मुझमें अध्यापक का बीजारोपण नि:सन्देह उन ट्यूशनों के समय हुआ होगा जो मैंने अपने परिवार की आर्थिक विपन्नता में अपने विद्यार्थी-जीवन से ही करनी शुरू कर दी थी। मुझे आज भी वह अवसर याद है जब पहली ट्यूशन पर मेरे विद्यार्थी ने मुझे पहली बार 'मास्टर साहब' कहकर सम्बोधित किया था। उस सम्बोधन से अचानक यह रोम-प्रहर्षक अनुभूति हुई थी कि आज मैं एक पीढ़ी पार कर गया हूँ-विद्यार्थी से अध्यापक बन गया हूँ। 1930 में पढ़ाई छोड़ने और 1937 में फिर से आरम्भ करने के बीच यों तो मैंने कई तरह के पापड़ बेले थे, पर मेरा अधिकांश समय अध्यापकी में ही बीता था-इलाहाबाद स्कूल, प्रयाग महिला विद्यापीठ और अग्रवाल विद्यालय हाई स्कूल में। अग्रवाल विद्यालय का समय मेरे तीव्रतम मानसिक और आर्थिक संघर्षों का था; फिर भी उन दिनों की कुछ उदात्त यादें मेरे कतिपय विद्यार्थियों ने संजो रखी हैं।
आज तो मुझे यह सोचकर आश्चर्य होता है कि उन चिन्ताग्रस्त दिनों में कर्तव्य के प्रति निष्ठा और अपने विद्यार्थियों के प्रति सद्भावना मैंने कैसे जुगा रखी होगी। इसका श्रेय मैं मुख्यतया अपने युग को देना चाहूँगा जिसमें महात्मा गांधी इस धरती पर चलते थे। गांधी ने अपने चरित्र से सारे देश के वातावरण को आदर्शवादिता से कैसा 'चार्ज' (अनुप्राणित) कर रखा था, इसे वह युग नहीं समझ सकेगा जिसने उन्हें नहीं देखा। फिर अध्यापक जिनके साथ काम करता है वे मानवीय तत्त्व हैंमानवता के भी बड़े सरल, कोमल, जीवन्त, सम्भावना-पुंज रूप। मैंने अपनी गहन-से-गहन वैयक्तिक चिन्ता, असन्तोष अथवा आक्रोश में भी अपने और अपने विद्यार्थियों के बीच वह चीज़ नहीं आने दी जिसका पढ़ने-पढ़ाने से सीधा सम्बन्ध नहीं था। आज तो मैं ऐसा भी समझता हूँ कि विद्यार्थियों के बीच बैठकर मैं अपनी बहुत-सी उद्विग्नताओं से विमुक्त हुआ था। अपनी परेशानियों के दिनों में अगर मैं पढ़ाने के अतिरिक्त कोई और काम करता होता, जैसे किसी दफ्तर में क्लर्की, यानी अगर मैं विद्यार्थियों के रूप में मानवता के एक अत्यन्त प्रीतिकर तत्त्व के सम्पर्क में न होता तो मैं निश्चय अपनी घुटन और घबराहट को अधिक कटुता के साथं अनुभव करता। अध्यापक जीवन का एक पक्ष अगतिशीलता और एकरसता का भी है, पर उसे महसूस करने के लिए जो लम्बी अवधि चाहिए उससे मैं अभी न गुज़रा था, और 1939 में बी० टी० कर लेने के बाद मैं प्रमाण-पत्र प्राप्त अध्यापक के रूप में स्थापित हो गया था, गो शुरू में विस्थापित-सा ही, विभिन्न स्कूलों-कॉलेजों में नौकरी के लिए अर्जियाँ लगाता या साक्षात्कार के लिए एक जगह से दूसरी जगह मारा-मारा फिरता।
'सरलता से कुछ नहीं मुझको मिला है।'
1941 में अंग्रेज़ी विभाग में स्थायी लेक्चरर की जगह हुई थी और मैंने झा साहब की शुभकामनाएँ लेकर प्रार्थना-पत्र भेज दिया था। अपने दावे को कुछ अधिक मज़बूत करने के लिए, उन्हीं के आदेश पर मैंने अपने शोध-विषय W. B. Yeats : His Mind and Art (डब्ल्यू० बी० ईट्स : उनका मनस् और उनकी कला) से सम्बन्धित सौ पृष्ठों का लघु प्रबन्ध भी साथ प्रस्तुत कर दिया था। नियुक्तियाँ युनिवर्सिटी की एक्जेक्यूटिव कमेटी में बहुमत के आधार पर होती थी, पर प्रायः सदस्यगण वाइसचांसलर के सुझाव का ही समर्थन कर देते थे।
कमेटी की बैठक के बाद आशा और आशंका से धड़कते दिल से मैं झा साहब से मिलने गया-अपनी सफलता या असफलता का समाचार मैं उनके मुख से ही सुनें। प्रतिद्वन्द्वी मेरे कई थे ही। सबका मुझे पता न था, पर एक की विशेष चर्चा सुनी जाती थी, और यह भी कि वे कमेटी के सदस्यों को अपनी ओर करने के लिए बहुत हाथ-पाँव मार रहे हैं।