कहानी संग्रह >> कामतानाथ संकलित कहानियां कामतानाथ संकलित कहानियांकामतानाथ
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आम जनजीवन से उठाई गई ये कहानियां कथाकार के रचना-कौशल की वजह से ग्रहण के स्तर पर एक तरफ बतरस का मजा देती हैं तो दूसरी तरफ प्रभाव के स्तर पर उद्वेलित करती हैं...
संक्रमण
एक : बयान पिता
कहो तो स्टांप पेपर पर लिखकर दे दूं, यह घर बरबाद होकर रहेगा। कोई रोक नहीं
सकता। जिंदा हूं इसीलिए देख-देखकर कुढ़ता हूं। इससे अच्छा था, मर जाता। या
फिर भगवान आंखों की रोशनी छीन लेते। वही ठीक रहता। न अपनी आंख से देखता, न
अफसोस होता।
मुझको क्या? मेरी तो जैसे-तैसे कट गई। क्या नहीं किया मैंने इस घर के लिए!
बाप मरे थे तो पूरा डेढ़ हजार का कर्ज छोड़कर मरे थे। और यह आज से
चालीस-पैंतालीस साल पहले की बात है। उस जमाने का डेढ़ हजार आज का डेढ लाख
समझो, लेकिन एक-एक पाई चुकाई मैंने। मां के जेवर सब महाजन के यहां गिरवी थे।
उन्हें छुड़ाया। जवान बहन थी शादी करने को। उसकी शादी की। मानता ह, लड़का
बहुत अच्छा नहीं था। बिजली कंपनी में मीटर रीडर था। लेकिन आज? ' बेटे-बेटियां
अच्छे स्कूलों में पढ़ रहे हैं। फूलकर कुप्पा हो रही है। पूरी सेठानी लगती
है। मकान तो अपना है ही, बिजली फ्री सो अलग। जितना चाहो, जलाओ। तीन-तीन कलर
चलते हैं गर्मियों में। जाड़ों में हर कमरे में हीटर। तनख्वाह से ज्यादा ऊपर
की आमदनी होती है। दो-दो गाड़ियां हैं। एक स्कूटर और एक मोटर साइकिल। शादी हई
थी तो साइकिल भी नहीं थी घर में। इसी को कहते हैं, भगवान जिसको देता है,
छप्पर फाड़कर देता है।
बाबू के मरने के बाद मां दस साल तक और जीं। कभी साल दो साल में दस-पांच दिनों
के लिए बड़े भाई के यहां गई हों तो गई हों, नहीं तो मेरे पास ही रहीं। क्या
मजाल कि कभी खाने-पहनने की कोई तकलीफ हुई हो। जब तक जी, साल में एक जोड़ा
धोती और घर के खाने के अलावा एक पाव दूध ऊपर से बंधा था। जब-जब बीमार पड़ीं,
हमेशा डॉक्टरी इलाज कराया। वह भी एलोपैथी। यह नहीं कि चार आने की होम्योपैथी
की या वैद्यजी की पुड़िया मंगाकर खिला दी हो। मरने से पहले तो पूरे एक महीने
अस्पताल में भरती रहीं। बीवी के जेवर तक गिरवी हो गए थे। डेढ़ हजार लिए
डॉक्टर ने ऑप्रेशन के। बोतलों खून और ग्लूकोज चढ़ा, सो अलग, मगर कैंसर का
इलाज तो आज तक नहीं निकला, उस जमाने में भला क्या होता। चाहता तो यहीं
रफा-दफा कर देता, लेकिन नहीं। कानपुर ले गया, गंगाजी। पूरी मोटर गाड़ी किराए
पर की। पचास कि पचपन आदमी साथ गए थे। दाह संस्कार के बाद सबको चाय-पानी
कराया। लौटकर दसवां, तेरहवीं की। ब्राह्मणों को भोज दिया। दान-दक्षिणा दी। एक
साल बाद बरसी की, जिसमें सौ आदमियों से कम ने क्या खाया होगा।
कहने को तो बड़े भाई भी थे। रस्म अदायगी के लिए आए भी। लेकिन क्या मजाल कि एक
धेला खर्च किया हो, जबकि तनख्वाह मुझसे दूनी नहीं तो ड्योढ़ी तो होगी ही। घर
का ख्याल तो उन्होंने बाबू के जिंदा रहते नहीं किया तो मां के मरने पर क्या
करते!
