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कामतानाथ संकलित कहानियां

कामतानाथ

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6427
आईएसबीएन :978-81-237-5247

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आम जनजीवन से उठाई गई ये कहानियां कथाकार के रचना-कौशल की वजह से ग्रहण के स्तर पर एक तरफ बतरस का मजा देती हैं तो दूसरी तरफ प्रभाव के स्तर पर उद्वेलित करती हैं...

दो : उत्तरार्द्ध


सड़क के मोड़ से ही उसने देखा उसके फ्लैट में रोशनी नहीं थी। हो सकता है लोग पीछे वाले कमरे में हों। लेकिन अभी तो...क्या बजा होगा? उसने घड़ी देखी। कुल नौ चालीस ही तो हुए हैं। अभी तो टी. वी. आ रहा होगा। और टी. वी. तो बाहर कमरे में ही है। तब तक रिक्शा उसके मकान तक पहुंच गया। मेन गेट में ताला पड़ा था। यह भी असाधारण ही था। उसने घंटी बजाई। साधारणतया घंटी बजते ही उसके फ्लैट की बाल्कनी का दरवाजा खुलता था और कोई न कोई ऊपर से झांकने लगता था। उसने दोबारा घंटी बजाई। दरवाजा फिर भी नहीं खुला। तभी नीचे वाले फ्लैट से मकान मालिक के छोटे लड़के विजय ने आकर गेट का ताला खोल दिया। रिक्शे वाले को पैसे देकर वह अटैची और होल्डाल लेकर अंदर आ गया। सीढ़ियां चढ़ रहा था तभी उसे विजय की आवाज सुनाई दी, "अंकलजी, एक मिनट।"

वह सीढ़ियों पर ही रुक गया। विजय ने उसके फ्लैट की चाभी लाकर उसे दी तो उसने पूछा, "कोई है नहीं क्या?"

"आंटी नागपुर गई हैं।" उसने कहा।
"कब?"
“आप गए हैं उसी के दूसरे दिन। तार आया था। आंटी के पापा की डेथ हो गई है।"

तो उसकी शंका निराधार नहीं थी। ऊपर आकर उसने अपने फ्लैट का दरवाजा खोला और अंदर आ गया। कमरे की बत्ती जलाई तो उसने देखा तार मेज पर ही रखा था। उसने उसे उठाकर पढ़ा। बहुत संक्षिप्त सा मजमून था-"फादर एक्स्पायर्ड दिस मार्निग, मुकेश।" मुकेश उसके बड़े साले का नाम था। उसने तार दिए जाने की तारीख देखी। तेईस तारीख थी। बाइस को वह यहां से गया था।

उसके बंबई जाने से दो दिन पहले मुकेश का पत्र भी आया था। अपनी बहन, यानी उसकी पत्नी के नाम। लिखा था, बाबू जी बहुत बीमार हैं। उनका ब्लड प्रेशर अचानक बढ़ गया है। अस्पताल में भर्ती करा दिया है। बहुत कमजोर हो गए हैं। तुमको बराबर पूछते रहते हैं। एक दिन के लिए आकर देख जाओ।

पत्र पढ़कर उसकी पत्नी व्याकुल हो उठी थी। वह तुरंत जाने को तैयार थी। लेकिन उसे यूनियन की मीटिंग में बंबई जाना था। नया चार्टर तैयार होना था। कुछ और मसले भी थे। सांगठनिक समस्याएं भी थीं। वह आल इंडिया का सहायक सचिव था। उसका जाना जरूरी था। अतः उसने पत्नी को समझा दिया था। हाई ब्लड प्रेशर ऐसा कोई मर्ज नहीं होता। दवाओं से कंट्रोल हो जाएगा। चार-पांच दिन की बात है। मैं बंबई से लौट आऊं तब चलेंगे। वैसे अकेले जाना चाहो तो मैं इंतजाम कर दूं। बंटी को साथ ले लो। मगर पत्नी राजी नहीं हुई। उसने आज तक अकेले सफर नहीं किया था। बंटी अट्ठारह का हो रहा था। मगर उसने भी आज तक अकेले सफर कहां किया था और फिर उसके जो लक्षण थे उससे पत्नी को क्या उसे स्वयं उस पर भरोसा नहीं था। गीता अभी तेरह-चौदह की ही था। और फिर साथ में दो छोटे बच्चे और थे। "ठीक है, तम बंबई से लौट आओ तभी चलेंगे।" पत्नी ने कहा था।

किसी ने फ्लैट की घंटी बजाई। उसने बाल्कनी का दरवाजा खोलकर देखा। बाहर कोई नहीं था। तभी घंटी दोबारा बजी। उसने अंदर जीने वाला दरवाजा खोला तो विजय चाय का प्याला हाथ में लिए खड़ा था। चाय लाकर उसने कमरे में मेज पर रख दी।
"मम्मी पूछ रही हैं आप पूड़ी खा लेंगे या रोटी बना दें।" विजय ने पूछा।

"मैं कुछ नहीं खाऊंगा। मम्मी से कह दो परेशान होने की जरूरत नहीं है।" उसने कहा।

"बन जाएगा अंकल!" विजय ने कहा, "परेशानी की कोई बात नहीं है। आप बस बता दीजिए क्या खाएंगे।"

