वभाव है कि जब कोई भूल हो जाती है, तब वह उसे छिपाये रखना चाहता है। एक झूठा, कपट, रिश्वत या बेईमानी को छिपाये रखने के लिये दो-चार और झूठ बोलता है। अपनी की हुई गलतियों या अन्यायको गुप्त रखनेके लिये बहुत व्यय करता है। पूँजीपति विलासी व्यक्ति अपने धनका दुरुपयोग कर वासनापूर्तिके साधन एकत्र करते है; फिर पापोंको गुप्त रखनेके लिये हजारों रुपये व्यय करते है। फिर भी देर-सबेर पाप प्रकट होकर ही रहता है। कहीं अग्नि भी घरमें छिपायी जा सकती है? रुई कबतक अंगारेको ढके रहेगी? अतः कभी-न-कभी कलई खुल ही जाती है और अप्रतिष्ठा का कारण बनती है। इससे उत्तम तो यही है कि हम स्वयं ही अपनी भूलोंको सबके सामने स्वीकार कर पश्चात्ताप कर ले। भविष्यमें न करनेका प्रण करें।
स्मरण रखिये, छिपानेसे आपकी छोटी-सी भूल भी बड़ी बनती जाती है; क्योंकि उसमें एकके बाद दो-चार और भी कपट मिलते और एकत्र होते रहते है। मामला और भी पेचीदा होता जाता है। जैसे गन्दी वस्तुको छिपाकर रखनेसे दुर्गन्ध उत्पन्न हो जाती है। फिर उसे स्वच्छ कर सूर्यकी रोशनी देनेसे दुर्गन्ध दूर होती है। नयी स्वच्छ हवा उस स्थानको स्वच्छ कर देती है, इसी प्रकार भूलरूपी गंदगीको प्रकट कूर देनेसे आत्माका भार दूर हो जाता है, मानसिक उलझनें दूर हो जाती है।
प्रत्येक छिपाया हुआ पाप, भूल, कपट, मिथ्याचार, रिश्वत, झूठ, फरेब आपके मनके गुप्त प्रदेशमें छिपा रहकर जीवनको पेंचीदा और दम्भपूर्ण बनाता है। यह दुराव मनमें ग्रन्थियोंके रूपमें बराबर बना रहता है। स्वप्नोंमें प्रकट होता है। हमारे जीवनके विचित्र अनियन्त्रित व्यवहारोंका कारण बनता है। इससे अधिकांश शारीरिक रोग-नासूर, भगंदर, दमा, बवासीर, खाँसी, संग्रहणी-इत्यादि हो जाते है। चिरस्थायी रोग प्रायः गोपनीय मनोवृत्तिके कारण उत्पन्न होते हैं।
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