कहानी संग्रह >> कामतानाथ संकलित कहानियां कामतानाथ संकलित कहानियांकामतानाथ
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आम जनजीवन से उठाई गई ये कहानियां कथाकार के रचना-कौशल की वजह से ग्रहण के स्तर पर एक तरफ बतरस का मजा देती हैं तो दूसरी तरफ प्रभाव के स्तर पर उद्वेलित करती हैं...
थोड़ी ही देर में कार्तिक अपनी मोटरसाइकिल पर आ गया। तब तक मेरा ऑफिस भी बंद
हो चुका था, अतः हम दोनों गंगा पार के लिए रवाना हो गए।
कालीचरन की दुकान पर पहुंचे तो देखा, उसकी दुकान का सारा सामान सड़क पर
इधर-उधर बिखरा पड़ा था। उसकी पत्नी और दोनों बच्चे वहीं खड़े रो रहे थे। हमने
आस-पास के लोगों से जानना चाहा कि आखिर बात क्या हुई, लेकिन कोई भी हमें
निश्चित जानकारी नहीं दे सका। अतः यह अनुमान लगा कर कि पुलिस वाले कालीचरन को
थाने ही ले गए होंगे, हम थाने की आरे चल दिए।
दारोगा थाने के अहाते में मेज-कुरसी डाले बैठा था। कार्तिक अपनी मोटरसाइकिल
सीधे उसकी मेज तक ले आया और गद्दी पर बैठे-बैठे ही उससे बोला, "कालीचरन को आप
लोग पकड़ कर लाए हैं?"
दारोगा ने कुरसी पर बैठे-बैठे ही हमें घूर कर देखा। बोला, "मोटरसाइकिल किसकी
इजाजत से अंदर लाए हो?"
कार्तिक कुछ जवाब देता, इससे पहले ही मैंने उससे कहा, "चलो इसे बाहर ही खड़ी
कर देते हैं।"
कार्तिक को अच्छा नहीं लगा। लेकिन मेरे कहने से वह मान गया। मोटरसाइकिल सड़क
पर लाकर हमने उसे एक किनारे खड़ी करके लॉक कर दिया और पुनः थाने के अंदर आ
गए। तब तक दो-एक कान्स्टेबुल भी वहां आ गए थे।
"कबूला कुछ साले ने?" हम वहां पहुंचे तो दारोगा उन कान्स्टेबुलों से पूछ रहा
था।
"अभी नहीं।" उनमें से एक ने कहा।
"तोड़ दो साले की टांगे।" दारोगा ने कहा, "जब तक कबूले नहीं हाथ न रुके
तुम्हारा।" इतना कहकर उसने दृष्टि हमारी ओर घुमायी और बिना कुछ बोले हमें
घूमता रहा।
"हमें पता चला है, आपके सिपाही कालीचरन को पकड़ कर लाए हैं।" कार्तिक ने कहा।
"कौन कालीचरन?"
"जिसकी पुल के पास पान की दुकान है।"
“आप कौन है?"
"हम उसके दोस्त हैं।" कार्तिक ने कहा। तब तक कान्स्टेबुल वहां से जा चुके थे,
मगर उनकी जगह दूसरे दो आ गए थे।
"इनको भी ले जाकर बंद कर दो हवालात में।" दारोगा ने कार्तिक की ओर इशारा करते
हुए कान्स्टेबुलों से कहा।
कान्स्टेबुल हमारी ओर बढ़े जरूर, लेकिन शायद एक बार दारोगा से उसके आदेश की
पुनः पुष्टि के लिए रुके गए।
"देखिए, हम लोग बैंक में अफसर है।" कार्तिक ने कहा। वैसे वह अफसर ने होकर
मात्र असिस्टेंट हैं, लेकिन असिस्टेंट क्लर्क से ऊपर होता है, अतः इस बात में
झूठ अधिक नहीं था और इतना झूठ तो इस देश में चलता ही है।
"तो?" दारोगा के माथे के बल बदस्तूर बने रहे।
"हम कालीचरन को जानते हैं, उसकी पत्नी हमारे पास आई थी। उसी ने हमें बताया कि
पुलिस उसे पकड़ कर ले गई है। अगर आपने उसे बंद किया है तो हमें बताइए, नहीं
तो हम उसे दूसरी जगह तलाश करें।" कार्तिक ने कहा।
"बंद किया है।" दारोगा ने कुछ इस अंदाज से कहा कि अगला सवाल करने पर वह
कार्तिक को बिना तले या भूने कच्चा ही चबा जाएगा।
"देखिए ऐसा है," आखिर मैंने हस्तक्षेप किया, “आप बिगड़ें नहीं। हम कालीचरन को
जानते हैं। हमने उसे पान की दुकान खोलने के लिए बैंक से कर्ज दिया है (कर्ज
