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जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर

बसेरे से दूर

हरिवंशराय बच्चन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 665
आईएसबीएन :9788170282853

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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।


उस समय के अंग्रेज़ी विभाग की याद करता हूँ तो सबसे पहले मेरा ध्यान झा साहब की ओर जाता है। जिस वर्ष में स्थायी रूप से ले लिया गया, उसके एक वर्ष पहले वे अंग्रेज़ी विभागाध्यक्ष का पद छोड़कर युनिवर्सिटी के वाइस चांसलर बन गये थे, पर वे बरसों से विभाग से सम्बद्ध थे, पहले लेक्चरर, फिर रीडर और बाद में विभागाध्यक्ष के रूप में-सुना था जब वे विद्यार्थी थे, तभी लेक्चरर नियुक्त हो गये थे, एम० ए० में पढ़ते थे और बी० ए० को पढ़ाते थे। उनका भी विभाग के प्रति बड़ा मोह था, विशेषकर अपने अध्यापक रूप के प्रति। कौन आज इस बात का विश्वास करेगा कि वाइस चांसलर हो जाने पर भी वे बी० ए० के अंग्रेज़ी विद्यार्थियों का एक सेमिनार लिया करते थे। विद्यार्थियों का चनाव वे खद करते थे प्रथम श्रेणी पाने वालों अथवा अच्छे परिवार वालों में से, या फिर ऐसों का जिनसे किसी कारण वे अपनी विशेष निकटता का अनुभव करते हों। एक बार एक विद्यार्थी को दिखलाकर उन्होंने मुझे बताया था, He is my grand-pupil. (यह मेरा पौत्र शिष्य है।) इनके पिता को मैंने बी० ए० में पढ़ाया था, अब ये मेरे बी० ए० सेमिनार में हैं।

झा साहब ने विभाग में एक Friday Club (फ्राइडे क्लब) की स्थापना भी की थी। उसकी सदस्य-संख्या सीमित थी और उसमें वे अपने फेवरिट्स यानी प्रिय अथवा कृपापात्रों को रखते थे-प्राय: बौद्धिक अथवा संस्कारी आभिजात्यों को। फ्राइडे क्लब का सदस्य होना लोग बड़े गर्व की बात समझते थे। मैं कह नहीं सकता कि उसकी बैठकों में विशेष क्या होता था। अ-सदस्यों को उनमें सम्मिलित नहीं होने दिया जाता था। झा साहब की अनायास कृपा पर भी मैं कभी फ्राइडे क्लब का सदस्य नहीं रहा-न उन्होंने मुझे बनाने की इच्छा प्रकट की, न मैंने बनने की। फ्राइड क्लब नाम शायद इसलिए दिया गया था कि उसकी बैठकें शुक्रवार की सन्ध्या को हुआ करती थी, पर कुछ लोग, जिनके लिए उसकी सदस्यता खट्टा अंगूर थी, अथवा जो क्लब के सदस्यों के प्रति ईर्ष्या रखते थे-उनके झा साहब की निकटता प्राप्त करने के कारण-व्यंग्य से क्लब को Man Friday Club (मैन फ्राइडे क्लब) कहा करते थे। इस व्यंग्य में जो कटु संकेत है उसे वे ही समुझेंगे जो राबिन्सन क्रूसो का वफादार, फरमाँबरदार, हाँ-हजूरी करने वाला अनुचर था। उनके कहने का मतलब होता था कि फ्राइडे क्लब झा साहब के मिठुओं-पिठुओं की संस्था है। अहंपूर्ण सरपरस्ती (शायद पैट्रोनाइजिंग का यही अनुवाद किया जाये) झा साहब के मिज़ाज की एक जुज़ थी, पर यह मानना पड़ेगा कि अनधिकारियों ने उसका लाभ शायद ही कभी उठाया हो। अपने से छोटों से आदर पाने का हकदार वै अपने को ज़रूर समझते थे, उनकी विनम्रता से प्रसन्न भी होते थे; पर चाटुकारिता को प्रश्रय देते या उससे प्रभावित होते मैंने उन्हें कभी नहीं देखा।

उनके पढ़ाने की चर्चा मैं एकाधिक बार पहले कर चुका हूँ। अंग्रेज़ी विभाग से अपने पूर्व सम्बन्धों की स्मृति संजोए रखने पर भी, उसके कतिपय सूत्रों से अपने को प्रयत्नतः जोड़े रहने पर भी, वाइस चांसलर होने के बाद विभाग से झा साहब का सम्पर्क क्षीण होता गया, गो उस पर उनकी छाया का आभास बराबर अनुभव किया जाता रहा।

झा साहब वाइस चांसलर हो गये तो पण्डित शिवाधर पाण्डेय अंग्रेज़ी विभाग के अध्यक्ष हुए। वास्तव में वरिष्ठता के आधार पर झा साहब से पहले पाण्डेयजी को विभागाध्यक्ष होना चाहिए था। झा साहब ने स्वयं एक बार स्वीकार किया था कि अगर पाण्डेयजी चाहते तो उनके रास्ते में अडंगा खड़ा कर सकते थे, पर पाण्डेयजी भोले-भाले आदमी, वे रीडर बने रहकर सन्तुष्ट रहे, शायद इससे प्रसन्न भी हुए कि अध्यक्ष को जो प्रशासन-सम्बन्धी काम करने पड़ते हैं उनकी झंझट से बरी रहे, गो जब यह उनके सिर आ ही पड़ी तो उसको उन्होंने सलीके से निबाहा।

झा साहब में योग्यता भी थी, प्रदर्शन भी था। दोनों मिलकर लोगों पर गहरा और कभी-कभी थोड़ा आतंकपूर्ण प्रभाव भी डालते थे। पाण्डेयजी में योग्यता अधिक थी, अधीत वे निश्चय अधिक थे, ज्ञान में उनकी पैठ गहरी थी, पर प्रदर्शन उनमें बिल्कुल न था। वे किसी को न प्रभावित करते थे न प्रभावित करना चाहते थे। विभागाध्यक्ष होने पर शायद ही उनमें तिल-भर भी परिवर्तन आया हो। हाँ. कमरे- कमरे में जाकर क्लास लेने की बजाय अब वे अपने कमरे में बैठने लगे, और क्लास उनके पास आने लगा, विभाग में एक इंगलिश एसोसिएशन था जिसमें किसी का व्याख्यान होता या कोई पेपर पढ़ता तो विभागाध्यक्ष के नाते पाण्डेयजी को आना पड़ता। सम्बद्ध विषय में वे कुछ कहते भी, पर हमेशा यही लगता कि वे जितना व्यक्त करते हैं, उससे बहुत अधिक जानते हैं। इतना अधिक जानते हैं कि उसे थोड़े शब्दों में, थोड़े-से समय में नहीं बता सकते। संक्षेप में, सारवान और सटीक बात कहने में झा साहब को कमाल हासिल था।

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