गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट अमृत के घूँटरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....
भोजनकी सात्त्विकता से मनकी पवित्रता आती है!
'जैसा भोजन वैसा विचार' या 'जैसा अन्न वैसा मन' इस तथ्यमें गहरी सत्यता है। हम जैसा कुछ खाते हैं, वैसा ही मन बनता है, खाये हुएसे ही रुधिरकी उत्पत्ति होती है। इसमें वे ही गुण आते हैं, जो गुण हमारे भोजनके थे। भोजन हमारे मन, बुद्धि, अन्तःकरणके निर्माणमें सहायक है। भारतीय संस्कृतिमें अध्यात्ममार्गका अवस्थ्यन करनेवाले योगी-महात्मा, ऋषि-मुनि इत्यादि सात्त्विक प्रवृत्तिके व्यक्तियोंके लिये सात्त्विक भोजनकी ही योजना है।
मनुष्यकी सर्वांगीण उन्नति तब होती है, जब वह प्राकृतिक रूपसे मिलनेवाले भोजनसे अपने-आपको पुष्ट करता रहे। मृदुता, सरलता, सहानुभूति, शान्ति अथवा उग्रता, क्रोध, कपट, घृणा इत्यादि सब स्वभावके गुण-दोष भोजनपर ही निर्भर करते हैं। जो व्यक्ति उत्तेजक भोजन करते हैं, वे संयमसे किस प्रकार रह सकते हैं? वे शुद्ध बुद्धिका विकास कैसे कर सकते हैं? और वे कैसे दीर्घायु हो सकते हैं? राजसी आहार करनेवाले व्यक्ति यह भूल जाते हैं कि उत्तेजक भोजन करनेपर भजन-पूजन, स्वाध्याय या संयम सम्भव नहीं है।
हमारे द्वारा प्रयुक्त भोजनका तथा हमारे विचारोंका अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। भोजन हमारे संस्कार बनाता है, जिनके द्वारा हमारे विचार बनते हैं। यदि भोजन सात्त्विक है तो मनमें उत्पन्न होनेवाले विचार सात्त्विक और पवित्र होंगे; इसके विपरीत उत्तेजक या राजसी भोजन करनेवालोंके विचार अशुद्ध और विलासी होंगे। जिन लोगोंमें मांस, अंडे, लहुसन, प्याज, मद्य, चाय, तम्बाकू इत्यादिका प्रयोग किया जाता है, वे प्रायः विलासी विकारमय और गंदे विचारोंसे परिपूर्ण होते हैं। उनकी कामेन्द्रियाँ उत्तेजक रहती हैं, मन कुकल्पनाओंसे परिपूर्ण रहता है। क्षणिक प्रलोभनमें अन्तर्द्वन्द्वसे परिपूर्ण हो जाता है। भोजन हमारे स्वभाव, रुचि तथा विचारोंका निर्माता है।
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