शादी के छह महीने के भीतर ही घर छोड़कर चले गए थे। बाबू तब तक रिटायर हो चुके
थे। कुंवारी बहन थी, जवान। लेकिन बाबू की भी तारीफ करनी होगी। उन्होंने एक
जबान नहीं कहा कि घर छोड़कर क्यों जा रहे हो। बल्कि भाभी के दहेज का सारा
सामान, जेवर-गहना, कपड़ा-लत्ता, बरतन-भांडा, एक-एक चीज गिनाकर सहेजवा दी। मां
जरूर कुछ रोई-धोईं, लेकि बाबू ने उन्हें डपट दिया, 'जिस आदमी को अपनी तरफ से
मां-बाप का ख्याल नहीं, उस पर किसी के रोने-धोने का क्या असर पड़ेगा? मैं अभी
जिंदा हूं, एक लड़का भी अभी और है। सो तुम न रांड हुई हो, न निपूती, काहे की
चिंता है तुमको?' मां चुप हो गई। बड़े भाई ने झुककर मां और बाबू के पैर छुए
ओर सामान से लदे ट्रक पर बैठकर चले गए। क्या मजाल कि बाबू ने कभी उनका नाम भी
लिया हो पलटकर।
मैं तो उस वक्त बी. ए. में पढ. रहा था। बाबू की पेंशन से घर चलता था, लेकिन
धीरे-धीरे दिक्कत पड़ने लगी तो वह एक दुकान पर मुनीमगीरी करने लगे। मैंने भी
टयूशनें शुरू कर दीं। तब कहीं घर का खर्च चल पाया। मैं एम. ए. में था कि बाबू
अचानक चल बसे। शाम को दिल का दौरा पड़ा। रात होते-होते प्राण त्याग दिए।
पेंशन भी आधी रह गई, लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी। और टयूशनें करने लगा।
सुबह निकलता तो रात दस बजे लौटता। छह-छह सात-सात टयूशनें एक वक्त में पढ़ाता
था।
जवानी इसी तरह कट गई। जवानी क्या, बचपन में भी कभी कोई सुख नहीं भोगा। बाबू
रेलवे में मामूली नौकर थे। तनख्वाह ही इतनी नहीं थी कि अलल्ले-तलल्ले होता।
स्कूल जाते समय मां बासी रोटी में घी-नमक लगाकर दे देतीं। वही खाकर चला जाता।
जेबखर्च किस चिड़िया का नाम है, कभी जाना ही नहीं। बस, कभी चौथे-छठे पैसा कि
अधन्ना मिल गया, उसी को गनीमत समझा। नहीं तो खाली हाथ हिलाते, कंधे पर बस्ता
लादे चले जा रहे हैं। शुरू में पाठशाला में पढ़ा। नंगे पांव, बगल में तख्ती
और हाथ में बुदक्का। उसके बाद स्कूल जाने लगा। दो मील से क्या कम रहा होगा,
मगर किसी सवारी की बात मन में भी नहीं आई। हां, इंटर में पहुंचा, तब जरूर
डरते-डरते मां से कहा कि पिता से कहें कि साइकिल दिला दें। कॉलेज जाने में थक
जाता हूं। कॉलेज था भी खासा दूर। शुरू में पिता ने टाल दिया, लेकिन जब खुद
देखा कि कॉलेज से आकर निढाल होकर बिस्तर पर पड़ा रहता हूं तो मां के बार-बार
टोकने पर, साइकिल खरीद कर दी। वह भी सेकेंड हैंड, नीलामी वाली। तभी से इकन्नी
तो कभी दुअन्नी मिलने लगी। लेकिन जेबखर्च के नाम पर नहीं बल्कि इसलिए कि
रास्ते में कहीं साइकिल पंचर न हो जाए।
अब क्या-क्या बताऊं! कपड़ों का यह हाल था कि हाईस्कूल तक घर के धुले, बिना
इस्तरी किए कपड़े पहन कर जाता था। ऊनी पैंट पहली बार बी. ए. में पहुंचने पर
पहनी। कोट तब भी नहीं। कोट पहली बार तब बना, जब एम. ए. में था और कान्वोकेशन
में बी. ए. की डिग्री लेने जाना था। तभी डेढ़ रुपये, कि बीस आने की एक सड़ियल
टाई खरीदी। पहली बार। बांधना फिर भी नहीं आता था। एक लड़के से बंधवाकर गले
