कहानी संग्रह >> कामतानाथ संकलित कहानियां कामतानाथ संकलित कहानियांकामतानाथ
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आम जनजीवन से उठाई गई ये कहानियां कथाकार के रचना-कौशल की वजह से ग्रहण के स्तर पर एक तरफ बतरस का मजा देती हैं तो दूसरी तरफ प्रभाव के स्तर पर उद्वेलित करती हैं...
देवी का आगमन
क्या जाड़ा, क्या गरमी, क्या बरसात, ठाकुर हरनामसिंह की चौपाल गांव-भर का
रेडियो स्टेशन है। जाड़ों में जलते अलाव के चारों ओर, गरमियों में खुले आकाशस
के नीचे हाथों में ताड़ के पंखे लिए हुए तथा बरसात में टपकती हुई छत के नीचे
लोगों का जमावड़ा होता है। देश की सीमांत-समस्या से लेकर पंचवर्षीय योजना,
भूदान, एटम बम, संयुक्त राष्ट्रसंघ, चोरी-डाका, सभी पर बहसें होती हैं। परंतु
प्राथमिकता सदा ऐसी बातों को दी जाती है जैसे किसकी लड़की किसके साथ भाग गई,
किसकी पत्नी छिप-छिपाकर किससे मिलती है इत्यादि। और राजनीतिक विषयों पर तो
वह-वह विचार सुनने को मिलते हैं जो आपको संयुक्त राष्ट्रसंघ में भी न
मिलेंगे। कौन देश किस पर आक्रमण करने वाला है, कब महायुद्ध शुरू होगा,
चंद्रमा पर मनुष्य का प्रस्थान और यहां तक कि प्रलय कब होगी, इस संबंध में भी
घंटा, क्षण, पल तक भगवानदीन मिसिर को पता है। और चंपासिंह को तो सब लोग दादा
कहते ही इसलिए हैं कि उनकी खबर आज तक झूठी नहीं हुई। लोग कहते हैं, उनके घर
में रेडियो है, उसी पर सारी खबरें आती हैं। आज तक देखा न सुना कि मशीन भी
बोले। गजब है भाई!
ठाकुर हरनामसिंह मामूली आदमी नहीं हैं। लोग कहते हैं कि उनके घर में पुरखों
का धन जमीन में गजों गड़ा है। उनके दादा तो वैसे भीख मांगते थे-चार आने रोज
की मजदूरी और दोपहर में पाव-भर गुड़, भीख ही मांगना हुआ। मगर भगवान जिसको
देता है, छप्पर फाड़कर देता है। तीर्थ करने गए थे। स्टेशन से लौट रहे थे कि
रास्ते में झक्कड़ बाबा वाले ऊसर में उन्हें लक्ष्मी मिलीं। बड़े-बड़े हंडे
सोने की मुद्राओं से भरे हुए जा रहे थे। उन्होंने देखा तो हाथ जोड़ दिए।
लक्ष्मी भी उन्हें देखकर मुस्कराईं और बोली, “तुम यहां खड़े हो और मैं
तुम्हारे घर जा रही हूं।"
"धन भाग हमारे!" उन्होंने उत्तर दिया। फिर हाथ जोड़कर पूछा, “कब तक बास
करोगी, देवी?"
