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मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6387
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....


चंचला के जीवन मे उत्सव का ज्वार आ गया। सारे-सारे दिन मंजरी टैक्सी में लिए उसे बंबई दिखाती फिर रही है। सुबह दोपहर शाम। म्लान उदास, डरी सहमी लड़की को प्यार और ममता में डुबो देना चाहती थी। उपहारों से भर देना चाहती थी। शाम को समुद्र के किनारे।
रोशनी से जगमगाता मेरिन ड्राइव।
झिलमिलाता साफ सुथरा-मानो स्वर्ग से उतरा परी राज्य।
अभिभूत चंचला की समझ में नहीं आ रहा था किधर देखे। थोड़ी दूर पर उनकी टैक्सी इंतजारी कर रही थी।
उस रात की भयावह घटना को जबर्दस्ती भुलाया है चंचला ने। जबर्दस्ती अपने को सहज बनाया है। फिर भी उसकी अंतरात्मा तृषित नयनों से हर रास्ते हर दुकान हर पार्क में यह ढूंढ़ा करती कि इतने लोगों के बीच एक परिचित चेहरा दिखाई पड़ जाए। क्या यहां कलकत्ते का कोई नहीं रहता है? क्या ऐसा कोई नहीं है जिसे चंचला पहचानती है और उसके साथ कलकत्ता लौट जा सके?
कलकत्ता पहुंचकर मां के पांव पकड़कर रो लेगी, माफी मांग लेगी। सब ठीक कर लेगी वह। ओफ, कौन जानता था छोटी मौसी इतनी भयानक और अजीब हो गई है। हालांकि इधर कुछ दिनों से बहुत बदल गई है, बिल्कुल पहले जैसी लग रही है फिर भी मन चंचला का परेशान ही था। बाहर निकलते ही उसका ध्यान भीड़ भरी सड़क में परिचित चेहरा छूने लगता।
लेकिन यहां के लोग कैसे यंत्रचलित से, कठोर चेहरे वाले हैं। सभी लगातार दौड़ रहे हैं। समुद्र तट पर घूमने फिरने आए हैं उसमें भी उन्हें जल्दी लगी है। आ रहे हैं जा रहे हैं, दो मिनट बैठे नहीं कि उठकर खड़े हो जाते हैं। आज सिर्फ वे दोनों ही काफी देर से बैठी थीं। वे देख रही थीं कि उनसे थोड़ी दूर पर हटकर दो आदमी भी काफी देर से बैठे थे इधर पीठ करके।
कुर्ता पहने एक व्यक्ति की पीठ चंचला की दृष्टि बार-बार आकर्षित-कर रही थी। लग रहा था उसके बैठने का ढंग तौर तरीका बड़ा परिचित है।
क्या वह आदमी उठकर इधर आएगा?
छोटी मौसी तो उधर देख ही नहीं रही है।
"तू जरा भी बोल नहीं रही है-क्या हुआ है रे चंचला?"
चौंककर बोली चंचला, "बोल तो रही हूं।"
"कहां? लगातार तब से आसमान की तरफ देख रही है।"
"छोटी मौसी।''
"हूं। क्या हुआ?"
"उस आदमी को देख रही हो?"
"किस आदमी को?" कहकर चंचला चकित दृष्टि से इधर-उधर देखने लगी मंजरी।
"वह उधर।''
पलक झपकने भर की बात थी। बिजली का झटका लगा हो जैसे...शरीर की रगों में बिजली दौड़ गई। दूसरे ही क्षण उसने मुंह फेर लिया। किस उम्मीद से चंचला उसे दिखाना चाहती है। स्वप्नलोक के किसी एक व्यक्ति के हावभाव से उस आदमी के थोड़े बहुत हावभाव मिलते हैं इसलिए? धुंधले अंधेरे में इधर पीठ किए बैठे एक आदमी की पीठ और बैठने की मुद्रा मिलती है इसलिए?
बंगाली तो हैं।
यहां कोई धोती कुर्ता कहां पहनता है। लेकिन इसके ये मतलब तो नहीं...
चंचला पागल हो सकती है, मंजरी तो पागल नहीं है।

"मैं उधर जाऊंगी छोटी मौसी।"
"क्यों? नहीं-नहीं। उधर जाकर क्या करेगी?"
"कुछ नहीं। सिर्फ देखूंगी कि वह आदमी बंगाली है या नहीं।"
"होगा तो क्या हुआ? क्या फायदा होगा?"
"यूं ही। जाऊं ना छोटी मौसी।"
"अगर पुलिस के आदमी हुए तो?''
"क्यों?'' डर गई चंचला, "पुलिस के लोग क्यों होंगे?"
"तुझे पकड़ने के लिए, मुझे पकड़ने के लिए। तू घर से भाग आई है, मैं एक नावालिक लड़की को बहला फुसलाकर घर से बाहर निकाल लाई हूं-इसी अपराध में जेल जा सकती हूं।"
"वाह, मैं कहूंगी कि मैं अपनी मर्जी से आई हूं।"
"तेरी बात की कोई कीमत नहीं है। खबर मिलते ही तुझे पकड़कर घर ले जाएंगे और मुझे जेल ले जाएंगे।"

"और छोटी मौसी...देखो वे लोग चले जा रहे हैं।" और बिना कुछ पूछे अचानक चंचला तीर की तरह उधर दौड़ पड़ी। और समुद्री की हवा को बेधती, तितर-बितर करती उसकी आनंद मुखरित आवाज गूंज उठी, "छोटे मौसाजी।"
"चंचला!"
"मौसाजी!"
"तुम यहां? कब आई हो? बड़ी दीदी आई हैं?"
बहुत दिनों से कलकत्ते से बाहर होने की वजह से अभिमन्यु को चंचला के गायब होने की बात मालूम नहीं थी।
खुशी से बेकाबू चंचला सब कुछ भूल गई थी लेकिन अभिमन्यु का प्रश्न सुनते ही अकचका गई। अपने को संभालकर बोली, "नहीं मां नहीं आई हैं। आप कब आए हैं?"
यद्यपि अभिमन्यु के बगल वाले व्यक्ति को संपूर्ण रूप से अनदेखा करके ही वार्तालाप चलता रहता है।
"मैं? यहां आए तो सिर्फ दो दिन हुए हैं लेकिन कलकत्ता छोड़े काफी दिन हो गए हैं। और बताओ, घर में सब अच्छी तरह से तो हैं?''
"हां।"
"तुम यहां अकेली कैसे घूम रही हो? किसके साथ आई हो?"
चंचला ने क्या कहा समझ में नहीं आया।
अभिमन्यु ने भी उसके उत्तर पर विशेष ध्यान नहीं दिया। उसने सोचा सुरेश्वर की उपस्थिति के कारण इस तरह से शर्मा कर उत्तर दे रही है।
"कहां ठहरी हो?"
"क्या पता? यहां के रास्तों का नाम याद नहीं रहता है।" अभिमन्यु हंसकर बोला, "ठीक ही कह रही हो। कमला लोगों के साथ आई हो क्या? या अपनी मोटी बुआजी के साथ?"
"नहीं, उन लोगों के साथ नहीं।"
"तब फिर?" अभिमन्यु की आवाज में आश्चर्य था।

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