में अटका ली।
सो, इस तरह जवानी कटी लेकिन बच्चों का शुरू से ख्याल रखा कि किसी तरह का कष्ट
न होने पाए उन्हें। साहबजादे की तो हर जिद पूरी की। दो-ढाई साल के रहे होंगे
तब से सूट पहन रहे हैं। बाटा के जूते, टाई और हैट। एक बार, मुश्किल से
चार-पांच साल के रहे होंगे, एक दुकान पर जिद पकड़ ली कि फौजी सट पहनेंगे
जिसमें सीटी और कंधे पर सितारे लगे होते हैं। बेल्ट और नकली पिस्तौल होती है।
सौ कि डेढ सौ का था। दिया खरीद कर। तीसरे दिन ही खोंच लगा लाए। पत्नी
डांटने-डपटने लगी। मैंने कहा, 'जाने दो, बच्चा ही तो है। क्या समझेगा अभी।'
शुरू से अंग्रेजी स्कूल में भर्ती कराया। घर पर मास्टर लगाया सो अलग। क्या
मजाल खाने-पीने में कोई कोताही रही हो। घी, दूध, मक्खन, अंडा, जैम, जेली, सब,
कि भइया इससे ब्रेड खा लो, बेटे उससे खा लो। बेटे ने कहा, गाना गाकर खिलाओ तो
गाना गा के खिलाया। बेटे ने कहा मुर्गा बनकर खिलाओ तो मुर्गा बन के खिलाया।
जैसे बेटा खाएं, जैसे खश रहें। के. जी. में भर्ती कराया, तभी से सवारी। पहले
रिक्शा, फिर स्कल की बस, उसके बाद साइकिल । मुश्किल से दो-चार साल चली होगी
कि स्कटर की डिमांड आ गई। नवें कि दसवें में पढ़ रहे थे उस वक्त। बहुत समझाया
कि एक-दो साल साइकिल और चला लो। तब ले देंगे मगर नहीं, साइकिल नहीं चलाएंगे,
स्कूटर चलाएंगे, वह भी बजाज। चलाओ भाई, काहे को कोई साध रह जाए। दी लाकर। तीन
हजार कि कितना ब्लैक भरा। मुश्किल से दो साल चलाया होगा कि बोले, मोटर साइकिल
लेंगे। 'क्यों भाई, स्कूटर में क्या हो गया?' 'कुछ नहीं, मुझे नहीं पसंद।'
तबीयत तो आई कि एक कंटाप दें खींचकर, लेकिन चुप रह गए। जवान लड़के पर हाथ भी
तो नहीं चला सकते। ठीक है। लो, मोटर साइकिल जेब खर्चा तो जब से रुपया पहचानना
शुरू किया, तभी से ले जाने लगे। शुरू में तीसरे-चौथे दर्जे तक चवन्नी-अठन्नी,
तब रुपया। और आठवें कि नवें से तो जो चाहा, मां से झटक लिया। कभी पांच, तो
कभी दस। बी. ए. में तो बाकायदा बैंक एकाउंट खुलवा दिया कि साहबजादे बड़े हो
गए है, हिसाब-किताब रखना, रुपया निकालना, जमा करना, सब सीख लें। कपड़ों का यह
हाल कि आठवें दर्जे तक तो स्कूल की ड्रेस चली। दो-दो जोड़ी जूते। एक रेगलुर,
काले, रोज के लिए। दूसरे सफेद, पीटी शू। उसके बाद तो फिर नवें में पहुंचे हैं
कि आज जींस चाहिए, कल जैकेट चाहिए, परसों जूते खरीदने हैं। वह भी मामूली
नहीं, बाटा कि लिबर्टी के। यह भी नहीं कि एक जोड़ी। दो-दो, तीन-तीन। गरज यह
कि हर तरह के नखरे उठाए कि साहबजादे को किसी तरह की कमी का एहसास न हो।
अब तो खैर अपनी मर्जी के मालिक हैं। नौकरी करते हैं। शादी होनी थी, सो मैंने
कर दी। भगवान की दया से एक बच्चा भी है, लेकिन चाल-ढाल अभी भी वही हैं। कभी
मर्जी आई तो हजार-बारह सौ रुपए घर में दे दिए। नहीं तो उनकी बला से। उनको तो
दो वक्त का खाना चाहिए, बस। घर क्या हुआ, होटल ठहरा। नौ बजे से पहले कभी सोकर
नहीं उठे। उठते ही बेड टी और अखबार। उसके बाद साहब बाथरूम में। कंघा, शीशा,