लक्ष्मी ने कहा, "तुम्हारे आने तक," और आगे बढ़ गई।
वह सोच में पड़ गए। पत्नी और छोटे-छोटे बच्चे-तीन लड़के तथा दो लड़कियां-थे।
एक ओर संतान का मोह और दूसरी ओर माया का। बहुत सोच-विचारकर वह उल्टे लौट गए।
आज तक पता न चला। तब से लक्ष्मी का बास है उनके घर में। वैसे कुछ लोग यह भी
कहते हैं कि उन्होंने गदर के जमाने में एक गोरे की जान बचाई थी। सात दिन अपने
घर में छिपा रखा था उसे। वही उनको सब जमीन-जायदाद दे गया।
कुछ भी हो, हरनामसिंह की कोठी दूर-दूर तक मशहूर है। जितने भी डिप्टी-दरोगा
आते है, हरनामसिंह के यहां ही ठहरते हैं। सारे जवार में रोब है। इसीसे तो सब
आकर हाजिरी बजाते हैं। क्या छोटा क्या बड़ा, हरनामसिंह के अलाव के घर में
बैठे सब बराबर हैं। वैसे हरनामसिंह स्वयं अंगूठा लगाते हैं, मगर बुद्धि में
बड़े-बड़े उनका लोहा मानते हैं।
आज सवेरे से मूसलाधार वर्षा हो रही है। रह-रहकर बिजली चमकती है तथा बादल
गड़गड़ाते हैं। मगर हरनामसिंह की चौपाल में लोगों के जमाव में कोई फर्क नहीं
है। रोज की ही भांति भीड़ है, बल्कि आज कुछ ज्यादा ही है। अभी कुछ देर से
वर्षा रुकी थी, परंतु अब फिर शुरू हो गई है। बताओ, अभी जेठ का महीना, कल तक
चिल्ले की कड़कड़ाती धूप थी और आज मूसलाधार बारिश! इस कलियुग में जो न हो, कम
है।
"मेरी मानो," चंपासिंह बोले, "तो ठाकुर साहब, ई सब आटम बम की करामात है। यही
ससुर सब मौसम बिगाड़े है। ईका बड़ा परभाव है ठाकुर साहब। पानी यू बरसावै, आग
यू लगावै, जो न करै सो कम है।"
सुकुलजी आदत से मजबूर हैं। चंपासिंह की बात बिना काटे नहीं रह सकते। बोले,
"बस, बस, दादा, रहै देव। तुमका तो जो कुछ है, आटम बम है। महंगाई बाढै तो आटम
बम, पानी बरसै तो आटम बम, सूखा पड़े, तो आटम बम, बहिया आवै तो आटम बम! अरे ई
सब परलैके लच्छन आहीं। चारों ओर पाप बाढ़ि रहा है संसार मां..." आगे कुछ समझ
में न आया, तो वह मिसिरजी की ओर देखने लगे!
मिसिरजी ने हां मे हां मिलाई, “सो तो हई है, भाई। सास्त्रन मां लिखा है कि
परलै अब निकट है।"
रामू काका, जो अब तक तंबाकू मल रहे थे, चुटकी से होंठ में तंबाकू रखते हुए
बोले, “परलै तो अब तक रही। मारे गरमी के जान निकरी रही। अब आज जो तनिक पानी
बरसा, तो सब जने मीन-मेख निकार रहे हो।"
"वाह रामू काका खूब कहेव। उनके दिल से पूछौ जिनकी फसल अबै खलिहान मां परी
है।" चंपासिंह ने कहा।
तभी फिर बड़े जोर से गड़गड़ाहट हुई और देर तक बिजली चमकती रही। हरनामसिंह दूर
मैदान में देख रहे थे। उनकी कोठी गांव के सिरे पर है जहां से दूर-दूर तक खेत
और मैदान दिखाई देते हैं। हरनामसिंह को उधर गौर से देखते पाकर सभी लोग उधर
देखने लगे।
"का बात है, ठाकुर साहब?" किसी ने पूछा।
ठाकुर साहब ने उसी ओर देखते हुए कहा, "इतनी बरसात में को दौड़ा चला आ रहा
है?"
“कहां?"
"कहां, ठाकुर साहब?"
“ऊ पंचमसिंह के बाग के सामने देखौ।"
मगर किसी और को न दिखाई दिया। फिर भी सब उधर आंख लगाए रहे। अचानक फिर बिजली
चमकी। वास्तव में कोई भागा चला आ रहा था। काली-सी आकृति दिखाई दे रही थी। सब
उकडू होकर बैठ गए। दो एक लोग खड़े हो गए।
"हम का तो लागत है, डाका पड़ा है पास के गांव मां।" किसी ने कहा।
"पास के गांव में किसके यहां डाका पड़ेगा भाई? सब तो ससुर कंगले हैं।"
मिसिरजी ने बात काटी, "हमरे विचार से तो कौनो मुसाफिर है। टेसन से आ रहा होई।
"तुम भी सठिया गए हो, मिसिर। भला ई बखत कौन गाड़ी आवत है?"
