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कामतानाथ संकलित कहानियां

कामतानाथ

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6427
आईएसबीएन :978-81-237-5247

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आम जनजीवन से उठाई गई ये कहानियां कथाकार के रचना-कौशल की वजह से ग्रहण के स्तर पर एक तरफ बतरस का मजा देती हैं तो दूसरी तरफ प्रभाव के स्तर पर उद्वेलित करती हैं...

दो : बयान पुत्र


पापा शर्तिया सठिया गए हैं। रिटायर होने के छह-आठ महीने बाद तक तो ठीक रहे। उसके बाद पता नहीं क्या हो गया है, दिन भर, रात भर बड़बड़ाते रहते हैं। जरा-जरा-सी बात पर गुस्सा करने लगते हैं। कभी किसी पर बिगड़ रहे हैं तो कभी किसी पर। सबसे ज्यादा नाराज तो मुझसे रहते हैं। शायद ही मेरी कोई बात उन्हें पसंद हो, जबकि आज तक मैंने कभी उनकी किसी भी बात पर, चाहे कितनी ही बुरी लगे मुझे, पलटकर जवाब नहीं दिया। सबसे बड़ी नाराजगी तो उनकी इस बात से है कि मैं दफ्तर से सीधे घर क्यों नहीं आता। कहते हैं चिंता होने लगती है। सड़कों पर लूटमार और कत्ल होते रहते हैं, ऐक्सीडेंट होते रहते हैं। अब उन्हें कौन समझाए कि जल्दी आने से क्या बच जाऊंगा मैं? ऐक्सीडेंट होना होगा तो होके रहेगा, बल्कि देर से आने में तो फिर भी ऐक्सीडेंट की संभावना कम हो जाती है। उस समय सड़को पर ट्रैफिक का इतना रश नहीं रहता, जितना ऑफिस छूटने के समय होता है। रही लूटमार की बात, सो दिन-दहाड़े होती है। रात में तो फिर लूटने वाला सोचेगा कि इस वक्त सन्नाटे में इतनी बेफिक्री से चला जा रहा है, इसके पास क्या होगा, जाने दो।

वैसे भी, आप बताइए, दफ्तर से सीधे घर आकर क्या करूं? इनकी झाड़ सुनूं? आटा पिसाऊं? सब्जी लाऊं? इसी में सारी जिंदगी बिता दूं? दुनिया भर मिल का पिसा हुआ आटा खाती है। आइ. एस. आइ. ब्रांड। बोरी में सीलबंद होकर आता है, लेकिन इनसे कौन झक लड़ाए। कहते है यह आटा नुकसान करता है। मिलों में पीसने से पहले गेहूं का सारा सत निकाल लिया जाता है। इसकी रोटी और चमड़े की रोटी में कोई फर्क नहीं होता। आंतों में चिपक जाती है। कई-कई दिन तक चिपकी रहती है। सारी दुनिया खा रही है। उसकी आंतों में नहीं चिपकती। इनकी आंतों में चिपक जाती है। सब्जी दरवाजे ली जाती है, उस पर भी नाराज। कहते हैं ठेले पर बासी सब्जी मिलती है। अब बताइए भला ऐसा होने लगे कि चार-चार दिन तक वही सब्जी बेची जाए, तो बेचारे सब्जी वाले कर चुके धंधा। हां, यह मानता हूं कि पिछली शाम की या सुबह की सब्जी हो सकती है। सो, सारी दुनिया खाती है। मैंने तो नहीं देखा कि खेत पर खड़े होकर कोई अपने सामने सब्जी तुड़वाकर लाता हो।