क्रीम, पाउडर, सब अंदर निबटाकर निकलेंगे। निकलते ही, 'कपड़े कहां हैं? 'जूते
किधर हैं।' और साहब तैयार। लाइए, खाना दीजिए। घोड़ा तक रातिब खाता है तो आराम
से जुगाली करके खाता है। लेकिन यहां? एक निगाह थाली पर, दूसरी घड़ी पर। जो
ठूसते बना, पेट में लूंसा और जूता चरमराते बाहर गैलरी में। मोटर साइकिल की
गद्दी के नीचे से कपड़ा निकालकर एक हाथ इधर मारा, एक उधर और उसके बाद साहब
घोड़े पर सवार, 'भट', 'भट', 'भट' और साहब एक, दो, तीन। अब रात में लौटेंगे,
दस कि ग्यारह बजे।
कितनी बार कहा कि भाई दफ्तर से एक बार घर आ जाया करो। फिर भले चले जाओ। आजकल
का जमाना देखो। खुलेआम, दिनदहाड़े लूटमार के केस होते रहते हैं। ऐक्सीडेंट का
यह हाल है कि कोई दिन ऐसा नहीं होता कि दो-चार मौतें न होती हों। दिमाग में
तरह-तरह के डर बने रहते हैं। और फिर, मेरी बात एक बार छोड़ भी दो। कम से कम
अपनी बीवी और बच्चे का ख्याल तो करो। ढाई साल का है और बाप की शक्ल देखने को
तरसता रहता है। जब पूछो, 'पापा कहां हैं?' कहेगा, 'ऑफिस गए हैं।' ऑफिस न हुआ
साला जेल हो गया कि बिना जमानत पर छूटे बेचारे आएं कैसे।
मेरी तो सारी उम्र किराए के मकान में कट गई। बीवी-बच्चों को मेरे बाद परेशानी
न उठानी पड़े, इसलिए रिटायर होने से पहले जिंदगी भर की जमा-पूंजी लगाकर मकान
बनाया। दिन-दिन भर ऊंट की तरह गरदन उठाए धूप में खड़े हैं। चेहरा काला पड़
गया था। बालू, मौरंग, गिट्टी, ईंटा, चूना, लोहा, लकड़ी, कभी कुछ तो कभी कुछ।
चले जा रहे हैं भागे। क्या भूख और क्या प्यास। शरीर आधा रह गया था। क्या मजाल
कि साहब कहीं चले जाएं। क्रीज न बिगड़ जाएगी पतलून की। कभी मैंने कहा भी तो
पढ़ाई का बहाना कर दिया। ठीक है भाई, मैं हूं न भाग-दौड़ करने के लिए। तुमको
क्या जरूरत। तुमको अलग कमरा चाहिए रहने के लिए? लो अलग कमरा। मकान बना ही
इसीलिए है। तुम्हीं लोगों का है। लेकिन भाई, मकान भी देखरेख मांगता है। दस
साल बने हो गए। और फिर आजकल सब सामान तो साला दो नंबर का मिलता है। सीमेंट तक
दो नंबर की। मौरंग में मिट्टी। बालू में कचरा। सो भाई टूट-फूट तो लगेगी ही।
अब यह जीने के नीचे जो प्लास्टर निकल रहा है, अभी एक महीने तक बित्ता भर
उखड़ा था। अब एक हाथ हो गया। अब मुझसे तो बुढ़ापे में होता नहीं। कितनी बार
कहा कि किसी दिन चले जाओ, बाजार से एक राज और मजूर पकड़ लाओ। बोरी, दो बोरी
सीमेंट, बालू, जो लगे, वह ले आओ। जहां-जहां टूट-फूट है, ठीक करा लो। लेकिन
नहीं। साहब बहादुर ने इस कान से सुना और उस कान से बाहर।
चलो भाई, माना इसमें कुछ मेहनत पड़ेगी कि एक आध दिन का वक्त लगेगा। फाटक में
ताला मारने में कौन मेहनत लगती है? लेकिन नहीं। यह भी साहब बहादुर की शान के
खिलाफ है। आएंगे तो बाहर से ही 'पी-पी' करेंगे। कोई जाकर फाटक खोले तो साहब
बहादुर 'फट-फट' करते मोटर साइकिल पर बैठे-बैठे अंदर घुसें। गैलरी से सीधे
पोर्टिकों में जाकर रुकेंगे। जिसकी गरज हो, वह फाटक बंद करे। दो-एक बार तो