"गाड़ी तो शाम का आवत है, मगर चलै मां देर भी तो हो सकत है।"
"ई बात भई।" रामू काका ने पीक थूकी।
आकृति पास आती जा रही थी। जब वह कोई दो फाग दूर रह गई, तो सब चुप्पी साधकर
बैठ गए। अब साफ पता चल रहा था कि कोई मनुष्य है, हाथ में कुछ लिए हुए है।
कहीं बंदूक तो नहीं है? हरनामसिंह ने लड़के से तुरंत दुनाली मंगवाई। उधर
लड़का दुनाली लेकर आया और इधर वह आदमी ऊपर से नीचे तक कीचड़ में लथपथ आकर
खड़ा हुआ।
"कौन है?" हरनामसिंह ने दुनाली संभालते हुए पूछा।
"मैं हूं गंगू, सरकार," आदमी ने हांफते हुए उत्तर दिया।
“कहां से आ रहा है?"
"नदी पर था। पांच कोस चलकर आया हूं, मालिक।" गंगू नाव चलता है सरयू में।
"क्या बात है?"
"गजब हो गया, सरकार! सरजू-पार जो मंदिर है, वहां दुर्गा और काली में। जुद्ध
हो गया। दुर्गाजी रिसा के चली आई हैं।"
"क्या बकता है?"
“झूठ नहीं कहूं हूं, सरकार। हमरी नाव पर बैठ के तो नदी पर की है। बाघ भी था
साथ में। हमरी तो जान सूख गई मालिक, जिस छन बाघ नाव पर बैठा।"
"बाघ नाव पर बैठा!"
"हां, मालिक! सुना है परसाल से झगड़ा रहे था दुर्गा और काली में, सूकंबी के
मेले के बखत से। मेले के बखत दुर्गा का मान नहीं भया, उनके मंदिर की पुताई भी
नहीं भई, न चढ़ावा ही चढ़ा। तभी से मनमुटाव रहा दूनो बहिनी मां। आज मैं नदी
पर था संझा बखत। देखा, तो दुर्गा मैया बाघ पर सवार चली आ रही है। हमार तो
परान सूख गए। ख्याल किया, कोई कसूर भवा हमसे, वही देवी आ रही हैं सजा दे। मगर
मैया ने आवाज लगाई। बोलीं, 'डर मती, हमको नदी पर करादे, तेरा कल्यान होगा।'
मैंने डरते-डरते पूछा, 'मैया, किधर का विचार है?' वह बोलीं, 'अब सुकुंबी में
अकेले काली ही रहेगी, मेरा गुजर नहीं उसके संग।"
सब हक्का-बक्का रह गए। सुकुंबी की दुर्गा और काली को कौन नहीं जानता!
प्रतिवर्ष इतना बड़ा मेला लगता है वहां कि हाथी-घोड़े तक बिकने आते हैं। हां,
मनमुटाव की बात भी दोनों बहनों की सभी ने सुनी थी, यहीं हरनामसिंह की चौपाल
में। अभी दो-एक दिन पहले बात चल रही थी। मगर दुर्गाजी रिसाकर चली आएं, यह तो
गजब हो गया।
"सपना तो नहीं देखा बे?" हरनामसिंह ने गंगू को डांटकर पूछा।
“अकीन न आवै सरकार, तो आप चलके देख लो। और कौन ठीक, माता इधरी आती हों।"
हरनामसिंह ने सभी उपस्थित लोगों की ओर देखा और सबने अचंभे में गंग की ओर। बात
'समझ में नहीं आ रही थी।
गंगू फिर बोला, "झूठ बोले मालिक, तो जो चोर की सजा, सो मेरी सजा। भला
देवी-देवता के बारे में झूठ बोलूंगा, मालिक! हमरे भी तो लड़के-बोले हैं।"
गंगू ने अपने कान पकड़ लिए।
हरनामसिंह ने चंपासिंह की ओर देखा। कहा, "क्यों चंपा भाई, ऐसा भी हो सकत है?"
"अपनी अकल तो काम नहीं कर रही, ठाकुर!"
