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कामतानाथ संकलित कहानियां

कामतानाथ

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6427
आईएसबीएन :978-81-237-5247

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आम जनजीवन से उठाई गई ये कहानियां कथाकार के रचना-कौशल की वजह से ग्रहण के स्तर पर एक तरफ बतरस का मजा देती हैं तो दूसरी तरफ प्रभाव के स्तर पर उद्वेलित करती हैं...


“जल्दी कैसे आ गए?" पत्नी ने पूछा।

“पेशाब टेस्ट कराना था, सुबह जल्दी-जल्दी में भूल ही गया। बंटी अभी नहीं आया स्कूल से?"

"क्यों? कितना बजा है?"

"सवा एक।"

“अभी कैसे आ जाएगा? साढ़े तीन पर आता है, तुमको यह भी नहीं पता। कैसे बाप हो!"

वह हंसने लगा। बंटी है किस क्लास में, यह भी उसे मालूम नहीं है। सोचा पत्नी से पूछे। परंतु फिर टाल गया। शाम को बंटी से ही पूछेगा।

तभी अंदर कमरे में मां के कराहने की आवाज आने लगी। उसे लगा कि उसकी आवाज सुन कर ही मां कराहने लगी हैं।

"कैसी तबीयत है?" उसने अंदर आकर मां से पूछा।

"कौन है?" मां ने आदतन कराहते हुए पूछा। उनकी आंखों की रोशनी पहले ही से बहुत कम है।

“मैं हूं।" उसने कहा।

"पेट में दर्द हो रहा है।"

"कम नहीं हुआ कुछ?"

"कहां कम हुआ। देखो, कितना फूला है। सांस तक लेने में दर्द होता है।"
"दवा दी थी दोपहर वाली?" उसने पत्नी से पूछा।
"हां।"
"खाना क्या खाया?"
"कुछ खाया ही नहीं।" उत्तर पत्नी ने दिया।
"क्यों? खाया क्यों नहीं?" उसने मां से पूछा।
"अच्छा ही नहीं लगता है, जैसे हर चीज में नीम की पत्ती मिली हो।"
"संतरा भी नहीं खाया?"
"न।" पत्नी ने कहा।

"क्यों? संतरा क्यों नहीं खातीं?"
"हम कुछ नहीं खाएंगे।" मां का कराहना बंद नहीं हुआ।
"नहीं खाओगी, तो खाली पेट दवा नुकसान करेगी।"
"नुकसान करे, चाहे फायदा। जब अच्छा ही नहीं लगता तो कैसे खा लूँ!"
"दवा की तरह खा लो।"
"पेट जो फूल आता है।"
"खाली रहने से और गैस बनेगी।"
मां चुप रहीं।
"संतरे का रस निकाल कर दो तुम।" उसने पत्नी को आदेश दिया। फिर मां से बोला, “थोड़ा सा पी लो।"
मां कराहती रहीं।
"शाम हो गई क्या?" थोड़ी देर बाद उन्होंने पूछा।
"क्यों? अभी तो डेढ़ बजे हैं।"
"हम समझे शाम हो गई। तुम जल्दी आ गए क्या?"
"हां, अभी लौटकर फिर जाना है।"
उसने देखा, कमरे की खिड़कियां सब बंद थीं। उसने खिड़कियां खोल दीं। पंखा भी बंद था।
"पंखा क्यों बंद है?" उसने पूछा।
"अम्मा को सर्दी लगती है।" पत्नी ने उत्तर दिया।
वह चुप हो गया।
पेशाब लेकर वह पहले पैथालोजी गया। डाक्टर ने रसीद बनाकर दी। कहा, सात बजे तक रिपोर्ट मिल जाएगी।
ऑफिस लौटकर आया, तो लाल साहब सीट पर नहीं थे। उसकी मेज पर एक पर्चा रखा था। लाल साहब ने रखा था। लिखा था कि मैनेजर के रेजिडेंस के टेलीफोन का बिल अभी तक नहीं आया है। एक सप्ताह के अंदर जमा होना है, अन्यथा फोन कट जाएगा। वह एक्सचेंज को पत्र लिखकर बिल भेजने को कहे।

