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गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट

अमृत के घूँट

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :185
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5984
आईएसबीएन :81-293-0130-X

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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....

मनुष्यके मनमें दो भाग है-एक बहिर्मन, दूसरा गुप्त मन। जो बात हमारे गुप्त मनमें दृढ़तासे एक बार पैठ जाती है, वह उसे मजबूती से पकड़ लेती है। बहिर्मन हमारी चेतनावस्थामें हमारे शरीर और संकल्पको प्रभावित करता है। जब हम दिनमें चलते-फिरते रहते या काम करते रहते है, तब हमारा बहिर्मन हमारे इच्छानुसार कार्य करता रहता है; परंतु हमारी प्रसुप्त वासनाएँ चुपचाप गुप्त मनमें बैठी-बैठी शरीरपर अपना अधिकार जमानेकी बाट देखा करती है। जब निद्रावस्थामें बहिर्मनका प्रभाव शिथिल हो जाता है, तब अव्यक्त या गुप्त वासनाएँ चेतनाके स्तरपर आ जाती है और शरीरको अपनी ओर ले जाती है। सुप्त और अव्यक्त भावनाओंका विवेकके साथ द्वन्द्व होता रहता है। इससे मानसिक संतुलन ठीक नहीं रहता। चित्तवृत्ति अशान्त रहती है। व्यक्त और अव्यक्त वासनाओं और विवेकका द्वन्द्व ही मानसिक रोग है। जबतक गुप्त मनमें बैठी हुई अनैतिक वासनाएँ या प्रसुप्त-गुप्त इच्छाएँ तृप्त नहीं होतीं या उन्हें विवेक-बुद्धिके द्वारा उचित मार्ग-निर्देंश नहीं होता, तबतक मानसिक संतुलन स्थिर नहीं रह सकता। व्यक्त और अव्यक्त मन तथा इच्छाओंके पूर्णमतैक्य-(Harmony) का नाम ही आनन्द या मोक्ष है। इस अवस्थामें आत्मा पूर्ण तृप्त रहती है। जिस अनुपातमें ये दोनों मन संतुलित रहते है, उसी अनुपातमें तृप्ति या आनन्द रहता है।

उपर्युक्त मानसिक रोगीके गुप्त मनमें किसी व्यक्ति विशेष, सम्भवतः किसी नारीके प्रति वासनामूलक आकर्षण था। समाजके नैतिक नियन्त्रण और लोकलाजके भयसे बहिर्मन उसे बुरा-बुरा कहता रहा, पर गुप्त मनमें प्रेमभावना मजबूतीसे जड़ पकड़ गयी। यह अतृप्त या अपूर्ण वासना दबकर गुप्त मनमें एक वासनाग्रन्धि (Complex) बन गयी, दबकर कोई भी वासना अधिक दिनतक काबूमें नहीं रह सकती। वह परितृप्तिका मौका ढूँढ़ती रहती है। रात्रिमें जब बाह्य मन सो जाता है, तब अव्यक्त वासनाएँ चेतनाके स्तरपर आकर शरीरको उसी ओर खींचती है। उपर्युक्त रोगीका बाह्य मन सामाजिक और नैतिक पतनके विचारसे अव्यक्त वासनाको दबाता है, पर गुप्त मन अवसर पाकर शान्ति पानेके लिये अपयशका विचार न करके फिर अपने व्यक्ति-विशेषकी ओर दौड़ता है। जबतक गुप्त मनकी इन रुकी हुई अतृप्त वासनाओंका रूपान्तर नहीं हो जाता या उनकी गतिकी दिशा नहीं बदल दी जाती, तबतक मानसिक रोग बना ही रहेगा। यही अवस्था अनेक व्यक्तियों, बड़े-बड़े कवियों, लेखकों, सैनिकों की हुई है। वाल्मीकि, कालीदास, तुलसीदास आदिने अपनी वासनाओंको भक्ति, ज्ञान, काव्य, साहित्यके रूपमें बदल दिया अर्थात् नया रूपान्तर दे दिया। इस रूपान्तरसे वासनाओंको एक स्वस्थ दिशामें प्रवाहित होनेका मौका मिला। ये व्यक्ति स्वस्थ भी हो गये और संसारके ज्ञानभण्डारमें भी वृद्धि हुई। वासनाओंका रूपान्तर (Sex-transmutation) वह उपाय है, जिसके द्वारा अव्यक्त या प्रसुप्त वासनाओंका द्वन्द्व दूर कर उन्हें चरितार्थ होनेकी एक नयी स्वस्थ दिशा प्रदान की जा सकती है। तभी दबी हुई मानसिक रोग उत्पन्न करनेवाली वासनाको उपयोगी बनाया जा सकता है। स्वस्थ और आनन्दित रहनेके लिये यह आवश्यक है कि मन दुर्वासनाओंसे मुक्त रहे और विवेक रहित गंदी विचारधाराओं का उसमें प्रवेश ही न हो।