भगवानदीन मिसिर बोले, "सच हो या झूठ, देखना तो चाहिए।"
हरनामसिंह फिर गंगू से बोले, "देख बे, अगर झूठ बात निकली तो उल्टा टंगवा के
खाल खिंचवा लूंगा।"
गंगू अभी तक कान पकड़े खड़ा था। बोला, "जो देखा सो बताया, मालिक। अब माता
अंतरधान हो गई हों तो हमारा कसूर नहीं। और नहीं तो हमें का पड़ी रहै, मालिक
जो पांच कोस चलकर आपको खबर देने आता!"
रात में जाना उचित न समझा गया। वैसे हरनामसिंह तैयार थे, मगर औरों ने सलाह
दी, कौन ठीक, साला सबको रात में गांव से बाहर ले जाए और इधर डाका पड़ जाए।
इसलिए सुबह जाने की ही बात ठहरी। तब तक गंगू को ठाकर साहब ने वहीं चौपाल में
रहने को कहा।
थोड़ी ही देर में सारे गांव में बात फैल गई कि सुकुंबी की दुर्गा और काली में
लड़ाई हो गई और दुर्गाजी नाराज होकर वह गांव छोड़, नदी पार कर इस गांव आ गई
हैं। बात की बात में हरनामसिंह की चौपाल में सारा गांव जमा हो गया और गंगू ने
सबके सामने गंगाजल उठाकर बात की पुष्टि कर दी।
कछ लोगों ने गैस-बत्ती लेकर, जत्था बनाकर जाने की बात कही, मगर बुजुर्गों ने
समझाया कि देवी-देवता वाला मामला और फिर बाघ साथ में, जाना ठीक नहीं।
खैर, तड़का होते ही सारा गांव. देवी की खोज में निकल पड़ा। आगे-आगे गंग, पीछे
पीछे सारा गांव, स्त्री-पुरुष सभी। दो-एक के हाथों में बंदूकें भी थीं। गंगू
ने बाघ की बात जो कह दी थी।
ऊसर में एक पेड़ के पास पहुंचकर गंगू बोला, “हियां तक आते तो मैंने अपनी
आंखों से देखा था, मालिक।"
सब लोग होशियार हो गए और इधर-उधर देखने लगे। थोड़ी देर में गंग फिर बड़े जोर
से चिल्लाया, “ये देखो सरकार, बाघ के पांव के निसान जमीन पर हैं!"
बाघ का नाम सुनते ही सब गड़बड़ाकर एक जगह जमा हो गए। देखा, तो वाकई शेर के
पैरों के निशान जमीन पर बने थे। कुछ तो मारे डर के कांपने लगे और दुर्गा-पाठ
करने लगे। तुरंत बंदूकवाले आगे बढ़े और निशान देखते हुए आगे-आगे चले। एक
स्थान पर पहुंचकर निशान समाप्त हो गए थे।
"भला देवी यहां से कहां गईं?"
सबकी एक राय हुई कि देवी यहीं से अंतरर्धान हो गई। मगर गईं कहां? क्या पृथ्वी
में समा गईं?
ठाकुर साहब ने तुरंत जमीन खोदने की आज्ञा दी तो सब लोग जुट गए। जिसके पास जो
भी लाठी-डंडा था, उसी से खोदने लगे। थोड़ी देर खोदने पर पत्थर बजने लगा।
तुरंत लोगों ने हाथों से मिट्टी साफ की तो दुर्गा की विशालकाय मूर्ति दिखाई
देने लगी। सबके माथे भूमि से लग गए। ठाकुर हरनामसिंह ने भी हाथ जोड़ दिए। जिस
स्थान पर देवी प्रकट हुई थीं, वह जमीन ठाकुर साहब की ही थी। मस्तक नवाकर वह
बोले, “धन भाग, जो देवी हमारी भूमि पर उतरीं!"
“वाह, ठाकुर साहब," तुरंत और लोग बोल पड़े, “धन भाग इस गांव के, जहां देवी
पधारी!"
