गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट अमृत के घूँटरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....
अतः इस लेखमें वर्णित रोगीको आरोग्य और आनन्दमय जीवन बनाने और मानसिक रोगसे बचनेके लिये निम्न सुझाव दिये गये-
१-स्थान परिवर्तन
प्रत्येक विचार या वासनाका सम्बन्ध स्थान-विशेषसे होता है। एक विशेष स्थानमें रहनेसे हमारे मनमें एक विशेष प्रकारकी इच्छाएँ पैदा होती है। स्थानके इर्द-गिर्द एक प्रकारके विचारोंका गुप्त वातावरण छाया रहता है। मन्दिरमें जानेसे पवित्र विचारोंका प्रवाह स्वतः आने लगता है। इसके विपरीत दूषित स्थानोंमें एक बार गुजरनेमात्रसे मन गंदी वासनाओंसे भर जाता है। अतः उपर्युक्त रोगीको यह सलाह दी गयी कि वे उस व्यक्ति विशेष से सम्बन्धित स्थान का परित्याग करके किसी रमणीय धार्मिक स्थान, तीर्थस्थान या प्रकृतिके रमणीय प्रांगणमें स्थित किसी सुरम्य वाटिकामें निवास करें। नये स्थानकी नयी परिस्थितियोंमें नये-नये स्वस्थ विचार उत्पन्न होंगे। गंदी वासनाएँ फीकी पड़ जायँगी। भोग-भावना कम होगी। यज्ञ तथा विद्वानोंके भाषणोंसे पवित्र की हुई भूमिमें उत्तम और पवित्र विचार ही उत्पन्न होते हैं। कुछ वर्ष दूसरे स्थानमें इस प्रकार निवास करनेसे मानसिक संस्थान नये रूपमें बनने लगता है। पुरानी वासनाएँ फीकी पड़कर उनके स्थानपर नयी भाव-भूमिका निर्माण होता है।
२-नये स्वस्थ विचारों का विकास
जिस गंदे विचार या वासनाको दूर करना है, उसे दबानेके स्थानपर उसके विरोधी शुभ भाव या विचार विकसित करने चाहिये। क्रोधको दूर करनेके लिये प्रेम और शान्त भावोंका विकास करना चाहिये। इसी प्रकार अति उत्तेजक वासनासे सताये हुए व्यक्तिको वैराग्य और ईश्वरके प्रति भक्ति-भावनाके पवित्र भावोंकी वृद्धि करनी चाहिये। शोक-विषादको मिटानेके लिये भगवान्के आनन्दमय रूपका ध्यान करके सर्वत्र आनन्दकी भावना करनी चाहिये। भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, विवेकके शुभ विचारोंमें निरन्तर रमण करने, पुनः-पुनः उन्हें मनमें भरे रखने और वैसे ही विचारोंमें अधिक समय बितानेसे व्यक्तित्वके इस अंगका धीर-धीरे विकास होने लगता है और वासनाओं या तुच्छ इच्छाओंका प्रभाव क्षीण हो जाता है। तुलसीदासजीने भक्तिका मार्ग ही पक्का था। अपने आराध्य रामकी भक्तिमें वे इतने तन्मय हो गये थे कि सारी आसुरी वासनाएँ दग्ध हो गयीं। भक्तिका प्रकाश उनके मनमें फैल गया। उन्हें प्रतीत हुआ कि असली सुख, शान्ति और भक्तिका भण्डार तो राम है और वे राम आत्माके रूपमें मेरे भीतर ही विराजमान है। प्रेम, भक्ति, दया और करुणाके प्रतीक राममें वे ओत-प्रोत हो गये। वासनाका कल्मष बह गया। स्वच्छ, निर्लेप आत्मा अपने सत्-चित्- आनन्दरूपमें निखर आयी। विषय-सुखकी निस्सारता प्रकट हो गयी।
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