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कामतानाथ संकलित कहानियां

कामतानाथ

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6427
आईएसबीएन :978-81-237-5247

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आम जनजीवन से उठाई गई ये कहानियां कथाकार के रचना-कौशल की वजह से ग्रहण के स्तर पर एक तरफ बतरस का मजा देती हैं तो दूसरी तरफ प्रभाव के स्तर पर उद्वेलित करती हैं...


थके होने के बावजूद रात एक बजे तक वह सोफे पर बैठ-बैठ ही कोई पस्तक पढ़ता रहा। आखिर जब बंटी नहीं आया तो वह बत्ती बुझाकर बिस्तर पर लेट गया। लेकिन यह बंटी गया कहां? पिक्चर जाता तो अब तक वापस आ जाता। कहीं ऐसा तो नहीं कि वह भी नागपुर निकल गया हो। लेकिन किसी को बता कर जाना चाहिए था।

वह आंखें बंद किए लेटा रहा। तमाम थकान के बावजूद उसे नींद नहीं आ रही थी। इधर बंटी को लेकर वह बहुत चिंतित रहने लगा था। अभी तक तो केवल पढ़ाई-लिखाई की ही बात थी, लेकिन अब वह आवारागर्दी की ओर बढ़ रहा था। अक्सर ही देर से घूम-फिर कर आता। कभी-कभी तो रात-भर नहीं आता। पूछने पर कोई बहाना बना देता। दो-एक बार उसे शक हुआ कि उसने उसकी जेब से पैसे भी चुराए। गलती उसी की थी। शुरू से ही वह उसकी पढ़ाई की तरफ से लापरवाह रहा। यनियन के काम-धंधों से फुर्सत ही कहां मिलती है। आए दिन बाहर जाना पड़ता है। कभी यहां मीटिंग है तो कभी वहां। कभी कोई कांफ्रेंस तो कभी कोई। बाहर नहीं भी जाना होता तो कौन घर में रहता है! यूनियन ऑफिस में ही आठ नौ बज जाते हैं। वहां से थका-मांदा आता है तो शरीर में इतनी ताकत नहीं रह जाती कि कुछ और काम कर सके। छुट्टी वाले दिन भी लोग अपनी समस्याएं लेकर आ जाते हैं। और समस्याएं भी कैसी-कैसी! किसी का अपने मकान मालिक से झगडा है तो वह चाहता है कि वह जाकर उसके मकान मालिक को डराए-धमकाए! किसी के घर की बिजली या पाइप कट गया है तो वह चाहता है कि वह बिजली कंपनी या जल निगम जाकर उसे ठीक कराए। किसी के बच्चे के एडमिशन की समस्या है तो किसी के भाई की जमानत होनी है। किसी को अपने चाचा या ताऊ को मेडिकल कॉलेज में भर्ती कराना है तो किसी को अपने रिश्तेदार के लिए किसी मिनिस्टर से सिफारिश करवानी है। ट्रेड यूनियन के दायरे में यह सब किस सीमा तक आता है, उसे नहीं मालूम। लेकिन लोग यूनियन को एक रुपया महीना चंदा देकर यह सब अपना जन्म-सिद्ध अधिकार समझते हैं। उसकी समस्या यह है कि वह इन कामों के लिए अपने सदस्यों को साफ मना भी नहीं कर सकता। मना करने पर लोग तुरंत उसकी यूनियन छोड़ दूसरी यूनियन में चले जाने की धमकी देने लगते हैं। इसके अलावा ऑफिस संबंधी समस्याएं तो होती ही हैं। प्रमोशन तो सबको चाहिए ही चाहिए। ओवरटाइम भी चाहिए। अब ओवरटाइम सबको कैसे दिलाया जाए। ओवरटाइम की सीटें चार हैं तो उम्मीदवार हैं चालीस। देर से आना और जल्दी जाना, अफसर की बात न सुनना, बल्कि जब जी चाहे अफसर से गाली-गलौज में बात करना तो लोग अपना अधिकार समझते ही हैं। आखिर यूनियन है किसलिए!

