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कामतानाथ संकलित कहानियां

कामतानाथ

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6427
आईएसबीएन :978-81-237-5247

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आम जनजीवन से उठाई गई ये कहानियां कथाकार के रचना-कौशल की वजह से ग्रहण के स्तर पर एक तरफ बतरस का मजा देती हैं तो दूसरी तरफ प्रभाव के स्तर पर उद्वेलित करती हैं...


सभी ने उन्हें रोका। दास दोबारा बैठ गए। इस बार उन्होंने कुछ सहूलियत से वही सारी बातें कहीं, जो उससे सीट पर कहीं थीं, अर्थात् दो-तीन दिन की बात है, वह उसके घर की देख-भाल कर लेंगे। सदस्यों की ड्यूटी लगा देंगे। वे घंटे-घंटे भर में जाकर हाल-चाल लेते रहेंगे, आदि। जो भी हो उसका जाना बहुत जरूरी है।

अन्य सदस्यों ने भी इसी प्रकार की बातें कहीं।

उसे लगा, जैसे इस सबसे उसका कोई संबंध ही नहीं है। उसका घर, घर न होकर कोई सार्वजनिक संस्था है। वह चुप बैठा रहा। उसके जाने की बात तय हो गई। मीटिंग जल्दी ही समाप्त हो गई। दास ने एक सदस्य को रुपये दे दिए और कहा कि संभव हो, तो उसके नाम से सोलह तारीख को तूफान से रिजर्वेशन करा दे।

दास का गुस्सा अब बिल्कुल ठंडा हो गया था। वह उसे समझाने लगे कि वह चिंता न करे, वह सब देख लेंगे। वह पहले ही जानता था कि जाना उसे ही पड़ेगा। वह हंसने लगा।

बाहर निकल कर आया, तो पौने सात बजे थे। वह साइकिल लेकर सीधे डॉक्टर के यहां भागा। रिपोर्ट तैयार हो गई थी और लिफाफे मे बंद रखी थी। डॉक्टर था नहीं। चपरासी ने रसीद लेकर नंबर मिलाया और लिफाफा उसे दे दिया।

उसने लिफाफा वहीं खोल डाला। उसे डर था, शायद मां को डायबिटीज होगी। परंतु पेशाब में शुगर नहीं थी। तभी उसने देखा, "पस" के आगे लिखा था-"काफी मात्रा में उपस्थिति है।" पस...पेशाब में। इसके मायने किडनी में जख्म होगा, उसने अपनी अक्ल लगाई।

रिपोर्ट लेकर वह सीधे उस डॉक्टर के पास आ गया, जिसका इलाज चल रहा था। वहां खासी भीड़ थी। उसे देर तक बैठना पड़ा। कोई साढ़े नौ बजे उसका नंबर आया। डॉक्टर ने रिपोर्ट देखकर उसे वापस कर दी।

"पेशाब में पस है, डॉक्टर साहब" उसने कहा।
"हां।" डॉक्टर ने सिर हिलाया।
"किडनी डैमेज्ड है क्या?"
"कहा नहीं जा सकता। यूरीन कल्चर कराना होगा।" डॉक्टर ने कहा।

"कल्चर क्या?"

"ट्यूब से पेशाब निकालना पड़ेगा, तब पता चलेगा। हो सकता है, यूरीनरी पैसेज में कोई खराबी हो।" डॉक्टर थोड़ी देर चुप रहा, फिर बोला "सेंस्टिविटी टेस्ट भी कराना चाहिए। उससे पता चलेगा, कौन दवा असर करेगी।"

वह चुप रहा।

डॉक्टर पर्चे में कुछ लिखने लगा था। “अभी फिलहाल यह कैप्सूल दीजिए। परसों शाम को हाल बताइएगा।" उसने कहा।
उसने पर्चा ले लिया। "ग्लूकोज लगेगा आज?" उसने पूछा।
“आज कौन-सा दिन है?"
"तीन लग चुके है।?"
"हां, कम-से-कम सात लगवाइए।"
"कल सुबह अगर लगवा दें, तो ठीक नहीं रहेगा?" उसने पूछा।

"सुबह ही लगवा दीजिए।"

दूसरा मरीज डॉक्टर के बगल वाले स्टूल पर बैठ चुका था। डॉक्टर ने उसका हाथ पकड़ा और कुर्सी उसकी ओर घुमा ली।

वह बाहर निकल आया।

बाजार से उसने कैपसूल, ग्लूकोज के इंजेक्शन और संतरे लिए और साइकिल घर की ओर मोड़ दी। उसका सिर दर्द से फटा जा रहा था। बंटी छज्जे पर ही खड़ा था। उसे आता देख वह वहीं से चिल्ला कर जीने की ओर भागा। वह डरा कि कहीं वह गिर न पड़े।

"वहीं रहो।" उसने उसे डांटा और साइकिल दहलीज में रखकर ऊपर चढ़ आया।

"इसे नींद नहीं आती इतनी देर तक।" उसने पत्नी से कहा। “सब तुम्हारे लक्षण सीख रहा है।"

"मना नहीं करतीं इसे? इतने जोरों से भागता है जीने पर। कहीं गिर पड़े तो?"