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    अनुक्रम

  1. निवेदन
  2. आपकी विचारधारा की सही दिशा यह है
  3. हित-प्रेरक संकल्प
  4. सुख और स्वास्थ के लिये धन अनिवार्य नहीं है
  5. रुपये से क्या मिलता है और क्या नहीं
  6. चिन्ता एक मूर्खतापूर्वक आदत
  7. जीवन का यह सूनापन!
  8. नये ढंग से जीवन व्यतीत कीजिये
  9. अवकाश-प्राप्त जीवन भी दिलचस्प बन सकता है
  10. जीवन मृदु कैसे बने?
  11. मानव-हृदय में सत्-असत् का यह अनवरत युद्ध
  12. अपने विवेकको जागरूक रखिये
  13. कौन-सा मार्ग ग्रहण करें?
  14. बेईमानी एक मूर्खता है
  15. डायरी लिखने से दोष दूर होते हैं
  16. भगवदर्पण करें
  17. प्रायश्चित्त कैसे करें?
  18. हिंदू गृहस्थ के लिये पाँच महायज्ञ
  19. मनुष्यत्व को जीवित रखनेका उपाय-अर्थशौच
  20. पाठ का दैवी प्रभाव
  21. भूल को स्वीकार करने से पाप-नाश
  22. दूसरों की भूलें देखने की प्रवृत्ति
  23. एक मानसिक व्यथा-निराकरण के उपाय
  24. सुख किसमें है?
  25. कामभाव का कल्याणकारी प्रकाश
  26. समस्त उलझनों का एक हल
  27. असीम शक्तियोंकी प्रतीक हमारी ये देवमूर्तियाँ
  28. हिंदू-देवताओंके विचित्र वाहन, देश और चरित्र
  29. भोजनकी सात्त्विकता से मनकी पवित्रता आती है!
  30. भोजन का आध्यात्मिक उद्देश्य
  31. सात्त्विक आहार क्या है?
  32. मन को विकृत करनेवाला राजसी आहार क्या है?
  33. तामसी आहार क्या है?
  34. स्थायी सुख की प्राप्ति
  35. मध्यवर्ग सुख से दूर
  36. इन वस्तुओं में केवल सुखाभास है
  37. जीवन का स्थायी सुख
  38. आन्तरिक सुख
  39. सन्तोषामृत पिया करें
  40. प्राप्त का आदर करना सीखिये
  41. ज्ञान के नेत्र
  42. शान्ति की गोद में
  43. शान्ति आन्तरिक है
  44. सबसे बड़ा पुण्य-परमार्थ
  45. आत्मनिर्माण कैसे हो?
  46. परमार्थ के पथपर
  47. सदुपदेशों को ध्यानपूर्वक सुनिये
  48. गुप्त सामर्थ्य
  49. आनन्द प्राप्त करनेके अचूक उपाय
  50. अपने दिव्य सामर्थ्यों को विकसित कीजिये
  51. पाप से छूटने के उपाय
  52. पापसे कैसे बचें?
  53. पापों के प्रतीकार के लिये झींके नहीं, सत्कर्म करे!
  54. जीवन का सर्वोपरि लाभ
  55. वैराग्यपूर्ण स्थिति
  56. अपने-आपको आत्मा मानिये
  57. ईश्वरत्व बोलता है
  58. सुखद भविष्य में विश्वास करें
  59. मृत्यु का सौन्दर्य

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