लेकिन नहीं, जिद है कि वक्त से घर लौटो। अब मैं कुछ कह दूं तो बुरा मान जाएंगे। खुद घंटों-घंटों, बारह-बारह बजे रात तक शर्मा अंकल के दरवाजे बैठे शतरंज खेला करते थे, सो भूल गए। तीन-तीन चार-चार बार बुलाने जाता था मैं, तब उठते थे। बिगड़ने लगते थे, सो अलग। यही नहीं, मां बताती हैं कि एक जमाने में तो रात-रात भर गायब रहते थे। कोई भाटिया साहब थे। उनके घर पर पपलू कि फ्लैश खेला करते थे। दो-एक बार तो पूरी तनख्वाह हार आए। कितनी बार तो पीकर लौटते थे। बिस्तर पर उल्टी कर देते थे, लेकिन अपना वक्त किसको याद रहता है? अब क्या-क्या बताऊं? मां तो यहां तक बताती हैं कि बरेली ट्रांसफर पर गए थे तो वहां बगल में कोई कपूर रहते थे। एल. आइ. सी. में एजेंट थे। उनकी पत्नी पर फिदा थे। जब देखो, तब उनके यहां बैठे रहते थे। भाभीजी यह, भाभीजी वह। भाभीजी आपके हाथ की बनी चाय के क्या कहने! आपके हाथ की तली पकौड़ियां, वाह!

सौ बार अपना हवाला दे चुके हैं कि बचपन में या लड़कपन में पैदल पढ़ने जाया करते थे। कभी कोई जेबखर्च नहीं मिला। बी. ए., एम. ए. तक सूट-टाई नहीं पहनी। जैम-जेली का नाम तक नहीं सुना था। मां, यानी मेरी दादी बासी रोटी में नमक लगाकर दे देती थीं, वही खाकर पढ़ने चला जाता था। तो भाई, आप यह ताना किसे मार रहे हैं? इसमें मेरा कोई कसूर है क्या? सही बात तो यह है कि वह जमाना ही और था। उस समय जैम-जेली होती ही नहीं थी तो आप खाते क्या? जींस कि जैकट का चलन ही नहीं था, सो पहनते कैसे? यही गनीमत थी कि घर से खा-पीकर जाते थे। न सही ऊनी पतलून, सूती तो पहनते ही थे। और पहले पैदा हुए होते तो गुरुकुल में पढ़े होते। लंबी-सी चुटिया रखे, लंगोटी लगाए, हाथ में डंडा कमंडल लिए घर-घर भीख मांगकर आटा लाते, तब दो रोटी मिलतीं।

सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि मकान बनवा दिया। सौ बार यह बात कह चुके हैं। मेरा ख्याल है, शाहजहां ने भी ताजमहल बनवाने के बाद इतनी बार यह बात न दोहराई होगी। लेकिन भाई, ठीक है। अगर आपको इससे संतोष मिलता है तो जाप कीजिए दिन भर इस बात का। लेकिन उनका महज यह मतलब नहीं है कि मकान बनवा दिया। उनके कहने का तात्पर्य यह है कि मकान बनवाकर मेरे ऊपर एहसान किया। अब अगर मैं पलटकर कह दूं कि मैंने कहा था मकान बनवाने के लिए तो बिगड़ उठेंगे। बाबा तो किराए के मकान में रहते थे। वह तो नहीं बनवा गए आपके लिए। आपने बनवाया ठीक किया। आप भी न बनवाते तो मुझे जरूरत पड़ती तो मैं बनवाता। और अगर न बनवाया होता मकान आपने तो क्या सड़क पर रह रहे होते हम लोग? सारी दुनिया क्या अपने बनवाए मकान में ही रहती है?