पत्नी ने शुरू में उससे बंटी की पढ़ाई पर ध्यान देने के लिए कहा तो उसने बड़ा विचित्र तर्क दिया। 'देखो', उसने कहा, "मैं लाख कोशिश करूं तो भी मेरा बेटा इस देश का प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति तो बन नहीं सकता। बहुत कोशिश करूंगा तो वह डॉक्टर या इंजीनियर बन जाएगा। ऐसी दशा में यदि देश में दो लाख सत्तर हजार पांच सौ अट्ठारह डॉक्टर या इंजीनियर हैं तो वह दो लाख सत्तर हजार पांच सौ उन्नीसवां डॉक्टर या इंजीनियर होगा। इसके विपरीत यदि वह चोर या गिरहकट बना तो यदि इस देश में पंद्रह लाख अट्ठावन हजार तीन सौ तेरह चोर या गिरहकट हैं तो वह पंद्रह लाख अठावन हजार तीन सौ चौहदवां चोर या गिरहकट होगा। दोनों ही सूरतों में इस देश की सामाजिक स्थितियों में कोई अंतर पड़ने वाला नहीं।"

यह कितना बड़ा कुतर्क था इसका अंदाजा उसे तब हुआ जब बंटी हाईस्कूल की परीक्षा में फेल हो गया। उसे रात-भर नींद नहीं आई और जब उसकी मार्क्सशीट आई तब तो उसे गहरा आघात लगा। गणित में सौ में सात, अंग्रेजी में सौ में तेरह, इसी प्रकार विज्ञान तथा अन्य विषयों में भी सौ में ग्यारह, चौदह जैसे नंबर थे। केवल हिंदी में पास मार्क्स थे। वह भी सौ में तेंतीस।

बंटी परीक्षा देकर आता और वह उससे पूछता “कैसा पेपर किया है?"तो वह हमेशा यही कहता, "ठीक हुआ है।" लेकिन क्या सारा दोष बंटी का ही था? सिवा इसके कि जिस दिन सुबह पेपर होता वह बंटी को समय से उठा देता, उसका उसकी पढ़ाई में क्या योगदान था? पूरे साल कभी भी बंटी की कापी या किताब खलवाकर नहीं देखी। जिंदगी-भर का सबक था यह उसके लिए। इस पर मजे की बात यह हुई कि परीक्षाफल निकलने के बाद उसकी यूनियन के एक सदस्य उसके पास आकर बोले, मेरा लड़का हाई स्कूल में फेल हो गया है। मैंने सुना है आपकी बोर्ड में कुछ जान-पहचान है। वहां रुपये लेकर नंबर बढ़ा देते हैं। आप मेहरबानी करके मेरे साथ चलिए। जो भी खर्च होगा मैं करने को तैयार हूं।"

"देखिए, न तो मेरी कोई जान-पहचान है और न ही न मैं कहीं जाऊंगा।" उसने कहा तो वह सज्जन बुरा मान गए।

उसने बंटी की मार्क्स शीट लाकर उसे दिखाई-“यह देखिए! मेरा लड़का खुद फेल है। अगर मेरी जान-पहचान होती तो पहले मैं इसी का केस ठीक कराता।" उसने उनके संतोष के लिए कहा तो उन्हें कुछ इतमीनान हुआ।

धड़ाम की आवाज के साथ अचानक कमरे में कुछ गिरा तो वह चौंक पड़ा। बत्ती जलाई तो देखा पेंट का डिब्बा जिसे वह पिछली दीवाली पर मकान की पुताई के सिलसिले में लाया था और जिसे, थोड़ा पेंट बच जाने के कारण, उठा कर टांड़ पर रख दिया था, जमीन पर गिरा पड़ा था। गनीमत थी कि पेंट जम चुका था नहीं तो फर्श पर बिखर जाता। उसने टांड़ पर निगाह डाली तो एक मोटा-सा चूहा दूसरे और डिब्बों के बीच बैठा उसे घूर रहा था। उसने कोने में रखा मसहरी का बांस उठाकर उसे भागना चाहा तो वह टांड़ से उतरकर पहले बाल्कनी और तब अंदर वाले दरवाजे की ओर भागा, मगर किवाड़ बंद होने के कारण बाहर नहीं निकल सका तो मेज पर किताबों के बीच दुबक कर बैठ गया। उसे बेहद गुस्सा आया। उसने रैक पर रखा पेपर-वेट उठाया और निशाना साध कर मारा तो चूह्म तो फुर्ती से भाग गया जबकि पेपरवेट मेज पर रखे फेमिली फोटोग्राफ पर लगा जो उसने दो-तीन साल पहले किसी खास अवसर पर खिंचवाया था। पेपरवेट लगते ही मढ़े हुए फोटोग्राफ का शीशा झनझना कर टूट गया। तभी उसे एहसास हुआ कि वह यह क्या कर रहा है। नीचे मकान मालिक के यहां लोग जाग गए होंगे तो क्या सोच रहे होंगे कि आधी रात को वह क्या तोड़-फोड़ मचाए है। उसने बाल्कनी का दरवाजा खोल दिया। चूहा भाग गया तो उसने दरवाजा बंद करके बत्ती बुझाई और दोबारा बिस्तर पर लेट गया।

