नारी विमर्श >> मंजरी मंजरीआशापूर्णा देवी
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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....
भूत देखकर जैसे कोई भागता है उसी तरह से वह भाग आई थी। उसने कैसे टैक्सी से
उतरकर किराया चुकाया, कैसे सीढ़ियां चढ़कर ऊपर आई, सोफे पर बैठी...कुछ भी याद
नहीं था मंजरी को।
उछलते हृदय को स्वाभाविक होने में समय लग गया।
लेकिन उसके बाद?
उसके बाद शुरू हुआ पागलों की तरह छटपटाना।
यह उसने क्या किया?
चंचला को वहीं छोड़कर भाग आई?
यह कैसी मूर्खता? कैसी दुर्बलता? क्यों उसने दुर्बलता प्रकट की? चाहती तो वह
अभिमन्यु की अवहेलना कर चंचला का हाथ पकड़ टैक्सी पर जाकर बैठ सकती थी।
जिस तरह से अभिमन्यु ने अवहेलनापूर्वक मंजरी का जीवन नरक बना दिया है उसी तरह
से वह भी तो अभिमन्यु के मुंह पर टैक्सी का धुंआ छोड़ती कहां से चली जा सकती
थी?
इच्छा होने लगी अपने आपको मारे।
जितना ही अभिमन्यु से मिलने का मौका हाथ से निकल जाने का दुःख कचोटने लगा
उतना ही चंचला के लिए मंजरी का मन छटपटाने लगा। उसने एक दायित्व ज्ञानहीन
इंसान जैसी हरकत की है-इसके लिए वह अपने आपको माफ नहीं करेगी।
फिर भी क्षोम, ग्लानि, क्रोध को दबाते ही उसके मन में एक प्रत्याशा का सुर
झंकृत होने लगा।
रात के वक्त, समुद्र के किनारे चंचला को अकेले छोड़कर चले जाना क्या अभिमन्यु
के लिए संभव होगा? उसे उसके ठिकाने पर पहुंचाने की जिम्मेदारी नहीं लेगा क्या
अभिमन्यु?
मंजरी: तो सोच ही नहीं सकती थी कि चंचला घर का पता ही नहीं बता सकेगी। अतएव
ज्यों-ज्यों रात बढ़ने लगी, त्यों-त्यों मंजरी का डर के मारे खून सूखने लगा।
कहीं सारी बातें गलत न 'हो?
आखिरकार चंचला ने ही देखा था। बुद्धिहीन, बेअक्ल चंचला ने। मंजरी ने स्पष्ट
रूप से कुछ देखा था क्या? वह क्या सचमुच ही अभिमन्यु था?
देख क्यों नहीं था? क्षण भर के लिए ही सही, स्पष्ट रूप से देखा था, चंचला के
उच्छवसित आह्वान पर मुंह फेरकर देखा था अभिमन्यु ने।
ज्यों-ज्यों रात गहराने लगी उस स्पष्ट प्रत्यक्ष दर्शन वाला निश्चित विश्वास
डगमगाने लगा। मंजरी का अपने आप पर से भरोसा उठ गया। धीरे-धीरे अपना हृदयतत्व
भूल गई और उसकी जगह ले लिया एक भयानक भय ने जो उसे ग्रास करने लगा।
अभी तो जिस आशा की क्षीण ध्वनि उसकी चिंता भावना के तले बज रही थी, वह ध्वनि
स्तब्ध हो गई। क्या वह उस जगह पर टैक्सी लेकर जाए? जाकर देखेगी कि सारे लोग
जा चुके हैं केवल समुद्र के किनारे चंचला अकेली बैठी रो रही है।
कितनी रात है इस वक्त? साढ़े बारह? क्या मंजरी जाए? क्या यह दुनिया शुकदेव का
आश्रम है? वहां रात के एकांत में सोलह साल की एक स्वस्थ लड़की क्या अकेली
बैठकर रोने का अवकाश पाएगी?