खैर, अब मकान बन गया तो बन गया। गिर तो जाएगा नहीं। हां, दसेक साल हो गए हैं बने तो थोड़ी-बहुत टूट-फूट जरूर लगी रहेगी। सो, हर मकान में होता है। लेकिन नहीं। जरा-सा प्लास्टर कहीं उखड़ा देख लेंगे तो सौ बार टोकेंगे। बिजली की रोशनी से लेकर सूरज की रोशनी तक में पच्चीस बार उसका मुआयना करेंगे। यही नहीं, सारे घर का प्लास्टर ठोक-बजाकर देखेंगे कि कहीं पोला तो नहीं पड़ रहा। जिद पकड़ लेंगे कि मिस्त्री पकड़ कर लाओ, मजदूर पकड़ कर लाओ। फौरन ठीक कराओ। गोया कि दुनिया का सबसे जरूरी काम बालिश्त भर का यह प्लास्टर ठीक करना ही है। इतनी फुरती तो, मैं समझता हूं, पुरातत्व विभाग वाले बड़ी से बड़ी ऐतिहासिक इमारतों को ठीक कराने में भी न दिखाते होंगे।

चलिए साहब यह तो प्लास्टर है कि जल्दी ठीक न हुआ तो और गिर जाएगा, और उनके तर्क के अनुसार, आज प्लास्टर गिरा है, कल ईंटें गिरेंगी, परसों पूरी दीवार गिर पड़ेगी। लेकिन मकड़ी का जाला लगने से तो मकान नहीं गिर पड़ेगा। मगर नहीं साहब, किसी भी कोने-अंतरे में जाला दिख गया तो पूरा मकान सिर पर उठा लेंगे। अब पत्नी भी क्या करे? सुबह उठते ही खटने लगती है। सबके लिए चाय बनाए, बच्चे की देखभाल करे, खाना पकाए, टिफिन तैयार करे, कपड़े धोए कि बांस लिए जाला साफ करती फिरे। मां से तो हो नहीं सकता। वह वैसे ही गठिया से मजबूर हैं।

एक बार घर में एक चुहिया दिख गई। फिर क्या था। जिद पकड़ के बैठ गए कि चूहेदानी खरीद कर लाओ। लाया भाई मैं। लेकिन पंद्रह दिन तक चुहिया पकड़ में नहीं आई। सोलहवें दिन एक चुहिया फंसी। अब समस्या यह है कि इसे छोड़ा कहां जाए। नई कॉलोनी है। किसी के दरवाजे छोड़ो तो झगड़ा करने लगे। आखिर मोटर साइकिल पर चूहेदानी रखकर चार किलोमीटर दूर रेलवे लाइन के किनारे ले जाकर छोड़ा। दूसरे ही दिन फिर एक चुहिया दिख गई। पता नहीं वही थी या दूसरी। मुझसे बोले, 'कहां छोड़ा था?' मैंने खीझकर कहा, 'जहां छोड़ा था, वहां छोड़ा था। अबकी पकड़ में आए तो आप खुद छोड़ आइएगा।'

छिपकलियों के पीछे पड़े रहते हैं। शुरू में तो डंडा मारते फिरते थे। उस चक्कर में दीवार पर लगी तस्वीर गिरा दी। हुसैन की पेंटिग थी। रेअर। पूरे आठ रुपये बाहर आने की लाया था। पच्चीस रुपये मढ़ाई दिए थे। छिपकली तो पता नहीं कहां चली गई, पूरा शीशा चकनाचूर हो गया। अब कौन इनको समझाए कि छिपकलियां इस देश में हैं तो हैं। ये जाने वाली नहीं हैं। खैर चलिए, मान लिया कि बहुत मेहनत करके छिपकली को एक बार आप भगा भी देंगे। लेकिन झींगुर का क्या करेंगे? वह तो कमबख्त दिखाई भी नहीं देता। किसी दराज कि सुराख में बैठा बोल रहा है। लेकिन उससे भी इनको शिकायत। अब कौन बताए इनको कि अमेरिका के व्हाइट हाउस तक में झींगुर घुस चुका है। वह कौन थीं फर्स्ट लेडी उस वक्त मैडम बुश कि रीगन, रात भर नींद नहीं आई उनको। दूसरे दिन प्रेसीडेंट हाउस का सारा अमला झींगुर ढूंढ़ने में जुटा, तब कहीं तीन-चार घंटे की मुतवातिर मेहनत के बाद पकड़ में आया। सो, इतना प्रबंध तो मैं कर नहीं सकता कि डेढ़-दो सौ आदमी झींगुर पकड़ने में लगा दूं।