लेकिन नींद ने तो जेसे कसम खाई थी न आने की। थोड़ी देर वह ऐसे ही लेटा रहा। तब उठकर दवा के डिब्बे में नींद की गोलियां खोजने लगा। उसकी पत्नी को डॉक्टर अक्सर ही काम्पोज या वैलियम आदि दिया करता था। हो सकता है एक आध टैबलेट कहीं पड़ी हो। लेकिन एक भी टैबलेट नहीं मिली। वह फिर लेट गया और फिर उसका दिमाग इधर-उधर की बातों में भटकने लगा।

आज लगभग तीस साल उसकी नौकरी को हो रहे थे। इस अर्से में उसकी केवल यही कमाई थी कि लोग उसे आदर से देखते थे और अपनी समस्याएं लेकर उसके पास समाधान खोजने आते थे। दूसरी ओर उससे कितने ही वर्षों जूनियर लोग आज सीनियर अफसर बने बैठे थे। टेलीफोन लगा था उनके घर पर, कार तथा जीवन को अन्य सुविधाएं थीं, बच्चे अच्छे स्कूल, कॉलेजों में पढ़ रहे थे जबकि वह फटीचर का फटीचर ही रहा। फर्नीचर के नाम पर उसके यहां लोहे की पाइप वाली कुर्सियां, लकड़ी का एक सोफा जो उसे शादी में मिला था, पढ़ने की एक मेज और एक कुर्सी थी। डाइनिंग टेबुल, पत्नी के बार-बार कहने के बावजूद वह खरीद नहीं सका था। बड़ी मुश्किल से कर्ज लेकर एक फ्रिज और टी. वी. जरूर खरीदा था पिछले दिनों जिसमें टी. वी. की किश्तें वह अभी भी भर रहा था। ऐसा नहीं कि यूनियन में काम करने वालों ने पैसा न कमाया हो। उससे पहले जो सेक्रेटरी हुआ करता था उसने अपनी पत्नी के नाम जीवन बीमा की एजेन्सी ले रखी थी। यूनियन के हर सदस्य को नौकरी में आते ही वह पंद्रह-बीस हजार का बीमा टिका देता था। आज वह भी एक सीनियर अफसर बना बैठा था। हजारों रुपये महीना जीवन बीमा निगम से कमीशन के आते थे सो अलग। लोगों के बच्चों या रिश्तेदारों को भर्ती कराने या फिर चार्जशीट हो जाने पर सदस्यों के केस लड़ने में भी यूनियन के पहले के पदाधिकारियों ने न जाने कितने पैसे बनाए थे। सबके अपने मकान या प्लाट थे। इधर-उधर सोर्स लगाकर अपने लड़के-लड़कियों को भी उन्होंने यथास्थान नौकरियों में लगवा दिया था और अब आराम से मौज काट रहे थे। डी क्लास का चीफ सेक्रेटरी विश्राम सिंह तो एक और नौटंकी करता था। लगभग हर दूसरे-तीसरे साल वह अपनी बेटी, भतीजी या भांजी के विवाह का कार्ड छपवा कर बांट देता और सभी साधारण सदस्यों पर ग्यारह रुपये और कमेंटी के सदस्यों पर पच्चीस रुपये की लेवी लगा देता। विवाह चूंकि उसके गांव में संपन्न होते थे अतः किसी को कभी पता नहीं चल पाता कि वास्तव में विवाह था भी या नहीं और वह मजे में हर दूसरे-तीसरे साल गांव में एक-दो बीघा जमीन और खरीद लेता। यूनियन के सदस्यों का क्वापरेटिव का कर्ज मार देना तो उसके बाएं हाथ का खेल था। आर्गेनाइजेशन के सचिव ने भी यही किया था। उसने तो संगठन के सदस्यों का सोसाइटी का लोन लेकर मकान भी खरीद लिया था। अब सब उसे गाली देते फिर रहे थे और वह मौज से उसी मकान में बच्चों का एक स्कूल चला रहा था। एक मेटाडोर और कितने ही रिक्शे थे उसके पास। और यहां उसका यह हाल था कि घर की जो स्थिति थी सो तो थी ही लड़का भी गलत रास्ते पर चल निकला था।

