झा साहब के सामने पहुँचकर मुझे यह अनुभूति हुई कि जैसे मैं 'स्फिक्स' के सामने जाकर खड़ा हो गया हूँ-उनके चेहरे से इसका कोई आभास न मिल सकता था कि मैं युनिवर्सिटी में लिया गया हूँ कि नहीं। न वे कुछ कह रहे थे, न मैं कुछ पूछ रहा था। झा साहब के सम्पर्क में ऐसे खामोशी के वक़फ़े नये नहीं थे, पर उस दिन की उनके और मेरे बीच वाली वैकुअमी स्थिति मुझे जितनी दीर्घ और दुःसह लगी उतनी पहले कभी नहीं लगी थी। अन्त में साहस करके जब मैं ही बोला कि क्या मेरे लिए कोई 'खुशखबरी' है? तो उत्तर में पूर्व-परिचित ठहरी-सी आवाज़ में मुझे यह सुनाई पड़ा- You... will... hear... from... the... registrar... in due course... (तुम्हें... यथासमय... रजिस्ट्रार... सूचित... करेंगे)
दूसरे दिन मेरी नियुक्ति का समाचार 'लीडर' में छप गया था। तीसरे दिन रजिस्ट्रार का पत्र भी आ गया।
मुझे झा साहब के पास कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए जाना ही था! वे कम गम्भीर थे। उनके बड़े-बड़े कोयों में उनकी पुतलियाँ कई बार घूमी, जैसे उनकी आँखों के सामने से कोई पिछला दृश्य गुज़र रहा हो जिसे वे वाणी देना न चाहते हों, पर जिससे वे अप्रसन्न हों।
उस सन्ध्या के झा साहब के मूड का रहस्य मुझ पर कई दिनों के बाद खुला। हितकारिणी कॉलेज, जबलपुर, की स्टूडेन्ट्स यूनियन का उद्घाटन करने के लिए डॉ० ताराचन्द को निमन्त्रित किया गया था, और मुझे उस अवसर पर आयोजित कवि-सम्मेलन में भाग लेने के लिए। हम दोनों एक ही डिब्बे में सफर कर रहे थे। बातचीत के सिलसिले में डॉ० ताराचन्द ने बताया कि तुम्हारी नियुक्ति कराने में झा साहब के सामने बड़ी मुश्किल खड़ी हो गयी थी, तुम्हारा नाम गिरते बाल-बाल बच गया। डॉक्टर साहब यूनिवर्सिटी की एक्जेक्यटिव कमेटी के सदस्य थे और उस दिन जो वहाँ हुआ था उसके चश्मदीद।
बात यह हुई थी कि मेरे प्रतिद्वन्द्वी ने, जिनका जिक्र मैं पहले कर आया हूँ, एक जाति-विशेष के सब सदस्यों को-जिनका कमेटी में बहुमत था, अपनी ओर. कर लिया था, और इसका पता झा साहब को भी नहीं था। साधारण योग्यताएँ लगभग बराबर होने पर मेरे विपक्ष में दो बातें ज़ोरों से कही गयी थीं-एक तो यह कि मैं ट्रेन्ड था, इस कारण स्कूलों या ज़्यादा-से-ज्यादा इंटर कॉलेजों में पढ़ाने के योग्य था, दूसरी यह कि चूँकि मैं हिन्दी का कवि था इस कारण अंग्रेज़ी पढ़ाने की क्षमता मुझमें कम ही हो सकती थी। सच बात यह है कि मेरे हिन्दी कवि का रूप लोगों के दिलो-दिमाग पर इस कदर छाया था कि उसके नीचे मेरे अंग्रेज़ी अध्यापक का स्वरूप उन्हें दिखाई ही न देता था।-झा साहब को लोगों को निरुत्तर कर देने वाला यह प्रश्न पूछना पड़ा था कि ट्रेन्ड होने से मेरे अंग्रेज़ी (एम०ए०) की योग्यता किस तर्क से कम हो गयी थी, और हिन्दी का कवि होने से अंग्रेज़ी का अध्यापक होने की मेरी काबलियत पर कैसे ज़रब आता था?
इतने पर भी जब मत लिया गया, तब बहुमत मेरे प्रतिद्वन्द्वी के पक्ष में आया और झा साहब को अपने संकेत से अपने कुछ निकटस्थ मित्रों के हाथ नीचे गिरवाने पड़े। ऐसी स्थिति से झा साहब, स्वाभाविक है, बहुत खिन्न हुए थे। यह बात मुझे पहले मालूम होती तो उस सन्ध्या को उनका मूड मुझे इतना विचित्र और निराशाजनक न लगता।
दो ही चार रोज़ अंग्रेज़ी विभाग में जाने पर मुझे पता लग गया कि मेरी पीठ पीछे यह कहा जा रहा है कि मैं हिन्दी के चोर दरवाज़े से अंग्रेज़ी विभाग में घुस आया हैं। ज़बान कौन किसकी रोक सकता है: पर मैंने मन-ही-मन निश्चय किया कि अपने को अंग्रेज़ी का एक अच्छा अध्यापक सिद्ध करूँगा, हिन्दी का कवि होने के बावजूद।