मंजरी के मन का धैर्य समाप्त होने लगा। उसे लगने लगा चंचला को शेर के पिंजड़े
में डाल आई है। वह भी एक डर के कारण।
अभिमन्यु को नहीं देखा था मंजरी ने। नहीं, नहीं असंभव है। अभिमन्यु वहां कैसे
आ सकता है। यह चंचला की दृष्टि का भ्रम था। मंजरी का भी।
अब क्या करे मंजरी?
चंचला को मन से निश्चिह कर निश्चित बैठी रहे क्या? मंजरी पर निर्भर कर
बुद्धिहीन लड़की सब कुछ छोड़कर कर भाग आई थी, इसके लिए मंजरी की बुद्धिहीनता
भी कम उत्तरदायी नहीं-वही चंचला अब तक शायद वन्यपशुओं के हाथों...
सिहरकर चिल्लाते-चिल्लाते अपने आपको संभाल लिया मंजरी ने। सोचा, जाकर
नंदप्रकाशजी की पत्नी को बताए और उनसे परामर्श मांगे लेकिन मंजरी-से कुछ करते
न बना। क्या कहेगी? गलती से लड़की को छोड़कर चली आई है? फिर अपने डर के मारे
उसे ले जाने की कोशिश नहीं की है? इससे ज्यादा मंजरी कह ही क्या सकती है?
अंत तक शायद बेहोश होकर गिर जाती मंजरी या फिर पागलों की तरह भगदड़
करती...सहसा वह नंदप्रकाशजी की पत्नी की आवाज सुनकर चौंक उठी।
गंभीर खानदानी आवाज में वह 'मंजरी बहन' को बुला रही थीं। हड़बड़ाकर वह उठी और
दरवाजे के पास जाकर खड़ी हो गई। एक अनजाने डर से उसका हृदय कांप रहा था।
नंद गृहिणी ने संक्षेप में बताया, चंचला अपने जिस रिश्तेदार के यहां घूमने गई
है उन्होंने नंदप्रकाशजी के फोन पर बताया है कि खाते पीते रात हो जाने के
कारण आज वह वहां रुक गई है। कल सुबह आएगी। काफी रात हो गई है इसलिए नौकरों से
न कहलवाकर वह खुद बताने आई हैं।
यह संवाद और टिप्पणी सुनाकर महारानियों की तरह वह चली गई और मंजरी 'भगवान'
कहकर दरवाजे के सामने से हटकर एक जगह पर छाती पकड़कर बैठ गई।
छाती दर्द से फट क्यों रही है?...खुशी से क्या?
किस बात की खुशी? यह कैसी खुशी सीने को तोड़ मरोड़कर अपने आने की सूचना देती
है?
चंचला की सुरक्षित रहने की खुशी?
या 'भगवान आज भी है' की खुशी?
अभिमन्यु ने फोन करके मंजरी को खबर की है इसकी खुशी?
अगर अभिमन्यु चाहता तो मंजरी को खबर नहीं भी कर सकता था। वह इसके लिए हैवानों
जैसी खुशी महसूस कर सकता था। चाहता तो वह चंचला को कलकत्ता वापस ले जाता और
सुनीति के हवाले कर देता। मंजरी पर लड़की चुराने का मुकदमा करवाता। अभिमन्यु
चाहता तो मंजरी का बहुत नुकसान कर सकता था।
लेकिन अभिमन्यु ने तो ऐसा कुछ नहीं किया। उसने मंजरी के प्रिय प्राणी को
स्नेह से अपने यहां रखा है, मंजरी को उसकी कुशलता की सूचना दी है। तो क्या
बार-बार अभिमन्यु ही जीतेगा?
मंजरी ही बार-बार हारती रहेगी?
चाय का पर्व समाप्त होते ही अभिमन्यु ने कहा, "चंचला, देख रही हूं इस बीच
तुमने सुरेश्वर दा से काफी दोस्ती जमा ली है-अब इसके साथ अपने घर जाने में
तुम्हें आपत्ति नहीं है न?"
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