जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
|
201 पाठक हैं |
आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
पाण्डेयजी के अवकाश ग्रहण करने पर विभाग की अध्यक्षता के लिए दो तगड़े उम्मीदवार थे-मिस्टर एस० सी० देब और डॉ० पी० ई० दस्तूर।
देब साहब को मैंने पहले-पहल 1927 में देखा था जब मैंने बी० ए० करने के लिए युनिवर्सिटी में दाखिला लिया था। उनके सेक्शन या उनके सेमिनार में न पड़ने के कारण बी० ए० करते समय मैं उनके सम्पर्क में न आया था। उस समय वे लकरगंज में रहते थे और ताँगे से युनिवर्सिटी आते थे-पिछली सीट पर बैठने के कारण ताँगा उनके बोझ से पीछे को झुका रहता। वे एक हाथ में छड़ी और दूसरे में आसानी से न संभलने वाली पाँच-छह मोटी-मोटी किताबें लिये उतरते थे।
1929-'30 में जब मैं अंग्रेज़ी में एम० ए० (प्रीवियस) कर रहा था तब उन्होंने मुझे नाटक और उपन्यास के दो पर्चे पढ़ाये थे। भारी शरीर के अनुपात का उनका भारी-सा सिर, उस पर तेल की चमक लिये काले, छोटे बालों के बीचों-बीच सीधी माँग, छोटी-चौड़ी नाक के नीचे किसी लोशन की सहायता से कड़ी कर उठाई-उमेठी मूंछे-बिच्छू के दो डंकों जैसी-सांवला रंग, दरमियाना कद, पैंट पर बन्द कॉलर कोट, जिसके ऊपर के दो-एक बटन बन्द, शेष सब खुले-कोणाकार नीचे पहनी सफ़ेद कमीज़ दिखाते-बीच के बटन से अटकी चांदी के चेन वाली जेबी घड़ी, किसी बाँह के कफ में एक सफ़ेद रूमाल खुंसा-तब के देब साहब की यह तस्वीर आज भी मेरी आँखों के सामने है। खड़े होकर बोलते थे, धाराप्रवाह, हर चौथे-पाँचवें शब्द पर आघात (एम्फैसिस) बीच-बीच में फ्रेंच की हुरेट, जिसे क्लास में शायद ही कोई समझता हो। कभी उद्धरण देना होता तो पुस्तक, लेखक, प्रकाशक का नाम, प्रकाशन तिथि, संस्करण, अध्याय, पृष्ठ, पक्ति-सब स्मृति के आधार पर बता जाते-शायद सब ठीक ही। देसी अंग्रेज़ी का ऐसा शब्द-प्रपातगो बंगाली उच्चारण-प्रभाव से सर्वथा मुक्त-नायग्रा फाल जैसा-न कभी पहले देखा था न बाद को ही देखा। इसे में अपनी ही अक्षमता कहूँगा कि क्रमबद्धता में उनके विचारों में न पाता। एक विषय पर बात करते-करते वे किसी ऐसे दसरे. तीसरे या चौथे विषय पर पहुँच जाते जिसका कम-से-कम मेरी समझ में पहले से या आपस में दूर-दराज़ का भी सम्बन्ध न होता। 'मैं' शब्द का प्रयोग बहुत कम करते, प्रायः अपने को 'योर हम्बुल सर्वेन्ट' (आपका खादिम) ही कहते।
विद्यार्थी जीवन के शरारती दिनों में मैंने उन पर एक लिमरिक लिखी थी जो मुझे अब तक याद है-
प्रोफेसर देब वाज़ द सेम इन लेंग्थ एंड ब्रेड्थ
ऐंड ए मैन आफ एनसाइक्लोपीडिक डेप्थ,
ही वाज़ हम्बल टु ए फाल्ट,
ऐंड हम्बलर विद ए समर साल्ट;
ही कुड टाक आफ हाफ़िज़ ऐंड होनोलूलू ऐंड हलवा इन वन ब्रेथ।
इसका एक हिन्दी रूप भी था, (भारतभूषण अग्रवाल के 'तुक्तक' का फार्म आने में तो अभी चौथाई सदी की देर थी)-
प्रोफेसर देब थे गोलमटोल,
मानो विश्व-ज्ञान के ढोल
विनम्रता के थे अवतार
औ' विनम्रतम बन जाने में
उन्हें नहीं लगती थी बार,
कर सकते थे वे हाफिज़ का,
होनोलूलू का, हलवे का
एक साँस में शाखोच्चार।
यह तो नटखटपने की बात हुई, उभरती जवानी के दिनों की, जो हँसकर क्षमा कर दी जानी चाहिए। वास्तविकता यह है कि देब साहब का अध्ययन व्यापक था-बंगाली थे, बंगला तो जानते ही थे; कई पीढ़ियों से उत्तर प्रदेश में रहने के कारण हिन्दी-उर्दू भी अच्छी तरह जानते थे,-हिन्दी वालों से शुद्ध हिन्दी और उर्दू वालों से उर्दू-ए-मोअल्ला में बात कर सकते थे-अंग्रेज़ी के अध्यापक थे ही, फ्रेंच भी अच्छी तरह जानते होंगे-फ्रेंच साहित्य-बेजिल्दी-उनकी अलमारियों में गंजा रहता था, और मेरा ऐसा अनुमान है कि योरोप की और कई भाषाओं में भी वे दखल रखते थे। इन भाषाओं में उनका पठन केवल साहित्य तक सीमित नहीं था-धर्म, दर्शन, इतिहास, सौन्दर्य शास्त्र, स्थापत्य, मूर्ति-चित्रकला, संगीत-ये तो साहित्य के अंगी ही हुएनृ-शास्त्र, पुरातत्व, अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र, समाज शास्त्र, कानून, मनोविज्ञानकहाँ तक गिनाएँ-तकनीकी और विशुद्ध विज्ञान को छोड़कर शायद ही कोई ऐसा विषय हो जिस पर प्रामाणिक और अद्यतन पढ़े रहने का यथा-प्रसंग आभास देब साहब न देते हों। निश्चय ही उनके व्यापक और वैविध्यपूर्ण अध्ययन तथा प्रगल्भ और आकर्षक व्याख्यानों से उनके विद्यार्थी बहुत प्रभावित होते थे, यथावसर उनसे वार्तालाप, संलाप करके उनके सहयोगी और मित्र भी, गो उनसे बातचीत करने का अर्थ होता था-पाँच प्रतिशत अपनी कहना और पचानवे प्रतिशत उनकी सुनना।
|