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कामतानाथ संकलित कहानियां

कामतानाथ

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6427
आईएसबीएन :978-81-237-5247

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आम जनजीवन से उठाई गई ये कहानियां कथाकार के रचना-कौशल की वजह से ग्रहण के स्तर पर एक तरफ बतरस का मजा देती हैं तो दूसरी तरफ प्रभाव के स्तर पर उद्वेलित करती हैं...


छेनी, हथौड़ी, रिंच, प्लास, पेंचकस, सब लाकर मैंने रखे थे, लेकिन सब पता नहीं कहां चले गए। वक्त पर कोई चीज मांगों तो मिलेगी ही नहीं। आखिर ढूंढ-ढाढंकर सब औज़ार बक्से में बंद करके रखे, तब बचे। कम से कम डेढ़ दर्जन ताले रहे होंगे घर में, लेकिन एक फाटक का ताला छोड़कर, वह भी इसलिए कि रोज बंद होता है और ताले पता नहीं कहां गुम हो गए। दो-चार तो मुझे कबाड़ में पड़े मिले। मैंने पूछा, 'कुंजी कहां हैं इनकी'? तो जवाब मिला, 'यह तो ऐसे ही कितने दिनों से बिना कुंजी के पड़े हैं।' बहुत हल्ला किया मैंने, लेकिन कुंजी ढूंढे नहीं मिली। आखिर ताले वाले के पास ले जाकर नई कुंजियां बनवाई मैंने। मुश्किल से पांच रुपयों में सब ताले ठीक हो गए। नया ताला लेने जाओ तो तीस रुपयों से कम में न आएगा, मगर यहां एक बार कह दिया गया, ताले खराब हो गए तो हो गए। ताले तो ताले, सिलाई मशीन पड़ जंग खा रही है। दस-पंद्रह साल से ज्यादा नहीं हुए होंगे खरीदे। किश्तों पर ली थी मैंने गुड़िया के सीखने के लिए। उसकी शादी हुई तो मैंने कहा, 'दे दो उसको। ले जाए अपने साथ, लेकिन सब ने मना कर दिया,

'काहे को दे दो? इतना दहेज तो दिया है। मशीन की बात तय थी क्या पहले से, जो दे दें? घर में रहेगी तो काम आएगी।' सो यह काम आ रही है। पच्चीस बार मैंने कहा, 'ले जाकर दुकान पर दे दो, ठीक हो जाएगी। लेकिन किसे फुरसत है। जरा-सा लिहाफ का खोल सिलवाना है, खिड़की-दरवाजे के परदे बनने हैं, सोफे के कि तकिये के खोल सिले जाने हैं, चला जा रहा है सब दरजी के यहां।

दुगने-तिगुने दाम वसूल रहा है वह। लेकिन यहां किसको कलक है। यह तो बरतने-व्योपरने वाली चीजों का हाल है। अब सुनिए खाने-पीने की चीजों के बारे में। महीने भर के राशन की लिस्ट बनिए के यहां चली जाती है। वह जैसा उसकी समझ में आता है, घर पर दे जाता है। तौल में तो पूरा होता ही नहीं होगा, क्वालिटी भी जो उसके पास है, वहीं मिलेगी। चावल पुराने की जगह नया दे जाएगा। दस मर्तबा टोको कि भाई इसे वापस भिजवा कर बदलवा लो, तब कहीं बदलेगा, लेकिन इस बीच आधे से ज्यादा इस्तेमाल हो चुका होगा। मंजन मंगाओ कॉलगेट, दे जाएगा कोई लोकल मेड। साथ में प्लास्टिक का एक सड़ियल मग पकड़ा जाएगा कि इसके साथ यह फ्री गिफ्ट भी है। अब एक तो गिफ्ट किसी मसरफ का नहीं और फिर मसरफ का हो भी तो क्या गिफ्ट के लिए सामान घटिया ले लिया जाएगा?

