जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
उस समय की एक मनोरंजक घटना मुझे याद आ गई है। एसोशिएट प्रोफेसर का पद पाने पर डॉ० दस्तूर को बधाई देने के लिए विभाग की ओर से एक आयोजन किया गया। उत्तर में डॉ० दस्तूर ने जो वाक्पटु, व्यंग्य-विनोद पूर्ण और चुटीला भाषण दिया, वह भुलाने की चीज़ नहीं है। 'एसोशिएट' को जब छोटे में लिखते हैं तो 'ऐस' मात्र लिखते हैं, जिसका अर्थ अंग्रेज़ी में होता है 'गधा'।*
*'Every Professor is an ass'.—G.B.S.
डॉ० दस्तूर ने कहा कि मुझे मालम है कि लोग मुझे एसोशिएट प्रोफेसर के बजाय ऐस प्रोफेसर ही लिखेंगे, यदि कहेंगे भी नहीं, व्यस्तता के इस युग में संक्षिप्तता की ओर झुकाव स्वाभाविक है। इससे यदि किसी आदमी का उपहास होता हो तो दोष प्रयोक्ताओं का नहीं, अंग्रेज़ी भाषा का है। मैं अधिकारियों का बड़ा आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे ऐस० प्रोफेसर के योग्य समझा, पर वास्तव में तो ऐस० प्रोफेसर श्री ऐस० सी० देब होंगे, क्योंकि उन्हें विभाग प्रबन्ध की लादी भी ढोनी पड़ेगी। सच पूछो तो एक तरह से हम दोनों ही ऐस० प्रोफेसर होंगे-एक काम से, एक नाम से आदि-आदि... श्लेष,' अनुप्रास, व्याज, उच्चारण-वैभिन्य का आश्रय लेकर डॉ० दस्तूर ने उस दिन क्या-क्या नहीं कह डाला था। उस समय उनका चोट खाया हुआ अहं ही वाणी की प्रखरता में व्यक्त हुआ था। उनके आँसू पुंछ गये हों, पर वे अपने प्रति किये अन्याय को शायद ही भूले। बाद को जैसे ही उन्हें अवसर मिला वे इलाहाबाद युनिवर्सिटी छोड़कर चले गये।
शिक्षा-संस्थाओं में पदोन्नति के प्रश्न पर यहाँ कुछ कहना शायद अप्रासंगिक न होगा। सेवा-वय की ज्येष्ठता का अर्थ क्या है विश्वविद्यालयी सन्दर्भ में? यह तो एक दफ्तरी अंध-प्रक्रिया हुई कि जो क्लर्क बनकर घुसता है, वह यथासमय सेक्शन-आफिसर बनकर निकलता है, जो अण्डर-सेक्रेटरी बनकर, वह यथासमय ज्वाइंट सेक्रेटरी बनकर। क्या विद्या, बुद्धि और ज्ञान का पथ इतना सीधा है? क्या मानसिक विकास आराम-घड़ी और दीवारी-कैलेंडर के कालक्रम का अनुवर्ती होता है? वास्तविकता तो यह है कि पढ़ाने का पेशा बड़ा खतरनाक पेशा है। एम० ए० पास आदमी का दर्जा मिडिल पढ़ाने को दे दीजिये, और पाँच-सात बरस में उसकी बुद्धि का स्तर मिडिलची का न हो जाये तो मैं कुछ हारने को तैयार हूँ। इसी खतरे से बचने के लिए पश्चिमी विश्वविद्यालयों में चिन्तन को, शोध को, स्वाध्याय को, जो किसी स्थूल रूप में प्रमाणित भी हो, महत्त्व दिया जाता है, प्रोत्साहित किया जाता है। यहाँ शोध किया जाता है नौकरी पाने के लिए, वहाँ शोध किया जाता है नौकरी को बरकरार रखने के लिए, सार्थक करने के लिए। अपने यहाँ की युनिवर्सिटियों में मैं ऐसे लोगों को जानता हूँ, उनके नाम गिना सकता हूँ, जो लेक्चरर हो गये, रीडर हो गये, प्रोफेसर हो गये और उनके चिन्तन-शोध-स्वाध्याय के फलस्वरूप उनका एक भी लेख प्रकाशित नहीं हुआ। पश्चिमी विश्वविद्यालयों में यह अकल्पनीय है। ठीक है, आपने अंध-ज्येष्ठता के आधार पर पदोन्नति करने की परम्परा डाल रखी है-और उसके चलाये जाने में लगता ही क्या है- पर यह सवाल तो प्रष्टव्य है ही कि विश्वविद्यालयों में कालगत ज्येष्ठता को तरजीह दी जाये अथवा योग्यता की वरिष्ठता को। योग्यता का मापदण्ड बनाना कठिन है, पर यह कठिन काम यदि विश्वविद्यालयों में नहीं होगा तो कहाँ होगा! मैंने महाभारत में कहीं पढ़ा था कि शूद्र आयु से बड़ा माना जाता है, ब्राह्मण विद्या से, और इस प्रश्न का उत्तर आप ही दें कि आप विश्वविद्यालयों को ब्राह्मणपीठ मानना चाहेंगे या शूद्र-पीठ। मैं स्पष्ट कर दूं कि मैं ब्राह्मण और शूद्र को बुद्धि भेदी मापदण्ड से नाप रहा हूँ, वर्णभेदी मापदण्ड से नहीं।
हम शायद स्वभाव से ही अपने ऊपर कड़ी नज़र रखने वाला शासक नहीं चाहते। डॉ० दस्तूर, यह मानना पड़ेगा, अगर exact (सही) थे तो exacting (सही के आग्रही) भी थे। उनके विभागाध्यक्ष नियक्त न होने पर कछ लोगों ने राहत की साँस ली तो कोई ताज्जुब नहीं। देब साहब की अध्यक्षता में सबको 'अपन हथा जगन्नथा' रहने की स्वतन्त्रता थी। कुछ लोग शायद दोनों के प्रति उदासीन रहे हों-'कोउ नृप होउ हमहिं का हानी' या लाभ की मनोवृत्ति के अनुसार।
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