उसी दिन पंचायत बुलाई गई और यह निश्चय किया गया कि इस स्थान पर एक मंदिर
बनाया जाए, जिसमें देवी की स्थापना हो तथा एक ताल खोदा जाए और सराय बनाई जाए।
गंगू ने कहा, "हमरे विचार से हियां मेला भी लगा चही, मालिक। मेले ही के कारन
माता रिसा के आई हैं सुकूबी से। हियां मेला जरूर होना चाही, तभी देवी प्रसन्न
होंगी।"
यह बात भी सबको जंची। अतः यह भी निश्चित किया गया कि जैसे ही मंदिर इत्यादि
बन जाए, यहां एक शानदार मेला लगाया जाए। ठाकुर हरनामसिंह ने अवश्य कुछ
आनाकानी की। उनका कहना था कि उनकी भूमि पर ताल और मंदिर बनेगा, तो उनको उसका
कुछ मुआवजा मिलना चाहिए। मगर देवी-देवता वाला मामला, वह अपनी बात पूरी कह भी
नहीं पाए थे कि उनको दबा दिया गया। ठाकुर साहब जनमत के सम्मुख चुप हो गए।
उसी दिन से चंदा लगना शुरू हुआ। एक सप्ताह में ही हजारों की रकम जमा हो गई।
भट्ठे से मुफ्त ईंटें आईं, मजदूरों और कारीगरों ने मुफ्त काम किया। मंदिर
बनकर तैयार हो गया। अच्छी साइत देखकर देवी की स्थापना कर दी गई। गांव और जवार
में प्रसाद बंटा। सुकुंबीवाले भी स्थापना वाले दिन आए। मंदिर के निर्माण में
भी उन्होंने काफी चंदा दिया था। उस दिन हाथ जोड़कर उन्होंने देवी से क्षमा
मांगी कि माता, हमसे जो कुछ कसूर हुआ हो, क्षमा करो। हमको तुम दो बहनों के
झगड़े का ज्ञान नहीं था, नहीं तो वहीं सुकुंबी में तुम्हारे लिए अलग मंदिर
बनवा देते। अब अनजान में जो कुछ खता भई, उसके लिए माफी चाहते हैं। वैसे हमसे
अब भी जो कुछ हो सकेगा, सेवा करेंगे।
इसके बाद मेला लगा। ऐसा मेला देखने में न आया था। मीलों तक दूकानें ही
दूकानें फैली थीं। सुकुंबी का मेला तो कुछ भी नहीं। जय हो दुर्गा मैया की!
क्या महिमा है तुम्हारी! कालीजी भी झेंप गई होंगी। संसार की कोई ऐसी वस्तु
नहीं, जो मेले में न बिकने आई हो-हाथी, घोड़े, बैले, बकरी, ऊंट, गाय, भैंस,
सभी कुछ। सात दिनों तक मेला चला।
जिस जमीन पर मेला लगा था, वह ठाकुर हरनामसिंह की थी। अतः सात दिनों तक बराबर
वह दूकानों से किराया वसूलते रहे। बड़ी-सी झोली लेकर निकलते जो शाम तक भर
जाती। एक दिन में हजारों की वसूली होती।
सातवें दिन जब मेला उठा, तो रात में ठाकुर साहब की चौपाल में केवल दो व्यक्ति
थे, एक ठाकुर साहब स्वयं और दूसरा गंगू। ठाकुर साहब गंगू को सौ रुपये दे रहे
थे, मगर वह कह रहा था, "यह कम है मालिक। भरी बरसात में बाघ का पंजा जड़ी लाठी
धुर नदी किनारे से पेड़ तक बाघ की चाल चल-चल के लगाना कोई हंसी-खेल नहीं,
सरकार! आज तक खवों में दरद है। अक्कल तोहार मालिक, पर मजूरी तो हमका भी चहिबै
करी। बाल-बच्चेवाला आदमी होके देवी-देवता के मामले में झूठ बोला, सो अलग। बरस
ठीक से गुजरं जाए, तो देखो। अब ई तो न करो सरकार, कि माया मिलै न राम। आपका
तो भला हो गया, अब हमरा भी भला करा दो, मालिक!"
ठाकुर साहब ने सौ रुपये और रखे गंगू के हाथ पर और बोले, "मगर देख, खबरदार,
अगर कभी बात जबान पर आई, तो जिंदा गड़वा दूंगा।"
"कैसी बात कर रहे हो, सरकार!" गंगू ने दोनों हाथों से अपने कान पकड़कर दांत
निकाल दिए।
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