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कामतानाथ संकलित कहानियां

कामतानाथ

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6427
आईएसबीएन :978-81-237-5247

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आम जनजीवन से उठाई गई ये कहानियां कथाकार के रचना-कौशल की वजह से ग्रहण के स्तर पर एक तरफ बतरस का मजा देती हैं तो दूसरी तरफ प्रभाव के स्तर पर उद्वेलित करती हैं...


वैसे उसके संस्कारों में अन्याय के खिलाफ संघर्ष करने या क्रांति के लिए समर्पित होने जैसा कुछ नहीं था। उसके पिता बहुत ही शांतिप्रिय व्यक्ति थे। लड़ाई-झगड़े से कोसों दूर रहने वाले। जीवन में उन्होंने अन्याय सहन करना ही सीखा था। उसके खिलाफ आवाज उठाने का साहस उन्होंने कभी नहीं किया। अपनी नौकरी में भी उन्होंने बहुत मार खाई। कितनी ही बार उन्हें सुपरसीड किया गया मगर उन्होंने कभी प्रतिवाद नहीं किया। इसके बिल्कुल विपरीत वह जिस दिन से नौकरी में आया लगभग उसी दिन से यूनियनबाजी के चक्कर में फंस गया। हुआ यह कि उन दिनों अफसर ग्रेड में प्रोमोशन का आधार मात्र साक्षात्कार हुआ करता था और साक्षात्कार में विशेष बल प्रत्याशी की सी. आर. पर दिया जाता था। उस समय यूनियन के सेक्रेटी एक भसीन साहब हुआ करते थे और अध्यक्ष एक न्यूटन साहब। उन दोनों का नंबर भी साक्षात्कार के लिए था। लेकिन उन्हें भय था कि उनकी सी. आर. ठीक नहीं है। अतः उन्होंने मांग की कि सी. आर. की अपेक्षा प्रत्याशी के व्यक्तित्व अथवा पर्सनालिटी पर अधिक बल दिया जाना चाहिए। दोनों ही खासे खूबसूरत जवान थे। कपड़े-लत्ते भी बहुत सुरुचिपूर्ण ढंग से पहनते थे और उन्हें पूरा विश्वास था कि यदि सेलेक्शन में प्रत्याशी के व्यक्तित्व पर अधिक बल दिया जाए तो वे उस मानदंड पर बिल्कुल खरे उतरेंगे। इसीलिए उन्होंने यूनियन की तरफ से यह मांग उठाई थी। यूनियन की जिस मीटिंग में इस पर विचार होना था वह भी उसमें उपस्थित था। उसने बी. ए. में मनोविज्ञान पढ़ा था जिसकी पुस्तक में व्यक्तित्व पर एक खासा मोटा चैप्टर था। उसमें व्यक्तित्व को केवल मनुष्य की शक्ल-सूरत या लिबास के रूप में न देख कर उसे उसकी समग्रता, यानी उसकी सोच, स्थितियों के प्रति उसके रिऐक्ट करने की क्षमता, उसके मनोवेगों आदि में देखा गया था। उससे अधिक देर खामोश नहीं रहा गया। अध्यक्ष से अनुमति लेकर वह बोलने खड़ा हो गया। उन दिनों यूनियन की सभाओं में अंग्रेजी में ही बोलने की प्रथा थी। अंग्रेजी उसकी भी ठीक ठाक ही थी। उसने अपने पुस्तकीय ज्ञान के आधार पर व्यक्तित्व की खासी व्याख्या कर डाली तथा अंत में गांधी, लिंकन, हो. ची. मिन्ह जैसे महान व्यक्तियों का उदाहरण देते हुए अपनी बात की पुष्टि की कि मात्र शक्ल-सूरत या पहनावे से किसी के व्यक्तित्व पर कोई फैसला नहीं किया जा सकता।

लोगों ने उसकी बात का तालियां बजाकर समर्थन किया। मीटिंग के बाद उसके मित्रों ने उसे बधाई दी। इसके बाद तो उसके मित्र लोग उसे हर मीटिंग में बोलने के लिए प्रोत्साहित करने लगे। उसे भी मजा आने लगा। उसी वर्ष दोस्तों ने उसे चुनाव भी लड़ा दिया। यद्यपि वह चुनाव हार गया लेकिन इससे उसका जोश कम होने के बजाय बढ़ गया। अगले वर्ष वह चुनाव जीतकर कमेटी में आ गया। सात-आठ
वर्षों तक विभिन्न पदों पर काम करने के बाद उसे सेक्रेटरी बना दिया गया। शुरू में उसे मन ही मन कुछ घबराहट हुई कि पता नहीं वह इस पद की गरिमा के अनुसार काम कर भी पाएगा या नहीं। चूंकि उसने कई वर्षों से सेक्रेटरी के पद पर चले आ रहे व्यक्ति के हराया था इसलिए उसे सदस्यों का पूर्ण सहयोग भी प्राप्त नहीं था। लेकिन जल्दी ही उसने अपनी मेहनत, लगन और ईमानदारी से सभी को प्रभावित कर लिया। यूनियन के रिकोर्ड, जो अस्त-व्यस्त थे, उन्हें दुरुस्त किया, सदस्यों के उपयोग के लिए एक लाइब्रेरी की स्थापना की, यूनियन के एकाउंट्स का, जो वर्षों से आडिट नहीं हुए थे, आडिट कराया। उस समय तक युनियन का चंदा चार आना प्रति माह था, उसे बढ़ाकर एक रुपया प्रति माह कराया। अगले ही वर्ष अपने केंद्र पर आल इंडिया की कांफ्रेंस भी करा दी। उसी मे वह आल इंडिया का असिस्टेंट सेक्रेटरी चुन लिया गया।