मेरे हाथों जब तक राशन आया, बाजार कि मिल का आटा कभी नहीं आया। देख-पसंद करके बढ़िया गेहूं के अरसठ' कि किसी और अच्छी क्वालिटी का लाता था मैं। मां के जमाने में तो खैर गेहूं बाकायदा धोया जाता था, लेकिन बीनने-पछोरने का काम उसके बाद तक चला है। इंटर में पढ़ता था, तब तक कंधे पर बोरी रखकर पिसाने ले जाता था। उसके बाद साइकिल पर। पिता की सख्त ताकीद रहती थी कि गेहूं आंख के सामने पिसे। सो, खड़ा रहता था मैं चक्की के पास। लेकिन जब . से साहबजादे राशन लाने लगे हैं, तब से गेहूं देखने को आंखें तरस गईं। पिसा आटा आता है, बोरी में बंद। पता नहीं साला कितने दिनों पुराना हो। पीसने से पहले मशीनों से सब सत खींच लिया जाता है गेहूं का। तभी तो चमड़े जैसी रोटी बनती है। लेकिन भाई, कौन कहे? एक बार कहा तो बोले, 'आप खाली ही तो बैठे रहते हैं। रिक्शे पर लदवाकर ले आया कीजिए गेहूं। मां साफ कर दिया करेंगी। पिसा लाया कीजिएगा।' मैं चुप रह गया।

सब्जी का यह हाल है कि जो दरवाजे पर बिकने आ गई, ले ली गई। सड़ी . हो या गली। दाम ज्यादा सो अलग। लेकिन साहब बहादुर इतनी तकलीफ गवारा नहीं कर सकते कि बाजार से जाकर ले आएं। अरे भाई, कौन रोज-रोज जाना है। घर में फ्रिज है ही। चलता भी बारहों महीने है। सो एक बार जाकर तीन-चार दिनों के लिए लाकर रख दो। ताजा सब्जी, दाल और गरम-गरम फुल्के, घर के पिसे आटे के, उनकी बात ही और होती है। लेकिन नहीं साहब, किसी को फुरसत हो तब तो। बला से किसी के पेट में दर्द हो, अपच हो कि अफरन, पेचिश हो कि डायरिया, खाने-पीने का जो ढंग है, वही रहेगा। बीमार जिसको पड़ना हो पड़े। इलाज कराए, भुगते। एक यह मरा टीवी क्या आ गया है, जिसको देखो, वही उससे चिपका है। दाल चूल्हे पर चढ़ी है, कुकर की सीटी की आवाज कान में पड़ गई तो उठकर गैस धीमी कर दी, नहीं तो दाल जल रही है तो जले। दूध उबल रहा है, उबले।

घर की सफाई का आलम यह है कि पूरे घर में मकड़ी के जाले लगे हैं। छिपकलियां अंडे बच्चे दे रही हैं। जहां देखो, काकरोच टहल रहे हैं। झींगुर फुदक रहे हैं। मक्खी-मच्छर तो खैर घर का हिस्सा बन ही गए हैं। महरी आती है, फर्श पर झाडू लगाकर चली जाती है। गंदे-संदे पानी से पोंछा मार देती है। लेकिन भाई फर्श ही तो घर नहीं है। दीवारें और छतें भी तो हैं। यह भी सफाई मांगती हैं। न सही रोज, हफ्ते में एक दिन सही। बांस में ब्रश बांधकर सारे घर के जाले साफ कर डालो। फिनाइल डालकर सारा घर धो-पोंछ डालो। वह क्या होता है डी. डी. टी. कि फिनिट छिड़क दो। घर घर की तरह लगने लगे।

अभी उस दिन टीवी पर दिखा रहा था, धूल में बड़े-बड़े कीड़े होते हैं। 'डस्ट माइट' कि क्या नाम बता रहा था। नंगी आंखों से दिखाई नहीं देते। दूरबीन से देखो तो दिखेंगे। मजे से सोफे की गद्दी के कवर को कुतर-कुतर कर खा रहा था। मुझे तो बड़ा ताज्जुब हुआ देख के। इसीलिए पहले तीज-त्यौहार, होली-दीवाली पर पूरे घर की लिपाई-पुताई होती थी। लेकिन अब तो त्यौहार के माने और गंदगी जमा होगी घर में। होली हुई तो फर्श और दीवारें सब रंग में पुती पड़ी हैं। दीवाली हुई तो जगह-जगह दीवारों पर मोम चिपका है। दो-चार किलो पटाखों का कचरा फैला पड़ा है। महीनों गंदगी जमा है।

अब देखो, बाथरूम के फ्लश की टंकी तीन महीने से चू रही है। जितनी देर सीट पर बैठो बगल में पानी टपका करता है। दस मर्तबा टोक चुका हूं कि किसी प्लंबर को बुलाकर दिखा दो। न हो तो नई टंकी लगवा लो। सिर पर तो पानी टपकता ही है, दीवार में पानी मरता है सो अलग। लेकिन किसे फुरसत है?

ठीक है भाई, जो हो रहा है होने दो। कौन मुझे अपने साथ ले जाना है। बरस दो बरस की जिंदगी और रह गई है। किसी न किसी तरह कट ही जाएगी।

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