"ठीक है, पूड़ी ही बनवा दो।"

विजय चला गया। वह सोफे पर बैठकर चाय पीने लगा। उसे चिंता हो रही थी कि इतना लंबा सफर पत्नी और बच्चों ने अकेले कैसे किया होगा। वैसे बंटी पढ़ने में न सही और बातों में तेज है। लेकिन सफर की बात और होती है। पता नहीं रिजर्वेशन मिला होगा या नहीं। तभी उसे ध्यान आया कि उसने विजय से यह तो पूछा ही नहीं कि वे लोग किस गाड़ी से गए हैं। सुबह वाली गाड़ी तो नहीं ही मिली होगी। तार ही दोपहर तक आया होगा। अगर शाम वाली पैसेंजर पकड़ी होगी तो वह तो उन्हें दो-ढाई बजे रात झांसी पहुंचाएगी। रात वाली गाड़ी बारह के बाद चलती हैं। उससे वे लोग दूसरे दिन सुबह ही झांसी पहुंचे होंगे। फिर झांसी से उन्हें कौन-सी गाड़ी मिली होगी? उसने स्वयं जिंदगी में पता नहीं कितना सफर किया है। लेकिन रेलगाड़ियों के बारे में उसकी जानकारी हमेशा अधूरी रही। रेलवे टाइम-टेबुल तक उसे ठीक से देखना नहीं आता।

चाय पीकर उसने बाल्टी में पानी भरकर इमर्सन राड लगा दी और बाथरूम चला गया। बाथरूम से निपटकर उसने गरम पानी से स्नान किया और कपड़े बदल कर कमरे में आ गया। तब तक विजय खाना ले आया था। परवल आलू की शोरवेदार सब्जी, पूड़ी और आम का अचार था।

"दही लेंगे?" विजय ने पूछा।

"नहीं।" उसने कहा, “यही बहुत है। वे लोग गए किस गाड़ी से?"
"शाम सात बजे वाली पैसेंजर से।" विजय ने बताया।
"रिजर्वेशन मिल गया था?"
"मुझे मालूम नहीं । बड़े दादा गए थे भेजने। उन्हें मालूम होगा। बुला लाऊं उन्हें?"
'नहीं! क्या कर रहे हैं वे?"
"अपने कमरे में होंगे। पता नहीं शायद सो गए हों। लेकिन जाग जाएंगे।"
“छोड़ो, सुबह देखा जाएगा।" उसने कहा। लेकिन उसे आश्चर्य हो रहा था कि नवनीत को जाने की क्या आवश्यकता पड़ गई। तभी उसने विजय से पूछा, "बंटी तो गया होगा साथ?"
"बंटी दादा तो शायद गए नहीं।" विजय ने कहा।
"क्यों?"
"तार आया तो वह स्कूल में थे। आंटी जी ने मुझे भेजा था बुलाने मगर वह मिले नहीं।"
"लेकिन गया नहीं तो है कहां वह?"
"पता नहीं। अभी शाम तक तो घर में ही थे।"
उसकी समझ में नही आया कि आखिर बंटी गया क्यों नहीं। और गया नहीं तो है कहां वह? उसने घड़ी देखी। ग्यारह बज रहे थे। हो सकता है सिनेमा निकल गया हो। इस लड़के ने तो नाक में दम कर रखा है। न घर की परवाह, न अपना ख्याल। क्या करेगा जिंदगी में यह, उसने सोचा।

उसकी चिंता बढ़ गई। वंटी नहीं गया तब तो पत्नी को और भी कष्ट हुआ होगा। गीता की तो कोई बात नहीं, लेकिन दो छोटे बच्चों को संभालने में और वह भी उस हालत में जब पिता की मृत्यु की सूचना उसे मिल चुकी थी, निश्चय ही उसे बड़ी परेशानी हुई होगी। अकेली बेटी होने के नाते वह पिता से कुछ ज्यादा ही अटैच्ड थी। कहीं सारा सफर रोते-रोते ही न किया हो।

उसने सोचा वह कल कहीं से मुकेश को टेलीफोन करेगा। लेकिन कल तो इतवार है। परसों सही। पता नहीं उसके ऑफिस का टेलीफोन नंबर उसके पास है भी या नहीं। खैर, न होगा तो इंक्वायरी से पता कर लेगा। टेलीग्राफ आफिस में आल इंडिया डायरेक्टरी तो होगी ही।

"कुछ और लेंगे?" विजय ने पूछा, “पूड़ी ले आऊं और?"
"अरे नहीं भाई। यही बहुत है। खाया नहीं जा रहा।"
मगर वह किसी तरह सारी पूड़ियां खा गया। सफर का थका था। भूखा भी था कुछ। और फिर खाना भी अच्छा बना था।
"एक पूड़ी और ले आऊं?" विजय ने कहा।
"नहीं, नहीं।" उसने कहा और पानी पीकर हाथ धोने लगा।
विजय खाली बर्तन लेकर चला गया तो उसने दरवाजा अंदर से बंद कर लिया। तभी विजय फिर आया। “गेट की चाभी आप रख लीजिए। हो सकता है बंटी दादा रात में आएं।" उसने कहा।

चाभी लेकर उसने मेज पर रख दी। विजय चला गया तो उसने दोबारा दरवाजा बंद कर लिया।

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