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गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट

अमृत के घूँट

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :185
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5984
आईएसबीएन :81-293-0130-X

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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....

दूसरों की भूलें देखने की प्रवृत्ति

मनुष्यमें एक कमजोरी यह है कि वह अपनी भूलों और गलतियोंकी ओर तो ध्यान नहीं देता, दूसरोंका दोष-दर्शन करता है। दूसरोंका दोष निकालना एक ऐसी कमजोरी है, जिसके द्वारा मनुष्य अपनी कमजोरियोंपर पर्दा डाले रखना चाहता है। यदि हमसे कोई भूल हो भी जाती है तो भी हम उसका उत्तरदायित्व दूसरोंपर ही डाले रखना चाहते है। कभी अपनी भूलोंको ही उपयोगी या आवश्यक सिद्ध करनेका दुःसाहस करते है। ये सभी रूप मृणित है। विचारवान् वे है, जो दूसरोंकी भूलें न देखकर पहले स्वयं अपने दोष और दुर्गुणोंकी निकालनेका प्रयत्न करते हैं।

थोड़े-से पाप, जरा-सा झूठ, तनिक-से मानसिक वासनामय चिन्तन-तकको मनमें न आने दीजिये। एक-एक बूँदसे पापका घड़ा भर जाता है। थोड़ी-थोड़ी पापकी बात सोचनेसे ही मनुष्य कुछ समयमें पापके पंकमें डूब जाता है। सावधान!

पुरानी भूलोंको लेकर अधिक पछताना, दिनभर दुःखी रहना, अपनेको पतित समझना छोड़ दीजिये। आप तो भविष्यमें ईमानदारी का जीवन व्यतीत करनेका संकल्प कीजिये।

परिस्थितियोंके जालमें फँसकर यदि मनुष्य कोई अपराध कर बैठता है तो वह वास्तवमें पापी नहीं होता।

पुरानी भूलोंके प्रति सच्चे हृदयसे पश्चात्ताप कीजिये। सबके सामने पूरे साहससे भूलको स्वीकार कर लीजिये। वे उदारतापूर्वक आपको क्षमा कर देंगे। भूल स्वीकार करनेसे आत्मसंतोष मिलेगा। भविष्यमें आप उस मार्गसे न जायँगे। आगे बढ़नेवाले कभी पीछे फिरकर नहीं देखा करते।

एक विद्वान्ने सत्य ही लिखा है, 'आप कठिनाइयों से बचना या छुटकारा प्राप्त करना चाहते है तो अपने भीतरी दोषोंको ढूँढ़ डालिये और उन्हें नष्टकर बाहर निकालनेमें जुट जाइये। दुर्गुणरूपी काँटोंको हटाकर उनके स्थानपर अपने हृदय-उद्यानमें सद्गुणोंके पुष्पमय पौधे लगाइये। जिस अनुपातमें आप यह कार्य कर सकेंगे, उसके अनुसार ही आप विपत्तिसे छूटकर स्थायी उन्नतिकी ओर अग्रसर होते जायेंगे।

भगवान् करुणामय है। वे बड़े-से-बड़े पापीकी भूलोंतकको सहर्ष क्षमा कर देते है। यदि हम आर्तभावसे सच्चे हृदयसे उनसे अपने पापोंकी क्षमा माँगें तो वे उदारतापूर्वक क्षमा कर देते है। पापी, दुरात्मा, वेश्याएँ चोर-सभी सच्चे हृदयसे क्षमा माँगनेपर सद्गृहस्थका पवित्र जीवन प्रारम्भ कर सकते हैं। निष्कलुष जीवन व्यतीत करनेमें ही आत्मसंतोष प्राप्त होता है।

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    अनुक्रम

  1. निवेदन
  2. आपकी विचारधारा की सही दिशा यह है
  3. हित-प्रेरक संकल्प
  4. सुख और स्वास्थ के लिये धन अनिवार्य नहीं है
  5. रुपये से क्या मिलता है और क्या नहीं
  6. चिन्ता एक मूर्खतापूर्वक आदत
  7. जीवन का यह सूनापन!
  8. नये ढंग से जीवन व्यतीत कीजिये
  9. अवकाश-प्राप्त जीवन भी दिलचस्प बन सकता है
  10. जीवन मृदु कैसे बने?
  11. मानव-हृदय में सत्-असत् का यह अनवरत युद्ध
  12. अपने विवेकको जागरूक रखिये
  13. कौन-सा मार्ग ग्रहण करें?
  14. बेईमानी एक मूर्खता है
  15. डायरी लिखने से दोष दूर होते हैं
  16. भगवदर्पण करें
  17. प्रायश्चित्त कैसे करें?
  18. हिंदू गृहस्थ के लिये पाँच महायज्ञ
  19. मनुष्यत्व को जीवित रखनेका उपाय-अर्थशौच
  20. पाठ का दैवी प्रभाव
  21. भूल को स्वीकार करने से पाप-नाश
  22. दूसरों की भूलें देखने की प्रवृत्ति
  23. एक मानसिक व्यथा-निराकरण के उपाय
  24. सुख किसमें है?
  25. कामभाव का कल्याणकारी प्रकाश
  26. समस्त उलझनों का एक हल
  27. असीम शक्तियोंकी प्रतीक हमारी ये देवमूर्तियाँ
  28. हिंदू-देवताओंके विचित्र वाहन, देश और चरित्र
  29. भोजनकी सात्त्विकता से मनकी पवित्रता आती है!
  30. भोजन का आध्यात्मिक उद्देश्य
  31. सात्त्विक आहार क्या है?
  32. मन को विकृत करनेवाला राजसी आहार क्या है?
  33. तामसी आहार क्या है?
  34. स्थायी सुख की प्राप्ति
  35. मध्यवर्ग सुख से दूर
  36. इन वस्तुओं में केवल सुखाभास है
  37. जीवन का स्थायी सुख
  38. आन्तरिक सुख
  39. सन्तोषामृत पिया करें
  40. प्राप्त का आदर करना सीखिये
  41. ज्ञान के नेत्र
  42. शान्ति की गोद में
  43. शान्ति आन्तरिक है
  44. सबसे बड़ा पुण्य-परमार्थ
  45. आत्मनिर्माण कैसे हो?
  46. परमार्थ के पथपर
  47. सदुपदेशों को ध्यानपूर्वक सुनिये
  48. गुप्त सामर्थ्य
  49. आनन्द प्राप्त करनेके अचूक उपाय
  50. अपने दिव्य सामर्थ्यों को विकसित कीजिये
  51. पाप से छूटने के उपाय
  52. पापसे कैसे बचें?
  53. पापों के प्रतीकार के लिये झींके नहीं, सत्कर्म करे!
  54. जीवन का सर्वोपरि लाभ
  55. वैराग्यपूर्ण स्थिति
  56. अपने-आपको आत्मा मानिये
  57. ईश्वरत्व बोलता है
  58. सुखद भविष्य में विश्वास करें
  59. मृत्यु का सौन्दर्य

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