इधर कुछ दिनों से एक नया फिकरा ईजाद किया है कि यह घर नहीं है, कबाड़खाना है। अरे भाई, कौन-सा ऐसा घर है, वह भी हिंदुस्तान में, जहां दो-चार इधर-उधर की फालतू चीजें न हों। और सबसे बड़ा कबाड़खाना तो खुद खोले हैं। टीन के एक बड़े-से बक्से में पता नहीं क्या-क्या भरे रखे हैं। नट, बोल्ट, कील, पेंच, तार, जाली, पुराने कब्जे, बिना ताले की चाबियां और न जाने क्या-क्या। सड़क पर चलते कहीं कोई लोहे का टुकड़ा, छर्रा, गोली, कुछ भी पड़ा दिख गया, उठाकर ले आएंगे और अपने बक्से में बंद कर लेंगे कि कभी काम आएगा। एक और बक्से में हर तरह के औजार रखे हैं। स्क्रू ड्राइवर से लेकर रिंच, प्लास, छेनी, हथौड़ी तक। एक छोटी आरी भी ले आए हैं कहीं से। उसे भी उसी में बंद किए हैं।

एक बार सनकिया गए तो घर भर में खोजबीन कर चार-पांच पुराने ताले निकाल लाए कहीं से। कहने लगे कि इन तालों की चाभियां कहां हैं। अब चाभियां कहां से आएं? बाबा आदम के जमाने के ताले! पता नहीं कब से खराब पड़े होंगे। लेकिन नहीं, जिद पकड़ गए कि जब ताले घर में आए हैं तो उनकी चाभियां भी आई होंगी। कौन कहता है, नहीं आई होंगी। लेकिन चीजें खोती भी तो हैं। कहीं खो गई होंगी, मगर वह जिद पकड़े रहे। एक तरफ से सबको हलाकान कर डाला। पूरे एक सप्ताह तक 'चाभी खोजो अभियान' चला। लेकिन चाभियां नहीं मिलनी थीं सो नहीं मिलीं। मगर यह कहां हार मानने वाले। बाजार जाकर चाभी बनाने वाले से चाभियां बनवाकर लाए। तब चैन पड़ी। तब से सारे ताले सहेज कर अपनी अलमारी में रखे हैं। मशीन में तेल डालने वाली कुप्पी पा गए हैं कहीं से। उसमें कड़वा तेल भरे रखे हैं। हर छठे-सातवें दिन सारे तालों में तेल डालकर उन्हें धूप दिखाते हैं। यही नहीं, सारे खिड़की-दरवाजों के कब्जों, सिटकनियों और कुंडो में तेल डालते फिरते हैं। जो भी दरवाजा खोलता है, उसके कपड़ों में तेल लग जाता है, मगर किसकी मजाल जो कोई इनसे कुछ कह दे। कहे तो सुने, कि सिर पर नहीं उठाकर ले जाऊंगा मैं। मरूंगा तो सब यहीं छोड़ जाऊंगा। तब जो समझ में आए, करना। मुझसे अपनी आंखों बरबादी नहीं देखी जाती। इसीलिए हलाकान होता रहता हूं। सो भाई, किसी ने कहा आपसे हलाकान होने को? जब इस बात का एहसास है कि सिर पर उठाकर नहीं ले जाओगे तो क्यों फंसे हो इस माया-मोह में। भगवत भजन में मन लगाओ। सुबह-शाम दो घंटा बैठके रामायण कि गीता का पाठ करो।

