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कामतानाथ संकलित कहानियां

कामतानाथ

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6427
आईएसबीएन :978-81-237-5247

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आम जनजीवन से उठाई गई ये कहानियां कथाकार के रचना-कौशल की वजह से ग्रहण के स्तर पर एक तरफ बतरस का मजा देती हैं तो दूसरी तरफ प्रभाव के स्तर पर उद्वेलित करती हैं...


होटलवाले का बिल चुकता करके हम वापस कालीचरन की दुकान आ गए। अब तक उसकी पत्नी रो-रो कर थक चुकी थी और निढाल-सी वहीं सड़क के किनारे बैठी थी। दोनों बच्चे भी रोना भूल कर कंचा खेलने में मशगूल थे। दुकान का सामान, जो सड़क पर बिखरा पड़ा था, उसे समेट कर किसी ने वैसे ही बेतरतीबी से दुकान में ढेर कर दिया था। हमें आता देख कर कालीचरन की पत्नी उठकर खड़ी हो गई और बहुत मायूसी से उसने हमारी ओर देखा। हमारे पास उससे कहने लायक कुछ नहीं था। अतः हमने उसे दुकान में ताला लगा कर घर जाने को कहा और उसे यह आश्वासन देकर कि कल तक कालीचरन छूट जाएगा, शहर चले आए।

कोई आठ बजे हम अफजाल साहब के बंगले पहुंचे, लेकिन उनसे मिल कर हमें अधिक आशा नहीं बंधी। उन्होंने कहा, "तुम्हारे पास क्या सबूत है कि पुलिसवाले हफ्ता लेते हैं?"

"सबूत तो कोई नहीं, लेकिन है यह सच।" हमने कहा।

"कानून की निगाह में बिना सबूत के कुछ भी सच नहीं होता।" उन्होंने कहा, "और फिर हफ्ते की बात तो बाद में आती है, पहली बात तो यह है कि शराब बेचना अपने आप में गैरकानूनी ही नहीं, जुर्म भी है। कॉगनीजिबुल अफेंस।"

"जुर्म तो है, लेकिन कराते तो सब पुलिसवाले ही हैं। नहीं तो जब उसने यह धंधा बंद कर दिया और अब शांति से पान की दुकान चला रहा है तो उससे छेड़छाड़ करने की क्या जरूरत? अभी फिर वह धंधा शुरू कर दे और उन्हे हफ्ता पहुंचाने लगे, तो कुछ न हो।"

"मैंने कहा न भाई, सबूत चाहिए सबूत।"

"इंक्वायरी करा ली जाए।"

"कौन करेगा इंक्वायरी?"

"पुलिस अधीक्षक स्वयं कर लें।"

"तुम क्या समझते हो, हफ्ते की रकम में उनका हिस्सा नहीं होता होगा?" “सी. आई. डी. या फिर सी. बी. आई."

"किस दुनिया में रहते हो? बड़े-बड़े कांड हो जाते हैं, कुछ होता है? यह सब महकमे उनके खिलाफ काम करते हैं, जिन्हें सरकार फंसाना चाहती है। सरकार की मदद के लिए हैं ये, जनता की मदद के लिए नहीं। समझे!"

हमने उनसे कहा कि वह किसी पुलिस अधिकारी को फोन ही कर दें, तो हम जाकर उससे मिल लें। कम-से-कम उसकी जमानत तो हो जाएगी। मगर अफजाल साहब ने हमें एक नयी बात बताई। नयी इसलिए, क्योंकि पहले से हमें जानकारी नहीं थी। वह यह कि गंगा पार का इलाका कानपुर जिले में न पड़ कर उन्नाव जिले में आता था। अतः कानपुर जिले का कोई भी अधिकारी इसमें सहायक नहीं हो सकता था। अब हमारे पास इसके अलावा कोई चारा नहीं था कि हम अपने गम और गस्से को शराब के गिलासों में डुबो कर, कल जो होगा देखा जाएगा, कहकर आराम से सो जाएं। अतः अफजल साहब के बंगले से निकल कर हमने यही किया।