"मना तो करती हूं। माने सूअर तब तो।"

वह कपड़े उतारने लगा।

“पापा, दादी आज गिर पड़ी थीं। उनके सिर से खून निकला था।" बंटी ने कहा।

"क्या हुआ?" उसने पत्नी से पूछा।

"पेशाब करने गई थीं, वहीं पानी में फिसल गईं।" पत्नी ने बताया।

"ज्यादा चोट लगी?"

"सिर में कुछ चोट लगी थी।"

"खून निकला था?"
"हां।"
"ज्यादा?"

"नहीं।"

जूते उतारकर वह मां के कमरे में आ गया। मां चुपचाप बिस्तर पर पड़ी थीं। सिर में जहां चोट लगी थी, वहां गंदी-सी रुई रखी थी। उसने रुई हटाकर देखा, ज्यादा चोट नहीं थी, परंतु वहां पर काफी सूज आया था।

"क्या लगाया इसमें?" उसने पत्नी से पूछा।
"तेल पानी का फाहा लगा दिया था।"
"बरनॉल नहीं है?"
"है।"
"तो बरनॉल क्यों नही लगाया?"
"बरनॉल तो जले में लगाया जाता है।"
"चोट में भी लगाते है। लाओ, मैं लगा दूं।"
पत्नी बरनॉल का ट्यूब ले आई। उसने उंगली में थोड़ा-सा बरनॉल लेकर चोट पर लगा दिया।
"कैसे गिर पड़ीं?" उसने मां से पूछा।
"मैं अब बचूंगी नहीं।" मां ने कहा, “मेरे शरीर में अब बिल्कुल ताकत नहीं रह गई हैं।"
"तुम अकेले उठती क्यों हो? इनको बुला लिया करो।"
"इनको क्या बुला लिया करें! इनकी हालत भी तो देख रहे हो। इसी वक्त मुझे बीमार पड़ना था।"
उसने देखा, पत्नी को खड़े होने में कष्ट हो रहा था। उसके चेहरे पर पसीने की बूंदें झलक रही थीं।
"मेरा इम्तिहान हो जाए, फिर मैं तुमको पकड़ा लिया करूंगा।" बंटी ने कहा।
"यह सोया नहीं अभी?" मां ने पूछा।
"जाओ, तुम लेटो जाकर।" उसने बंटी से कहा। परंतु वह वहीं खड़ा रहा।
उसने मां को दवा खिलाई और मौसमी छीलकर उसका रस निकालने लगा। "संतरा छील रहे हो क्या?" मां ने पूछा।
"नहीं, मौसमी है। संतरा भी है। संतरा छील दूं?"
"बंटी को दे दो।"
“दे दूंगा।" उसने कहा, "तुम अपनी चिंता किया करो। अंटी-बंटी को छोड़ो।"
बंटी झेंप गया। वह दूसरे कमरे में जाने लगा।
"कहां जा रहा है?" उसने उसे टोका, "संतरा खाएगा?"

बंटी चुप रहा।

उसने कागज के लिफाफे से एक संतरा निकालकर उसे दे दिया। उसने संतरा खा लिया।

मौसमी का रस मां को देकर वह अपने कमरे में आ गया।
“खान ले आऊं?" पत्नी ने पूछा।
"ले आओ। सिर में बहुत दर्द हो रहा है।" उसने कहा और हाथ-मुंह धोने बाथरूम चला गया।
लौटकर आया, तो बंटी उसका बैग खोल रहा था। हमेशा वह उसके बैग की तलाशी लेता है। अक्सर ही वह उसके लिए टाफी आदि ले आता है।

बंटी को उसमें कुछ मिला नहीं। तभी उसने उसके टिफिन का डिब्बा निकाल लिया।

"मम्मी, मम्मी।" वह चिल्लाया-“पापा ने आज फिर खाना नहीं खाया।"

पत्नी खाने की थाली लेकर कमरे में आ गई थी। “खाना खाते नहीं, तो ले क्यों जाते हो?" उसने थाली मेज पर रखते हुए कहा।

अब उसकी समझ में आया कि उसके सिर में दर्द क्यों हो रहा था। वह टिफिन खाना भूल गया था। अक्सर ही भूल जाता है और भूख से उसके सिर में दर्द होने लगता है।

"भूल ही गया बिल्कुल।" उसने कहा।

"किस काम में खोए रहते हो?" पत्नी ने पूछा।
"क्या बताएं!" उसने थाली अपनी ओर खिसका ली।

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