जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
मेरा भावना-जगत अब भी विश्रृंखल था, पर अपने भौतिक जगत में मैंने एक व्यवस्थित मार्ग पर पाँव रख दिये थे। मैं जानता था कि अपने भावना-जगत में सफलता प्राप्त करना मेरे श्रम-यत्न से सम्भव न था, पर भौतिक-जगत में श्रम-यल से जो पाया जा सकता था उसे मैंने प्राप्त कर लिया था। 1931 में इलाहाबाद स्कूल में मैंने 25/- रुपये प्रतिमास पर नौकरी शुरू की थी और 1941 में इलाहाबाद यनिवर्सिटी में मैं 125/- रुपये प्रतिमास पर लेक्चरर नियुक्त हो गया था। दस वर्ष के संघर्ष के बाद यह कोई बड़ी उपलब्धि तो न थी, पर मेरी उस समय की मन:स्थिति में बड़ी सन्तोषदायिनी थी-मेरी भावनाओं की दुनिया आबाद न हो सकी तो भी स्वाध्याय, शिक्षण और यथावकाश सृजन में अपने को व्यस्त रखकर मैं अपने जीवन को सार्थक बना लूँगा-झा साहब क्या अपने एकाकी जीवन को इसी गरिमा से नहीं जी-झेल रहे थे?
समय कभी-कभी इतनी मन्द गति से चलता है कि बरसों बीत जाते हैं और मालूम होता है कि कोई नयी बात नहीं हुई और कभी-कभी इतना तेज़ चलता है कि जैसे चार-छह महीनों में एक युग बीत गया हो। अगस्त 1941 से जनवरी 1942 तक के छह महीने मेरे लिए बाहर से तेज़ी के ही नहीं, भीतर से भीषण रूप से झकझोरने वाले भी थे। उनकी विस्तृत चर्चा मैं अपनी आत्मकथा के दूसरे खण्ड में कर चुका हूँ। यहाँ मैं उनका ज़िक्र केवल यह बताने के लिए करना चाहता हूँ कि उन तन और मन को धुनने वाले दिनों में यदि मेरी राहत की कोई जगह थी तो मेरीकक्षाएँ थीं, मेरे विद्यार्थी थे, जिनके बीच बैठकर मैं अपनी कटु परिस्थितियों को भल कला साहित्य कविता और नाटक की दनिया में पलायन कर जाता था. और जिनसे मिला आदर और किसी अंश में स्नेह भी मेरे हृदय के घावों पर मरहम का काम करता था। उन दिनों अपने नये-नये क्लास के लैक्चरों की तैयारी में यदि मुझे अपना बहुत-सा समय लगाना न पड़ता तो मैं नहीं कह सकता कि अपनी खाली और काली घड़ियों को कैसे काटता।
उन दिनों एक सफल अंग्रेज़ी अध्यापक बनने और दिखने की भी धुन मुझ पर इस कदर सवार थी कि मेरा हिन्दी का कवि मेरे अंग्रेज़ी के लेक्चरर के लिए एक दहशतदेह complex यानी कुण्ठा बन गया था ! मैं कोशिश करता, मैं सतर्क रहता कि अपनी चाल-ढाल, बाल से हिन्दी का कवि बिल्कुल न दिखूँ-कवि मेरे यौवन में प्राय: बालों से पहचाना जाता था-बाल-कवियों के कई चेहरे मेरी आँखों के सामने से गुज़र गये हैं, जिनमें मेरा अपना भी है-
सिर पर बाल घने, घुघराले,
काले, कड़े, बड़े बिखरे-से
गायब हो गये,
गो अपने रूप-परिवर्तन पर मेरे कवि को थोड़ा मलाल भी था-
सिर पर बाल कढ़े कंघी से
तरतीबी से चिकने, काले,
जग की रूढि-रीति जैसे
मेरे ऊपर फंदे डाले
और यह फंदा मेरे सिर पर ही नहीं, मेरे गले में भी होता, नेकटाई के रूप में-अंग्रेज़ी काट के सूट-बूट से मैच करता। अंग्रेज़ी पढ़ाता हूँ तो अंग्रेज़ी पोशाक में पढ़ाऊँ, अंग्रेज़ी लहज़े से भी, चाल-ढाल, पोशाक सबसे अंग्रेज़ी के लेक्चरर की साहबी चुस्ती-दुरुस्ती, हिन्दी के कवि का ढीला-ढाला, ऊल-जलूलपन कहीं भी नहीं-सिगरेट कभी-कभी पीता हूँ, गाल में पान की गिलौरी नहीं दबाता।
और नहीं चाहता कि युनिवर्सिटी में, पढ़ाने के घण्टों में, क्लास में, विद्यार्थियों में कोई मुझे 'बच्चन' नाम से संकेतित या सम्बोधित करे। उन दिनों परीक्षा में उत्तर-कापियों पर अपने लेक्चरर का नाम देने की प्रथा थी। अक्सर विद्यार्थी लेक्चरर की जगह 'बच्चन जी' या 'मिस्टर बच्चन' लिख देते थे। इस पर मैं उन पर बिगड़ता; मैं युनिवर्सिटी में 'बच्चन' नहीं हूँ, 'हरिवंशराय' हूँ। मना करने पर भी ऐसी भूल करने के लिए कभी-कभी तो मैं उनके नम्बर भी काटता। मेरा हिन्दी कवि प्रस्थापित था, मुझे अपने अंग्रेज़ी अध्यापक को स्थापित करना था।
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