बंटी के हाई स्कूल में फेल हो जाने के बाद जरूर वह कुछ सचेत हुआ था।

बंटी को बुलाकर उसने उससे पूछा था कि वह पढ़ना चाहता है या नहीं। न पढ़ना चाहता हो तो वह उसके लिए कोई और काम-धंधा सोचे। वह जानता था कि पंद्रह-सोलह साल के लड़के से इस तरह का प्रश्न करना निरर्थक ही नहीं एक प्रकार का बेहदापन भी था। उसका मकसद केवल इतना था कि वह उसे यह एहसास करा दे कि उसकी पढ़ाई पर पैसा खर्च होता है और उसका सही उपयोग तभी होगा जब वह मन लगाकर पढ़े और अच्छे नंबरों से पास हो जाए। बंटी चुप रहा तो उसने दूसरा प्रश्न किया, “अच्छा यह बताओ साइंस चलेगी तुमसे? साइंस न चले तो आर्ट ले लो।"

लेकिन बंटी साइंस छोड़ने को तैयार नहीं था। अतः दूसरे साल उसने फिर उसका एडमीशन साइंस साइड में ही करा दिया। साथ ही घर पर ट्यूटर भी लगा दिया : विज्ञान वाले मास्टर कुछ रुपये लेकर घर पर भी बच्चों को पढ़ाते थे और उन्हीं बच्चों को प्रैक्टिकल में अच्छे नंबर भी दिलवाते थे। बंटी के कहने पर वह उसको वहां भी पढ़ने भेजने लगा।

अगले वर्ष बंटी पास तो हो गया लेकिन थर्ड क्लास। बहुत कोशिश करने पर भी उसे साइंस साइड में एडमीशन नहीं मिला तो उसने उसे आर्ट साइड में एडमीशन दिला गया। मगर फर्स्ट इयर में वह फिर फेल हो गया। शायद विषय बदल जाने की वजह से ऐसा हुआ, उसने सोचा। फिर वही सिलसिला शुरू हुआ। घर पर मास्टर लगाया गया। कोचिंग में भी नाम लिखाया गया। तब कहीं जाकर वह फर्स्ट इयर में निकल पाया। इस साल उसका फाइनल था। और यह हाल थे उसके।

पिछले दिनों उसके ऑफिस में चपरासियों की भर्ती के लिए ऑफिस आर्डर निकला था जिसमें न्यूनतम योग्यता हाई स्कूल थी। उसके कुछ मित्रों ने उसे सलाह दी कि बंटी को उसमें अप्लाई करवा दो। उसके एक शब्द पर उसका सेलेक्शन हो जाएगा। पांच साल बाद क्लैरिकल टेस्ट में बैठकर बाबू हो जाएगा। उसे बहुत सदमा पहंचा था कि अब वह अधिकारियों से यह कहे कि वह उसके लड़के को चपरासी में भर्ती कर लें। फिर भी उसने पत्नी से राय ली। मगर पत्नी पर तो और भी प्रतिकूल प्रतिक्रिया हुई। वह रोने लगी। सुबकते हुए बोली, "जैसा तुम ठीक समझो करो। मैं क्या कह सकती हूं। मेरी बात कभी मानी है तुमने? शुरू से तुमने उसकी पढ़ाई पर ध्यान दिया होता तो आज यह नौबत क्यों आती! अपने ऑफिस में चपरासी बनवाने में तुम्हारी इज्जत बढ़ती हो तो बनवाओ।"

वह खामोश हो गया। निश्चय ही उसकी गलती थी। लेकिन वह तो दूसरी ही दुनिया में रह रहा था। वह तो पूरे देश को बदलने के सपने देख रहा था। अपने भाषणों में वह लंबी-लंबी बातें करता। इस देश में सी. आई. ए. और बहराष्ट्रीय कंपनियों की साजिशों का पर्दाफाश करता। सरकार के पूंजीवादी सामंतशाही चरित्र की बखिया उधेड़ता। कहां एक ओर यह सब और कहां अपने लड़के को, उसके भविष्य की सुरक्षा के नाम पर, अपने ऑफिस में चपरासी बनवाने की बात! दोनों में कोई सामंजस्य ही नहीं था।

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