जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
दस बरस बाद जब मैं विभाग में लेक्चरर बनकर आया, देब साहब की हुलिया, चाल-ढाल, पोशाक, तौर-तरीके में कोई अन्तर नहीं आया था, केवल उनकी मूंछों के बिच्छू के डंक झड़ गये थे।
दस्तूर साहब की वेशभूषा में भी कोई फर्क न पड़ा था. शरीर से वे कुछ स्थूल हो गये थे और उनके सिर पर गंज झलकने लगी थी। उन्हें देखते ही चौदह वर्ष पहले का उनका रूप याद आता, दुबले-पतले, गोरे पारसी युवक का, सिर पर रेशम-से असघन, काले, पीछे को सीधे कढ़े बाल, पान के आकार का चेहरा-मस्तक का दीर्घ वृत्त-खण्ड, ठुड्डी पर लघु वृत्त-खण्ड बनाता, काले फ्रेम के चश्मे के पीछे बहुत पढ़ने वाली आँखें, मुख पर विद्वत्ता की गरिमा और गाम्भीर्य, पोशाक विशुद्ध अंग्रेज़ी सूट-बूट, टाई, कॉलर, हैट वाली। बरसातों में भी उनके कपड़ों की कलफ और क्रीज़ देखकर आश्चर्य होता, जबकि वे बरसते में साइकिल से युनिवर्सिटी आते-छाता या वाटरप्रूफ से भी इलाहाबादी बारिश में कितना बचाव सम्भव था। भेद एक दिन उन्होंने खोल दिया था, वे एक अटैची में एक पूरा धुला, इस्त्री किया सूट अपने कमरे में रखते और घर से आने पर बदल लेते। कई वर्ष पूर्व उनकी पत्नी का देहावसान हो गया था-बड़ी सुन्दर थी, मैं उनसे मिला था, कोई सन्तान न छोड़ी थी-और दस्तूर साहब ने दुबारा विवाह करने का विचार छोड़ दिया था, शायद उन्होंने अपने विधुर जीवन को सदा के लिए स्वीकार कर लिया थाएकाकी रहेंगे और एक समर्पित स्वाध्यायी और अध्यापक का जीवन व्यतीत करेंगे। एक विचित्र परिवर्तन उनके स्वभाव में आया था, जो मेरे लिए एक रहस्य था, पर जिसे बूझने का मैंने कभी प्रयत्न नहीं किया, अपने विवाहित जीवन में वे बड़े रिज़र्ल्ड, मितभाषी और संजीदा रहा करते थे; विधुर होने के पश्चात् वे मिलनसार, हँसमुख और सबके लिए खुले-से हो गये थे।
शुरू से ही, जैसे उनमें अपनी भौतिक स्थिति सुधारने की कामना थी वैसे ही अपने को अधिकाधिक ज्ञान-समृद्ध करने की लगन, और इसमें उनकी पत्नी के देहावसान से भी कोई अन्तर न आया था। पहले वे साइकिल से युनिवर्सिटी आते थे, फिर मोटर साइकिल से, जिसमें उन दिनों एक बगली सीट भी होती थी, फिर मोटर से। विधुर होने के बाद उन्होंने अपने को अधिक गहन और योजनाबद्ध अध्ययन में लगाया। मिल्टन उनका प्रिय कवि था- एम० ए० को वे मिल्टन पढ़ाते भी थे। उन्होंने Lucifer in Mediaeval English Literature (मध्यकालीन अंग्रेजी साहित्य में शैतान) पर बहुत सामग्री एकत्रित की थी, विशेष सामग्री इकट्ठी करने के लिए वे कई मास ऑक्सफोर्ड जाकर रहे थे, और लौटकर डी० लिट के लिए थीसिस प्रस्तुत की थी जो ब्रिटिश युनिवर्सिटियों के परीक्षकों द्वारा स्वीकृत भी हुई थी।
डॉ० दस्तूर ने मुझे बी०ए० और एम०ए० में और मि० देब ने एम०ए० में पढ़ाया था, दोनों मेरे गुरु थे–'को बड़-छोट कहत अपराधू'। प्रभाव उनका मुझ पर वही था जो क्लास में उनके लेक्चरों से पड़ा था, या यदा-कदा युनिवर्सिटी की विभिन्न संस्थाओं में उनके भाषणों से। संक्षेप में यही कहना चाहूँगा कि डॉ० दस्तूर यदि अपनी यथातथ्यता (Exactness) से विमग्ध करते थे तो देब साहब अपने प्राचुर्य (Exhuberance) से अभिभूत। सेवाकाल की ज्येष्ठता देब साहब के पक्ष में थी तो अकादमिक उपाधि की वरिष्ठता दस्तूर साहब के पक्ष में; और विभाग में प्रायः अनुमान लगाया जाता था कि युनिवर्सिटी की एक्जेक्यूटिव कमेटी अध्यक्ष पद के लिए किसको तरजीह देगी।
विभागाध्यक्ष श्री एस० सी० देब को बनाया गया, क्योंकि युनिवर्सिटी में उन्होंने अपनी सेवा डॉ० दस्तूर से पहले आरम्भ की थी। डॉ० दस्तूर ने अपने शिक्षण-दाक्षिण्य, स्वाध्याय एवं आचार-व्यवहार-गरिमा से तथा युनिवर्सिटी के सामान्य जीवन में अन्य रूपों में भी सक्रिय भाग लेकर अपने लिए एक ऐसा स्थान बना लिया था कि अधिकारियों ने भी यह अनुभव किया कि जो हुआ है उसे डॉ. दस्तूर के प्रति किसी अंश में अन्याय समझा जायेगा, और उनके आँसू पोंछने के लिए, बाद को, उन्होंने विभाग में एक एसोशिएट प्रोफेसर की जगह बनाकर उन्हें दे दी। दोनों प्रोफेसरों के वेतन आदि में क्या अन्तर रखा गया था, मुझे नहीं मालूम।
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