इसी के साथ-साथ वह पार्टी का सदस्य भी हो गया। शुरू में अपने कार्यालय में वह अकेला पार्टी सदस्य था। बाद में उसने कितने ही और लोगों को भी सदस्य बनवा दिया। पार्टी सेक्रेटरी ने उसे पार्टी सेल का कन्वेनर बना दिया। कुछ ही दिनों बाद वह जिला कमेटी में आ गया। अब वह दूसरे उद्योगों के आंदोलनों में भी हिस्सा लेने लगा। मिलों के गेटों पर पिकेटिंग करता। सभाओं में भाषण देता। उसका नाम अखबारों में छपता, उसके बयान प्रकाशित होते। लोग उसे बधाई देते। दो बार जेल जाना पड़ा उसे, और एक बार पुलिस की लाठियों से घायल भी हुआ। लेकिन इससे उसका सम्मान बढ़ा ही। जेल से छूटने पर तो लोगों ने उसे फूलों के हारों से लाद दिया। फूलमालाओं से लदा हुआ घर पहुंचा तो पूरे मुहल्ले में उसकी धाक जम गई।

औरों की निगाहों में जो भी रहा हो स्वयं अपनी दृष्टि में तो वह महत्त्वपूर्ण हो ही गया।

लेकिन पत्नी फिर भी शिकायत करती रही। "तुम्हारी इन फूल-मालाओं, भाषणों से बच्चों का भविष्य तो बनेगा नही," वह कहती, "बंटी की पढ़ाई की तरफ कुछ ध्यान दो। मुझे तो लगता है कि उसका पास होना मुश्किल है। गीता भी बड़ी हो रही है। एक पैसा तुम बचाते नहीं। उसका शादी-ब्याह कैसे होगा? बच्चों के कपड़े-लत्ते भी बरसों तक बनने की नौबत नहीं आती। डॉली कितने दिनों से फटे जूते पहनकर स्कूल जा रही है। अगले साल बबलू का भी नाम लिखाना है। कितनी बार तुमसे कहा किसी अच्छे स्कूल में उसका रजिस्ट्रेशन करा दो। लेकिन तुम्हारी समझ में कुछ आता ही नहीं।"

वह फिर कुर्तक करने लगता-“अरे भाई, तुम्हे तो केवल घर की चिंता है। मुझे तो पूरे देश की चिंता है। तुम्हें मालूम है कि कितने लोग इस देश में फुटपाथ पर सोते हैं? गरीबी की रेखा जानती हो? आजादी के इतने दिनों बाद भी करोड़ों लोग इस देश में अभी भी उस रेखा के नीचे हैं।"

"गरीबी की रेखा तो मैं नहीं जानती लेकिन अपनी गरीबी का एहसास मुझे है।" पत्नी कहती।

वह हंसने लगता। "तुम और गरीब! वाह, वाह! कितने महान आदमी की पत्नी हो तुम, इसका एहसास है तुमको?"

लेकिन हुआ क्या? देश की स्थितियां तो बिगड़ती गईं ही, उसका घर भी चौपट हो गया। पत्नी धीरे-धीरे डिप्रेशन का शिकार हो गई। कम्पोज और वैलियम के भरोसे चल रही है। लड़के का यह हाल है। गीता सिर्फ चौदह साल की है लेकिन लगता है जैसे अभी से बूढ़ी हो गई है। अचानक उसे ध्यान आया कि पिछले कितने वर्षों से उसने उसे हंसते नहीं देखा। अजीब दबी-दबी सकुचायी-सी रहती है। डॉली और बबलू भी कैसे बीमार जैसे लगते हैं। और लोगों के बच्चे किस तरह फूल की तरह खिले-खिले रहते हैं।

