कभी किसी शहर से कोई साहब आये हैं, मुझसे कह रहे हैं, फलाँ का नाम तो आपको याद होगा; अब हमारे नगर में अमुक पद पर हैं, आपके विद्यार्थी रहे हैं और बताते हैं कि कैसे क्लास में आप झूम-झूमकर 'मधुशाला' सुनाया करते थे...। और मैं अपने विद्यार्थी की कल्पना करता हूँ कि वह कैसे अपने कस्बे या शहर में जाकर लोगों में जमाता होगा. तम तो बच्चनजी को देखने-सनने को तरसते हो और वेहो रोज़ आकर पढ़ाते थे और कभी-कभी जब मूड में आते थे तो हमें 'मधुशाला' या और कविताएँ सुनाते थे। और इस तरह अपने को औरों की सुखद ईर्ष्या का पात्र बनाकर खुश होता होगा। और मैं अपने विद्यार्थी के उस हानि-रहित झूठ का प्रतिवाद नहीं करता, पर सच्चाई यही है कि अपनी लेक्चररशिप की अवधि में किसी भी दिन मैंने क्लास में कविता नहीं सुनाई।
मैं मेहनत से लेक्चर तैयार करता और वक्त से क्लास में पहुँचता तो अपने विद्यार्थियों से भी प्रत्याशा करता कि वे समय से क्लास में पहुँचें और ध्यान से मेरे लेक्चर सुनें। उपस्थिति के सम्बन्ध में मेरे नियम कड़े थे। मैं चाहता कि मेरे क्लास में पहँचने के पहले विद्यार्थी अपनी-अपनी जगह पर बैठ जायें। वे मेरे क्लास पहुँचने के बाद में भी क्लास में आ सकते थे, बशर्ते कि मैंने हाज़िरी लेनी न शुरू कर दी हो। हाज़िरी लेते समय वे क्लास में न आ सकते थे। हाज़िरी समाप्त होने के बाद वे क्लास में आ सकते थे-उस समय आने पर वे लेक्चर तो सुन सकते थे, पर उनकी हाज़िरी नहीं लग सकती थी और लेक्चर आरम्भ होने के बाद कोई लड़का अन्दर न आ सकता था। प्राय: लेक्चर-क्लास पहले पीरियड में होता था. और थोड़ी भी देर होने पर विद्यार्थी या तो हाज़िरी से चूकता था या हाज़िरी और लेक्चर दोनों से।
सत्येन्द्र शरत ने युनिवर्सिटी में वे मेरे विद्यार्थी थे-मुझे एक मनोरंजक किस्सा बताया था। बी० ए० फर्स्ट इयर में फर्स्ट पीरियड के लिए आने में उन्हें अक्सर देरी होती और कभी वे हाज़िरी से वंचित होते और कभी हाज़िरी-लेक्चर दोनों से। सेकेण्ड इयर में अंग्रेज़ी का लेक्चर-क्लास थर्ड पीरियड में हो गया, फर्स्ट पीरियड में एनट हिस्टी रख दी गयी जिसे श्री गोवर्धनराय शर्मा पढाते थे। सत्येन्द शरत ने राहत की सांस ली-अब थोड़ी-बहुत देर होने पर गैर-हाज़िरी तो नहीं लगा करेगी। और किसी दिन कुछ देरी से पहुँचने पर वे गोवर्धनराय के पास अपनी हाज़िरी लगवाने गये तो उन्हें क्या जवाब मिला? 'जानते हो मैं शिष्य किसका हूँ? बच्चनजी का।' सत्येन्द्र ने अपना माथा ठोंक लिया, 'धन्य हो बच्चनजी! आप तो सख्ती करते ही हो, अपनी शिष्य परम्परा भी डाल दी है।'
सुना है कि समुचित घास-दाना न पाने पर घोड़ा खरहरे से बिदक उठता है। मेरे विद्यार्थी मेरी सख्तियों पर कभी बिदके नहीं तो मैं यह नतीजा निकाल लेता हूँ कि उनको घास-दाना, यानी पठन-सामग्री पर्याप्त मिलती होगी मुझसे। मैंने अपने विद्यार्थी जीवन के अनुभव से यह बात और जानी थी कि The best study is self-study. (अपने-आप पढ़ना पढ़ने का सबसे अच्छा तरीका है।) मैंने क्लास में बैठकर अपने अध्यापकों के व्याख्यानों से इतना नहीं पाया था जितना लाइब्रेरी या अपनी मेज़ पर बैठकर स्वाध्याय से। इससे मैं अपने पढाने में इस बात का विशेष प्रयत्न करता कि मैं विद्यार्मियों में स्वयं पढ़ने की रुचि जमाऊँ, शायद इसलिए भी कि इससे मेरे पढ़ाने में जो कमी हो उसकी पूर्ति हो जाये। लेक्चरर लोग स्वाध्याय के लिए पुस्तकों की लम्बी-चौड़ी सूची का इमला तो ज़रूर बोल देते थे, पर विद्यार्थियों को पुस्तकें सुलभ न होती थी, लाइब्रेरी में एकाध प्रतियाँ हुईं भी तो पाँच सौ विद्यार्थी अपने-अपने नाम इशू कराने के संघर्ष में। विद्यार्थियों की इस असुविधा का हल निकालने के लिए मैंने एक सेक्शन लाइब्रेरी की स्थापना की। प्रथम वर्ष में विद्यार्थियों ने मिलकर जितना चंदा दिया उतना मैंने स्वयं उसमें मिलाकर कुछ ज़रूरी सहायक पुस्तकें खरीदकर क्लास की आलमारी में रख दी। साल-दर-साल विद्यार्थियों के चंदे से यह लाइब्रेरी बढ़ती रही और 14 वर्ष बाद जब मैंने युनिवर्सिटी छोड़ी पूरी अलमारी, काफी बड़ी, किताबों से भर गयी थी, लगभग 500; अंग्रेज़ी साहित्य के स्वाध्याय के लिए आवश्यक और महत्त्वपूर्ण पुस्तकें। हर पुस्तक और हर विद्यार्थी को निश्चित नम्बर देकर मैंने एक ऐसी सरल विधि बनाई कि लगभग 60 विद्यार्थियों को केवल 5 मिनट में पुस्तकें इशू करने का काम मैं समाप्त कर देता था। सदस्यता सीमित रहने से निश्चय मेरे बहुत-से विद्यार्थियों ने उन पुस्तकों से लाभ उठाया, शायद उससे अधिक जितना मेरे क्लास में व्याख्यान देने से। अपने पढ़ाने के सम्बन्ध में मैं और कुछ न कहना चाहूँगा।