टेलीफोन और बिजली आदि का काम उसकी सीट से संबद्ध नहीं है, परंतु पिछले एक वर्ष से यह काम इसी सीट वाला व्यक्ति करता आ रहा है। शुरू में उसने सोचा था, वह इसका विरोध करेगा, परंतु लाल साहब सदा काम-से-काम रखते हैं। कौन कितनी देर सीट पर बैठता है, कितनी देर के लिए लंच पर जाता है, इस ओर कभी ध्यान नहीं देते। जिसे जब भी आवश्यकता होती है उन से छुट्टी लेकर जल्दी चला जाता है। वह भी घंटों सीट से गायब रहता है, परंतु लाल साहब ने आज तक कोई एतराज नहीं किया।

पहले वह उसके क्रास भी माफ कर दिया करते थे, परंतु इधर कुछ दिनों से मैनेजर ने सख्ती कर दी है। उसने आर्डर निकाल दिया है कि बिना उसकी अनुमति के किसी का भी क्रास माफ न किया जाए।

"लाल साहब कहां गए?" उसने पकड़ासी से पूछा।

"उनका बच्चा सीढ़ी से गिर पड़ा है। फोन आया था। जल्दी छुट्टी लेकर चले गए है।" पकड़ासी ने पेरी मेसन की किताब का पन्ना उल्टते हुए उत्तर दिया।

"कैसे क्या हुआ?"

"कुछ पता नहीं। फोन पर इतनी ही सूचना थी। पड़ोस के किसी आदमी ने किया था। मित्तल गया है स्कूटर लेकर। लौटकर आए तो पता चले।" पकड़ासी ने किताब से दृष्टि हटाए बिना उत्तर दिया।

वह चुप हो गया।

तभी पकड़ासी ने कहा, “एक पर्चा रख गए हैं लाल साहब तुम्हारी सीट पर। मैनेजर के पी.ए. का फोन आया था। टेलीफोन बिल का कुछ लफड़ा है। देख देना।"

"वही कर रहा हूं।" वह एक्सचेंज को पत्र लिखने लगा।

उसके सिर में काफी देर से दर्द हो रहा था। अचानक उसे लगा, दर्द बढ़ जाएगा। उसने श्यामलाल को आवाज देकर बुलाया और उससे डिस्पेंसरी से एक नोवलजीन लाने को कहा।

“परची लिख दीजिए, नहीं तो कम्पाउंडर ऐसे नहीं देगा।" श्यामलाल ने कहा।

"देगा क्यों नहीं। तुम जाओ तो।" उसने कहा।
 
"नहीं देगा। मानिए तो, फिर जाना पड़ेगा।"

उसने पर्चा लिख दिया। एक्सचेंज को पत्र लिख रहा था, तभी दास उसके पास आ गए। उन्होंने जेब से कोई कागज निकाल कर उसे दिया और चुपचाप खड़े हो गए।

"बैठिए?" उसने मित्तल की खाली कुर्सी खिसकाते हुए कहा।

कर्सी मित्तल ने सुतली से मेज के पाए से बांध रखी थी। उसे खीज हुई। वह उठकर गया और लाल साहब की कुर्सी उठा लाया।

दास बैठ गए। उसने कागज खोल कर देखा। आल इंडिया से सी. ई. सी. की मीटिंग का नोटिस था। कलकत्ता में सत्रह-अठारह, दो दिन मीटिंग निश्चित की गई थी। काफी बड़ा एजेंडा था। वैसे विशेषकर स्ट्राइक की तारीख निश्चित करना था।

आज बारह तारीख थी। देर-से-देर सोलह की दोपहर चल देना होगा। पत्र में लिखा था, डेलीगेट अपने आने की तारीख और ट्रेन के बारे में तार दे दें, ताकि उन्हे स्टेशन पर रिसीव किया जा सके जिससे उन्हें निश्चित स्थान पर पहुंचने में कठिनाई न हो। मीटिंग का स्थान तय नहीं किया गया था। यह होस्ट यूनिट के ऊपर छोड़ दिया गया था। वही उसकी सूचना देंगे। वैसे पत्र में सलाह दी गई थी कि सदस्य होस्ट यूनिट के पत्र की प्रतीक्षा, न करें। हो सकता है, उसमें देर लग जाए। सभी काम जल्दी-जल्दी में हो रहा है।

"तुम जाने की तैयारी करो।" दास ने कहा।

"मैं चला जाता, दादा, लेकिन इधर मां की तबियत बहुत खराब है। मेरे लिए जाना संभव नहीं हो पाएगा।" सभी लोग दास को "दादा" कहते हैं। पिछले पंद्रह वर्षों से वह एसोशियेसन के प्रेसीडेंट हैं। उन्हें सब-एकाउंटेंट का चांस मिला था, परंतु उन्होंने इंकार कर दिया था।

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