अपने-अपने ऑफिस से अवकाश लेकर हम दूसरे दिन जब गंगा पार पुलिस थाने पहुंचे, तो वे लोग कालीचरन को कचहरी ले जा चुके थे। हम वहां से कार्तिक की मोटरसाइकिल पर सीधे कचहरी भागे। जब तक हम पता करें कि उसे किस कोर्ट में पेश किया गया है, उसे जेल के लिए रिमांड हो चुकी थी। काफी भाग-दौड़ । करके हमने किसी तरह उसकी जमानत कराई और जेल जाकर उसे रिहा कराया। शाम कोई सात बजे के आस-पास, जब हम उसके साथ उसके घर पहुंचे, तो उसकी पत्नी अपने बच्चों के साथ घर के बाहर ही उदास बैठी थी। कालीचरन को देखते ही वह प्रफुल्लित हो उठी और उसके सारे शरीर पर हाथ फिराने लगी। तभी उसने कालीचरन की कमीज उठा कर देखा। उसकी पीठ पर डंडों के निशान थे, जिससे हमें पता चला कि पुलिस वालों ने उसे खासी मार लगाई थी। कालीचरन की पत्नी उसके घावों को देर तक सहलाती और पुलिसवालों को लानत-मलामत भेजती रही कि जिसने भी उसे मारा हो, उसके सारे शरीर में कोढ़ फूटे, सारे अंग गल-गल कर गिरें आदि। तभी कालीचरन ने उसका हाथ झटक दिया- “अरे छोड़ भी न अब। बाबू लोगों के लिए कुछ खाना-वाना बना। सुबह से भूखे हैं।"

हमने मना करना चाहा, लेकिन कालीचरन ने हमें जिद करके रोक लिया। पत्नी को चूल्हा जलाने का आदेश देकर वह उससे कुछ पैसे और एक थैला लेकर चला गया। थोड़ी ही देर में वह एक बड़ी-सी मछली और एक छोटे जेरीकेन में कच्ची शराब लेकर लौट आया। हम बाहर सहन में ही खाट पर बैठ कर शराब पीने लगे।

कचहरी में हमें पता चला था कि पुलिस ने कालीचरन के ऊपर यह इल्जाम लगाया था कि वह पान की दुकान पर गांजा और चरस बेचता है। जाहिर है कि बात रुपये में सोलह आने, या आने तो अब होते नहीं, सौ पैसे गलत थी। लेकिन पुलिसवालों ने बाकायदा कपड़े की एक सीलबंद पोटली में गांजा और चरस कोर्ट में जमा किया था, जो उनके अनुसार पुलिस के गवाहों के सामने उसकी दुकान से बरामद हुआ था।

शराब पीते-पीते कार्तिक फिर गुस्से में आ गया और संबंधित दारोगा को लाइन हाजिर और सस्पेंड कराने लगा। लेकिन यह हवाई कलाबाजियां ही थीं, जिनसे दिमाग का दुखार भले कम हो जाए, वस्तुस्थिति में कोई अंतर पड़ने वाला नहीं था। अतः दूसरे दिन हमने ठंडे दिमाग से समस्या पर नए सिरे से गौर किया और यह तय किया कि हम जाकर जिले के पुलिस अधीक्षक से मिलें और उसे सारी स्थिति से अवगत कराएं। इस देश में क्या एक आदमी को इतना अधिकार भी नहीं है कि ईमानदारी से अपनी रोजी कमा सके? मान लिया कि वह गलत आदमी है। लेकिन गलत आदमी सुधर भी तो सकता है। देश की कानून-व्यवस्था का भी तो आखिर यही उद्देश्य है कि गलत काम की सजा वह जरूर दे, लेकिन अंततः एक गलत आदमी को सुधरने का मौका भी दे। जब डाकुओं तक के पुनर्वास की योजनाएं चलाई जाती हैं तो कालीचरन तो अधिक-से-अधिक एक मामूली मुजरिम ही कहा जाएगा। उसका जुर्म यही तो था कि उसने कुछ दिनों अवैध ढंग से शराब बेची। वह भी पुलिस की जानकारी में। उन्हें बराबर पांच सौ रुपये हफ्ता देकर। अब अगर वह यह धंधा बंद करके एक शरीफ आदमी की तरह रहना चाहता है, तो उसे क्यों परेशान किया जा रहा है?

पुलिस अधीक्षक से मिलने में हमें कोई कठिनाई नहीं हुई। हमने उसे बताया कि हमने कालीचरन को दुकान खोलने के लिए बैंक से कर्ज दिलाया है। हम उसे अच्छी तरह जानते हैं। हमें पूरा विश्वास है कि पुलिस ने उसे बिना कुसूर फंसाया है। हमने दारोगा की शिकायत भी की कि उसने कालीचरन को हवालात में बुरी तरह से पीटा और हमसे अशिष्ट व्यवहार किया तथा हमें उससे मिलने तक नहीं दिया। शराब और पुलिस को हफ्ता देने वाली बात हम जान-बूझ कर बचा गए।

पुलिस अधीक्षक ने हमारी बात धैर्यपूर्वक सुनी। बोला, "ठीक है, मैं देख लूंगा।

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