हमने दिया नहीं, दिलवाया था, लेकिन बात को इस ढंग से कह कर मैनें उस पर कुछ
रोब मारना चाहा) अगर उसने कोई ऐसा जुर्म किया है, तो आप हमें बताएं, हम उसकी
जमानत का प्रबंध करेंगे।
“अच्छा तो आपने ही उसे दुकान कराई है!" दारोगा ने कुछ इस तरह कहा, जैसे हमने
दुकान न करवा कर बलात्कार करवाया हो।
"कराई नहीं, केवल उसके लिए कर्ज दिलाया है।" मैंने कहा।
"आपका भी हिस्सा होगा उसमें?" दारोगा ने इस बार ऐसे अंदाज में कहा, जैसे उसने
सारा राज समझ लिया हो।
"ऐसा ही समझ लीजिए।" उत्तर कार्तिक ने दिया।
"तो बजाय उसकी जमानत के अपनी जमानत का इंतजाम कीजिए।"
"मैं आपकी बात समझा नहीं।"
"ऐसे नहीं समझोगे, रात-भर हवालात में रहोगे, तो समझ में आ जाएगा।"
मुझे लगा कि बात फिर बिगड़ रही है। "देखिए, आप बिगड़िए नहीं," मैंने कहा,
"केवल हमें यह बता दीजिए कि उसका जुर्म क्या है। और अगर थाने से उसकी जमानत
हो सकती हो, तो उसका प्रबंध हम करें।"
इस बार दारोगा उठकर खड़ा हो गया-"मेरी खोपड़ी मत खाओ। अगर अपनी खैरियत चाहते
हो, तो यहां से चलते-फिरते नजर आओ।"
"क्या हम कालीचरन से एक मिनट बात कर सकते हैं?" मैंने पूछा।
"नहीं!" उसने कड़क कर कहा और अंदर कमरे में चला गया।
मुझे लगा, उससे अधिक बात करना दीवार पर सिर पटकने से शायद ही कुछ बेहतर हो,
अतः मैंने कार्तिक की बांह पकड़ी और लगभग घसीटता हुआ उसे बाहर ले आया। उससे
चाबी लेकर मैंने मोटरसाइकिल स्टार्ट की और उसे पीछे बिठा कर थोड़ी दूर पर एक
होटल के सामने मोटरसाइकिल पार्क करके हम उसमें चाय पीने के लिए घुस गए।
जैसा कि हर हिंदुस्तानी की आदत होती है, देर तक हम अपने नपुंसक गुस्से को
गालियों में ढालते रहे। बातों-ही-बातों में मैंने उस नामाकूल दारोगा को लाइन
हाजिर करवा दिया। लेकिन कार्तिक इससे संतुष्ट नहीं था, अतः उसने उसे सस्पेंड
करवा डाला। अंततः इस तरह की हवाई कलाबाजियों से जब हमारा गुस्सा कुछ शांत
हुआ, तो हमने नए सिरे से सोचना शुरू किया कि हमें क्या करना चाहिए।
पुलिस से निपटने के इस देश में दो ही रास्ते हैं। एक जो किंचित सरल रास्ता
है, लेकिन हमारे शब्दकोश में जिसकी एंट्री नहीं है, वह है पैसा। यानी पैसा
पिलाओ और काम निकालो। लेकिन जैसा कि मैंने कहा, यह रास्ता हमारे शब्दकोश में
था ही नहीं। दूसरा रास्ता है नेता। यानी किसी नेता को पकड़ो और उसके माध्यम
से काम कराओ और नेता अगर सत्तादल का हुआ, तब तो काम हुआ ही समझो। लेकिन यह
हमारा दुर्भाग्य ही था कि हम किसी ऐसे नेता को भी नहीं जानते थे। तभी हमें
अचानक अफजाल साहब का ख्याल हो आया, जो नामी वकील होने के साथ-साथ माने हुए
वामपंथी नेता भी थे और एक जमाने में बैंक यूनियन के अध्यक्ष भी रह चुके थे।
अपने भाषणों में कितनी ही बार उन्होंने सरकार के खिलाफ आग उगली थी और पुलिस
की तो बखिया ही उधेड़ कर रख दी थी। एक बार स्वयं एम. एल. ए. का चुनाव लड़
चुके थे और अनेक बार दूसरों को लड़ा चुके थे। कार्तिक, उसने उस दौरान, जब वह
बैंक युनियन के अध्यक्ष थे, उनसे कई बार मिल भी चुका था। नाम से नहीं तो कम
से कम शक्ल से वह उसे जानते भी थे। हमने तय किया कि उन्हीं से राय ली जाए।
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