मगर नहीं, रात-रात भर उठकर ठहलते हैं। हर खिड़की, दरवाजा ठोक-बजाकर देखते हैं कि बंद है कि नहीं। कभी कोई दरवाजा खुला रहा गया तो दूसरे दिन सुबह-सुबह सारा घर सिर पर उठा लेंगे, 'चोरी हो जाती तो?' अब उनसे कौन बहस करे कि आजकल चोरी-डकैती दरवाजा खुला रह जाने से नहीं होती। आजकल चोर कि डाकू पूरी योजना बनाकर, कॉलबेल बजाकर शान से आते हैं। सीने पर पिस्तौल रखकर सामान ले जाते हैं। अभी एक महीना भी नहीं हुआ इसी कॉलोनी में रात के ग्यारह भी नहीं बजे होंगे, भसीन साहब के यहां डकैती पड़ी थी। डाकू पूरी ट्रक साथ लेकर आए थे। रात भर सामान लदता रहा। सुबह चार बजे ट्रक स्टार्ट करके चले गए। भसीन साहब पूरे परिवार सहित घर में थे। सबको रस्सियों से बांधकर मुंह में कपड़ा लूंस दिया था। सुबह जब महरी आई, तब चिल्ल-पों मची। लेकिन इनको कौन समझाए। इनका बस चले तो रोशनदान तक में ताला डलवा दें।

इधर पिछले कुछ दिनों से चिड़ियां चुगाने की आदत डाल ली है। सुबह उठते ही रसोई में घुस जाएंगे। रोटी वाला डिब्बा खोलकर उससे रोटी निकालकर मीस-मीस कर पूरे लॉन और गैलरी में फैला देंगे कि चिड़ियां आकर खाएंगी। चलिए भाई, खिलाइए रोटी। इसमें किसी को क्या एतराज हो सकता है। लेकिन इसमें भी फजीहत खडी होने लगी। रोटी अगर एक से ज्यादा बची तो यह कि इतनी सारी रोटियां क्यों बरबाद की जा रही हैं। और अगर एक भी नहीं बची तो यह कि चिड़ियों को खिलाने तक के लिए रोटी नहीं बचती। अब बताइए साहब, इसका कोई इलाज है? इसी को कहते हैं चित भी मेरी, पट भी मेरी। यानी मुझको तो मीन-मेख निकालनी ही है, तुम जो भी करो। आखिर हारकर इनकी झांय-झांय बंद करने की गरज से मैंने पत्नी से कहा कि एक रोटी कटोरदान में छोड़कर बाकी किसी बरतन में छिपाकर फ्रिज में रख दिया करो। मगर साहब, इनकी निगाह से कहां चीजें (बचने वाली)! यह तो सुबह उठते ही जैसे सारे घर की तलाशी लेने लगते हैं। आखिर एक दिन फ्रिज में छिपाकर रखी गई रोटियां इन्हें दिख ही गईं। अब यह शिकायत तो पीछे पड़ गई कि इतनी रोटियां क्यों बचीं। नई शिकायत यह पैदा हो गई कि मुझसे बात छिपाई जाती है, ताकि मैं कुछ कहूं नहीं। करो बरबाद। जितना करना है। पेट काट-काटकर मैंने यह गृहस्थी जोड़ी है। उड़ाओ सब मिलकर । लुटाओ दोनों हाथों से। फूंक डालो सब कुछ।

अजब-अजब आदतें बना ली हैं। कपड़े-लत्ते की कोई कमी नहीं है। लेकिन इसके बावजूद, फटी तहमद पहने, नंगे बदन, बाहर बरामदे में बैठे रहते हैं। इसी तरह सौदा लेने चले जाएंगे। कुछ कहो तो कहेंगे गांधीजी भी तो लंगोटी पहनते थे, उन पर किसी ने उंगली नहीं उठाई। वही पहने-पहने विलायत गए थे। वहां के राजा के साथ बैठकर खाना खाया था। अब कीजिए बहस! कर सकते हैं?

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