यूनियन का भी क्या हाल है! एक की जगह चार-चार यूनियनें हो गई हैं। सबकी अलग-अलग राजनीति है। एक यूनियन हड़ताल का आह्वान करती है तो बाकी उसका विरोध करती हैं। पहले कम-से-कम यह था कि मेहनतं जरूर करनी पड़ती थी, लेकिन हड़ताल में कोई अंदर नहीं घुसता था। अब खुद उसकी यूनियन के सदस्य उसके मुंह पर हड़ताल का विरोध करते हैं। छुट्टी लेकर बैठने की बात तो दूर रही कितने ही ऐसे सदस्य हैं जो विरोध का कोई न कोई मुद्दा ढूंढ़ कर डंके की चोट हड़ताल तोड़कर अंदर घुस जाते हैं। पार्टी का भी क्या हुआ? उसके देखते-देखते पार्टी एक से दो, दो से तीन, तीन से चार, पता नहीं कितने टुकड़ों में बंट गई। और जो बची है उसमें भी एक अजीब बिखराव-सा आता जा रहा है। आपसी मतभेद तो सभी जगह होते हैं। लेकिन यहां तो खुल्लमखुल्ला गुटबंदी चल रही है।

इस सबके बीच वह क्या है? मशीन का पुर्जा? जमीन की खाद? गोबर का ढेर? उसकी आंखों के सामने दूर-दूर तक फैले हुए निर्जन खेतों में गोबर के छोटे-छोटे ढेर दिखाई देने लगे। टी. वी. पर आने वाला युरिया खाद का विज्ञापन नाचने लगा जिसमें एक हृष्ट-पुष्ट किसान अपने खेतों में यूरिया का छिड़काव करता दिखाई देता है और दूसरे ही क्षण लहलहाती हुई फसल खेतों में नाचने लगती है। वह तो खाद . हो गया मगर लहलहाती हुई वह फसल कहां है? उसका सर चकराने लगा। जैसे वह कहीं बहुत गहरे डूबता चला जा रहा हो। गहरे और गहरे।

नींद ने उसे कब धर दबोचा, उसे पता नहीं चला। सुबह नौ बजे उसके फ्लैट की घंटी बजी तो वह इनती गहरी नींद में था कि जागकर भी अनजागा-सा रहा। उसे लगा कि वह अभी भी ट्रेन में अपनी बर्थ पर लेटा है। तभी तीसरी या चौथी बार घंटी देर तक बजती रही तो उसने आंखें खोलकर स्थिति का जायजा लिया और जब उसे एहसास हुआ कि वह ट्रेन में न होकर अपने फ्लैट में है तो अनमने मन से उसने बालकनी का दरवाजा खोलकर बाहर झांका। उसकी यूनियन के दो-तीन सदस्य उसके गेट पर खड़े थे।

"गुड मार्निंग, कामरेड, सो रहे थे क्या अभी?"

"हां, आओ, ऊपर आ जाओ।" उसने कहा।

"आ जाओ भाई, कामरेड आ गए।" उन लोगों ने सड़क के मोड़ वाली पान की दूकान पर खड़े कुछ अन्य सदस्यों को आवाज लगाई और सभी ऊपर आ गए। उसने बाथरूम जाकर हाथ-मुंहधोया। तब आकर उनके साथ बैठ गया।

"कब आए कामरेड ?"
"कल रात।"
"किस गाड़ी से?"
"वही शाम को आती है जो, बाम्बे मेल।"
"लेकिन हम लोग तो नौ बजे आए थे। तब तक तो आप आए नहीं थे।"
"नौ बजे तो ट्रेन ही आई थी। करीब एक घंटा लेट थी।"
"तभी। हम लोग समझे आप आए नहीं तो लौट गए।"
"क्या हुआ कामरेड, तनखाह बढ़ी कुछ?"
वह हंसने लगा। "तनखाह बढ़ी? ऐसे ही बढ़ जाएगी क्या, बिना कुछ किए?"
"अरे यार अभी चार्टर तैयार होना है कि तनखाह बढ़वाने गए थे कामरेड?" किसी और साथी ने उस साथी को दुरुस्त किया।
"वही तो मैं पूछ रहा हूं। चार्टर बन गया कि नहीं?"
"चार्टर बन जाएगा तो समझो बढ़ ही जाएगी।"
"इतना आसान नहीं है।" उसने कहा, "बल्कि इस बार कुछ ज्यादा ही मुश्किल पड़ेगी। बिना सीरियस एजीटेशन किए कुछ नहीं होगा।"
“अरे सब होगा कामरेड। आप पहले यह बताइए सब फाइनल हो गया या नहीं।"
“सब बताता हूं भाई! लेकिन पहले कुछ चाय का इंतजाम करो। ऐसा करो, जमानत तुम चले जाओ। मोड़ पर चाय की दुकान है न, उससे बोल दो जाकर। लड़का है उसके यहां, वह ले आएगा। और सिगरेट भी लेते आना एक पैकेट।"
"क्यों? घर में कोई है नहीं क्या?"
"मेरे फादर-इन-ला की डेथ हो गई है। नागपुर में। लौटकर आया तो पता चला तार आया था। वही सब लोग चले गए वहां।"
"आपके साथ बड़ी ट्रेजडी है कामरेड ! एक बार आप कहीं गए थे तब आपकी मदर की डेथ हो गई थी न?"
'डेथ तो मेरे लौटकर आने के बाद हुई थी। हां, हास्पिटलाइज करना पड़ा था।"
"मेरा ख्याल है दस-पंद्रह साल पहले की बात होगी।"

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