रात भर खुला पड़ा रहा। गनीमत है कि कोई कुछ उठा नहीं ले गया। और फाटक तो
फाटक, एक बार तो कमरे का दरवाजा तक रात भर खुला पड़ा रहा। मैं सबह चिडियों को
दाना देने उठा तो देखता क्या हूं कि कबूतर के डैनों की तरह दोनो पल्ले खले
पड़े हैं। मैं तो समझा कि आज लंबी चोरी ही गई। लेकिन ऊपर वाले की मेहरबानी कि
कुछ गया नहीं।
पानी की मोटर तो कितनी बार रात-रात भर चलती रही। पूरे आंगन में पानी ही पानी
हो गया। यही हाल पंखा-बिजली का है। चल रहा है पंखा तो चल रहा है। जल रही है
बत्ती तो जल रही है। कोई वहां बैठा है यहा नहीं, इससे क्या मतलब। कुलर तो
गर्मियों में चौबीसों घंटा चलता है। एक बार तो यहां तक हुआ कि साहब बहादुर
बीवी-बच्चे समेत सिनेमा गए। कूलर चलता छोड़ गए। बाहर से कमरे में ताला। सो यह
भी नहीं कि कोई और बंद कर दे। 'क्यों भाई, यह कूलर क्यों चलता छोड़ गए थे?'
मैंने पूछा, तो बोले, 'बंद कमरा गरम हो जाता है। फिर कौन घंटा भर इंतजार करे
कि ठंडा हो।' ठीक है भाई। जो तुम कहो, सो ठीक। कौन बहस करे तुमसे। मैं तो यह
जानता हूं कि आधी जिंदगी बिना कूलर के काटी है। बिजली ही नहीं थी घर में तो
कूलर कहां से होता? और अब भी इस कूलर-फूलर से मुझे कुछ लेना-देना नहीं हैं
मजे से खरहरी चारपाई पर पानी छिड़क कर सोता हूं। बस, कलक यह होती है कि
बिला-वजह बिजली का तिगुना-चौगुना बिल भरा जाता है।
वह भी टाइम से आता कहां है। अब पिछली बार क्या हुआ? पूरे साल का बिल, बारह
हजार का, बनाकर भेज दिया। मैंने कहा कि ठीक करा लो नहीं तो बत्ती कट जाएगी।
बोले, इसमें “एन. आर." लिखा है यानी रीडिंग के बिना ही बिल आ गया है। इसलिए
बिजली नहीं कटेगी। एक आदमी से कह दिया है। अगली बार ठीक होकर आ जाएगा। लेकिन
अगली बार आया सत्रह हजार का। मैंने सोचा, इस तरह तो घर की कुड़की ही हो
जाएगी। गया इस बुढ़ापे में बिजली कंपनी। घंटों लाइन में खड़ा रहा। धक्के खाए।
इस बाबू के पास नहीं उस बाबू के पास जाइए। जे.ई. साहब से मिलिए। जे. ई. साहब
हैं कि गूलर का फूल हो गए। सुबह गए तो शाम को आइए। शाम को गए तो कल आइए।
किस्सा कोताह दस- पंद्रह दिन की भाग-दौड़ के बाद साढ़े नौ हजार का बिला बना।
वह तो दस हजार का एक फिक्स्ड डिपॉजिट पड़ा था। उसे तुड़वा कर भरा, नहीं तो
बिजली कट ही जाती।
बिजली तो बिजली, नल तक खुला पड़ा रहता है। बेसिन में हाथ धोया और नल खुला'
छोड़ दिया। बह रहा है साहब। जब तक टंकी खाली नहीं हो जाती, बहेगा। किचेन का
नल तो एक महीने से बह रहा है। टोंटी की चूड़ियां मर गई हैं। सो, इस्तेमाल के
बाद उसमें कपड़ा बांध दिया जाता है। अब लाख कपड़ा बांधो, पानी की धार भला
रुकेगी उससे? यह नहीं होता कि एक नई टोंटी खरीद लाएं और रिंच ले के बदल दें।
बेंत की कुर्सियों में कीलें निकल आई हैं। जो बैठता है, उसी के कपड़े फट जाते
हैं। सो कपड़े फटना मंजूर, यह नहीं होगा कि प्लास लेकर सारी कीलें निकाल कर
फेंक दें। उसकी जगह तार से कसकर बांध दें।
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