जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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प्रस्तुत है महात्मा गाँधी की आत्मकथा ....
राजनिष्ठा और शुश्रूषा
शुद्ध राजनिष्ठा जितनी मैंने अपने में अमुभव की हैं, उतनी शायद ही दूसरे मेंदेखी हो। मैं देख सकता हूँ कि इस राजनिष्ठा का मूल सत्य पर मेरा स्वाभाविक प्रेम था। राजनिष्ठा का अथवा दूसरी किसी वस्तु का स्वांग मुझ से कभी भराही न जा सका। नेटाल ने जब मैं किसी सभा में जाता, तो वहाँ 'गॉड सेव दि किंग' (ईश्वर राजा की रक्षा करे ) गीत अवश्य गाया जाता था। मैंने अनुभवकिया कि मुझे भी उसे गाना चाहिये। ब्रिटिश राजनीति में दोष तो मैं तब भी देखता था, फिर भी कुल मिलाकर मुझे वह नीति अच्छी लगती थी। उस समय मैंमानता था कि ब्रिटिश शासन और शासको का रुख कुल मिलाकर जनता का पोषण करनेवाला हैं।
दक्षिण अफ्रीका में मैं इससे उलटी नीति देखता था, वर्ण-द्वेष देखता था। मैं मानता था कि यह क्षणिक औऱ स्थानिक हैं। इस कारणराजनिष्ठा में मैं अंग्रेजो से भी आगे बढ़ जाने का प्रयत्न करता था। मैंनेलगन के साथ मेंहनत करके अंग्रेजे के राष्ट्रगीत 'गॉड सेव दि किंग' की लयसीख ली थी। जब वह सभाओ में गाया जाता, तो मैं अपना सुर उसमें मिला दियाकरता था। और जो भी अवसर आडम्बर के बिना राजनिष्ठा प्रदर्शित करने के आते,उनमे मैं सम्मिलित होता था।
इस राजनिष्ठा को अपनी पूरी जिन्दगी में मैंने कभी भुनाया नहीं। इससे व्यक्तिगत लाभ उठाने का मैंने कभी विचारतक नहीं किया। राजभक्ति को ऋण समझकर मैंने सदा ही उसे चुकाया हैं।
मैं जब हिन्दुस्तान आया था तब महारानी विक्टोरिया का डायमंड जुबिली (हीरकजयन्ती) की तैयारियाँ चल रही थी। राजकोट में भी एक समिति बनी। मुझे उसकानिमंत्रण मिला। मैंने उसे स्वीकार किया। उसने मुझे दम्भ की गंध आयी। मैंनेदेखा कि उसमें दिखावा बहुत होता हैं। यह देखकर मुझे दुःख हुआ। समिति में रहने या न रहने का प्रश्न मेरे सामने खड़ा हुआ। अन्त में मैंने निश्चयकिया कि अपने कर्तव्य का पालन करके संतोष मानूँ।
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