गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट अमृत के घूँटरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....
सांसारिक सुखोंमें कोई हमें मनःशान्ति एक दिन देता है, तो दूसरा दो-चार-दिन, मास, वर्ष इत्यादि। इसी अवधिके पश्चात् ये निकम्मे और सारहीन हैं। सब सांसारिक सुख इसी प्रकार हैं। किसीकी मर्यादा अधिक है, तो किसीकी कम। कोई वस्तु या धन मनको थोड़ी देरके लिये शान्त करते हैं, तो कोई वस्तु अधिक देरतक।
आज हमलोगोंका यह गलत विचार हो गया है कि धनमें सुख है; मकान, स्त्री-पुरुष-मिलन, भोजन, विलासमें सुख है। हम अंधाधुंध इन सांसारिक वस्तुओंकी ओर भाग रहे हैं। विज्ञान विलासकी सामग्रियाँ बढ़ा रहा है और हम उनमें सुखकी कल्पना कर रहे है; किंतु एकके पक्षात् दूसरी-तीसरी वस्तुकी नयी आवश्यकता हमारे समक्ष उपस्थित हो जाती है। हम एक वस्तुका संग्रह करते है तो दूसरी चार वस्तुओंकी नयी-नयी आवश्यकताएँ और हमारे मनःपटलपर अंकित हो जाती हैं। आवश्यकताएँ निरन्तर बढ़कर हमें शान्ति, स्थिरता और संतुष्टि देनेके स्थानपर विक्षुब्ध करती रहती हैं।
हमारी बड़ी हुई इच्छाएँ और वासनाएँ ही हमारी वर्तमान अशान्तिका कारण है। इच्छाएँ और आवश्यकताएँ जितनी अल्प संख्यामें होंगी, उतनी ही अधिक सरलतापूर्वक शान्ति प्राप्त हो जायगी। सांसारिक पदार्थोंकी सबसे बड़ी खराबी यह है कि ये तृष्णाकी वृद्धि करनेवाले हैं। तृष्णाके साथ अतृप्तिकी वृद्धि होती है। वस्तुओंके संग्रहकी भावना उत्तरोत्तर मनमें विष उत्पन्न करती है और हमें विक्षुब्ध रखती है।
तृष्णा, संग्रह, विलास, सांसारिक मोह, लालच हमें संसारमें बाँधते हैं। हम अपने परिवारके मोहमें पड़कर कुछ भी आत्मिक उन्नति नहीं कर पाते। जितनी अधिक आवश्यकताएँ इच्छाएँ या वासनाएँ उतने ही अधिक दुःख, अशान्ति और अतृप्ति। वासना बिल्कुल न हो तो हमें अक्षय सुख प्राप्त हो सकता है।
सुख संग्रहमें नहीं, त्यागमें है-जिम्मेदारियों और सांसारिकताको कम करनेमें है। सांसारिकतासे जितने ही आप दूर हटते है, उतने ही आप संतुष्ट और स्थिर बनते हैं। जितना ही हम अपनी ऊपर परिवारवृद्धि द्वारा जिम्मेदारियाँ झंझट और विलासको लेते है, उतना ही दुःख तथा अशान्ति बढ़ती है। त्याग
हमारी जिम्मेदारियों को कम करता है, सांसारिकता से मुक्त करता है, उससे हमारे बन्धन छूटते है। त्याग सुखका साधन है। जो त्याग कर सकता है, वही सुखी, संतुष्ट, तृप्त और शान्त रह सकता है- 'त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्
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